"अभी मुझे और धीमे कदम रखना है,
अभी तो चलने की आवाज आती है।"
अपनी साधना-यात्रा में ऐसा सूक्ष्म आत्मालोचन करने वाले सन्त-कवि क्षमासागरजी अपनी अनुभूतियों की अभिव्यक्ति में, अपनी सूक्ष्म टिप्पणियों में ऐसा कह जाते हैं कि पाठक भाव विभोर होते न होते विचारोद्वेलित हो उठता है। अत्यन्त कोमलता के साथ वे मनुष्य की सांसारिकता को दर्पण के सामने सरका देते हैं। पाठक बिम्ब-प्रतिबिम्ब में स्वयं को पाकर छवि पर रीझता हुआ विचलित हो उठता है।
सिंघई परिवार में जन्मे वीरेन्द्र कुमार ने सागर विश्वविद्यालय से भूगर्भ विज्ञान में एम.टेक. की उपाधि प्राप्त कर, तपोनिष्ठ आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज के आध्यात्मिक आलोक में, अपनी युवावस्था में गृह त्याग कर, दीक्षा अंगीकार कर ली थी। वीरेन्द्र कुमार ने नया नाम पाया था- क्षमासागर। जीवन में न कहीं निराशा थी, न हताशा। न कहीं कोई असफलता, न कोई विरक्ति प्रेरक कटु प्रसंग। स्वेच्छा और स्वप्रेरणा से आत्मकल्याण की ओर, आप अपने गुरु के आध्यात्मिक प्रभाव में प्रवृत्त हुए थे।
वीतराग मुनि के जीवन और चर्या ने उन्हें ऐसे प्रभावृत्त से मंडित कर दिया कि उनका प्रथम श्रेणी का कवि-व्यक्तित्व, दूसरी पंक्ति में कहीं बैठा मिलता है। कविता और लेखन का संसार उनकी प्राथमिकता नहीं है, पर उनकी प्रतिभा में कविता ऐसी समायी है कि वह अप्राथमिक बन जाने पर भी, उनकी अभिव्यक्ति को समृद्ध करती हुई, पाठक को कभी भाव-विभोर, कभी उद्वेलित और प्रायः आत्मालोचन की ओर प्रवृत्त करती हुई, उससे ऐसा सम्बन्ध बना लेती है कि वह उससे बंध जाता है। अन्तःकरण को विस्तार देते हुए, उनकी कविता और उनका लेखन, पाठक के मन का परिष्कार करते है के समाधान हेतु आकर्षित करता था। प्रश्नोत्तर के संवादपूर्ण प्रहर में मुनिश्री से प्रश्न करने वालों में, जहाँ जिज्ञासु किशोर होते थे, वहीं प्रकांड पंडित भी। जीवन, जगत, आत्मा, परमात्मा और इनसे सम्बन्धित सैकड़ों रहस्यों को लेकर उठती जिज्ञासाओं के उत्तर मुनिश्री के मुख से सुनना अपने आप में एक अलौकिक अनुभव था। जो किताबों से नहीं मिल पाता, जो शास्त्रों में उलझा रह जाता है, जो परम्पराओं से अस्पष्ट चला आया है, जो रूढ़ियों से अतार्किक है, जो पूछने में बालोचित लगता है, जो पूछा जाने योग्य प्रतीत नहीं होता, वह सब भी मुनिश्री के सान्निध्य में, प्रासंगिक चर्चा का विषय बन जाता था।
अद्वितीय कवि, चिन्तक एवं विज्ञानविद् मुनिश्री की मनीषा ने धर्म की वैज्ञानिकता एवं विज्ञान की धार्मिकता को एक दूसरे के निकट लाने का प्रयत्न किया है। अतः विज्ञान एवं धर्म, उनकी व्याख्याओं में एक-दूसरे के प्रतिरोधी न बनकर, परस्पर पूरक बने मिलते हैं। धर्म एवं विज्ञान के प्रति मुनिश्री की यह दृष्टि जैन एवं अजैन, समस्त बन्धुओं को समान रूप से अपनी तार्किकता के कारण, आधुनिक और अनुकूल प्रतीत होती है। मुनिश्री की मन को छूने वाली भाषा और शैली पाठक को मर्म तक सहज ही पहुँचा देती है।
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