भारतवर्ष की विशेषता है, उसका अध्यात्म प्रधान भौतिक परिवेश। यहाँ भौतिकता अध्यात्म के संरक्षण में पल्लवित पोषित होती आयी है। भारतभूमि पूरे विश्व में सर्वश्रेष्ठ ही इसलिये है क्योंकि यहाँ अध्यात्म और भौतिकता की आश्चर्यजनक निकटता है। छः ऋतुओं की छठा इसी धरा पर निखरती है। इसी अध्यात्म प्रधान भौतिकता की प्रतीक है गंगा। गंगा भारत भू को विधाता की एक अनुपम भेंट है, एक दिव्य उपहार है, एक भव्य वरदान है। युगों-युगों से गंगा के प्रति भारतीय जनमानस नतमस्तक होता आया है, तथा वह गंगा को मोक्षदायिनी, पापनाशिनी, मैया आदि नामों से संबोधित कर उसका आदर मान करता आया है। विडम्बना पूर्ण स्थिति यह है कि एक ओर तो हम गंगा का आदर-मान करते हैं किन्तु दूसरी ओर उसके पवित्र जल में कारखानों का उत्सर्जन, मृत देहों की राख तथा भांति-भांति का कूड़ा कचरा मिलाने से नहीं हिचकिचाते । यह कैसा दोहरा आचरण है? क्या आदर मान मात्र वाणी तक ही सीमित होना चाहिये। किसी की श्रेष्ठता स्वयं ओढ़ लेना तथा अपना पाप उसे दे देना क्या न्याय संगत है? क्या कोई भी तर्क इस मान्यता को सिद्ध कर सकता है कि कितने भी पाप कर लो और फिर गंगा के पवित्र जल में स्नान कर लो, तो सारे पाप धुल जाएंगे? क्या गंगा के जल के आचमन और उसमें स्नान मात्र से पापों से मुक्ति मिलना संभव है?
पाप का आधार यह भौतिक शरीर अवश्य है किन्तु पाप बिना मन प्राणों को साथ लिये संभव नहीं। शरीर तो मन-मस्तिष्क के संदेशो का वाहक होता है। अतः मात्र देह की स्वच्छता पाप निवारक नहीं हो सकती जब तक कि उसमें आत्मिक बल न हो, उसका अन्तःकरण पूर्णरूपेण निर्मल एंव पवित्र न हो। वास्तव में आज मानव पाप की परिभाषा भूल गया है। गंगा के जल के प्रति आचरण गंवा बैठा है। गंगा प्रतीक है श्रेष्ठतम को अपनाने की। गंगा प्रतीक है निम्नता के त्याग की। गंगा निराकार निर्विकार रहकर मौन साधिका सी संसार के कल्याण के लिए निरन्तर गतिमान रहती है, कभी रुकती नहीं कभी यकती नहीं। किसी प्यासे को लौटाती नहीं, सबको स्वयं में आत्म सात् कर लेती है। गंगा सत् है चित् है आनन्द है। गंगा लोक कल्याण के लिए ही पृथ्वी पर आयी है। जो गंगा हिमालय की दुर्गम चोटियों एंव शिखरों से बहती हुई उसकी गोद में समायी जड़ी बूटियों को स्वयं में समेट लेती है और जन कल्याण के लिए, उसकी शारीरिक व्याधियों को स्वयं के निर्मल जल से दूर करती आयी है आज वही गंगा चीख चीखकर कह रही है कि अपने मन की मलिनता, कल्मषता को अपने श्रेष्ठ आचरण से धो लो। मुझे देखो मुझसे कुछ सीखो निम्नता को त्यागो, तपस्वी बनो। मुझे देखो मैं गंगा ऊंचे सबसे ऊंचे आकाश में बहने वाली होकर भी लोक मंगल के व्रत का अनुष्ठान लिए हुए निम्न धरातल पर आने से भी नहीं हिचकिचायी। मेरे जल की निर्मलता प्रतीक है मन प्राणों को निर्मल रखने की किन्तु खेद ! कि मनुष्य यह सब देखकर भी न देख सका, न सीख सका।
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