आर्यसमाज के भजनोपदेशकों का इतिहास अप्रतिम है। ये अपने प्रस्तुतीकरण में लोकभाषाओं का प्रयोग करते हैं, इन अर्थों में ये लोक गायक हैं। इससे पहले लोक में गाने वालों को गायक या गवैया कहा जाता रहा होगा, लेकिन आर्यसमाज ने इन्हें भजनोपदेशक का सार्थक नाम दिया। गवैया, कलाकार और गायक का कला पक्ष मुख्य है, लेकिन भजनोपदेशक का प्रमुख पक्ष समाज में सत् का प्रचार और असत् का निवारण है। यही कारण है कि भजनोपदेशक का कलाकार के रूप में अधिक उल्लेख नहीं हुआ। लिखने वालों ने भजनोपदेशक के महत्त्व को समझा भी नहीं।
लोग कलाकारों की कला को देखते थे। भजनोपदेशकों का जीवन, चरित्र और व्यवहार भी देखा जाता था। अनेक कलाकार शराब के नशे में धुत होकर कला का प्रदर्शन करते थे, भजनोपदेशक यदि हुक्का भी पी लेता था तो उसका चर्चा हो जाता था। कला पक्ष में भी पीछे नहीं थे। अनेक स्थानों पर सांगियों और भजनोपदेशकों के खुले दंगली मुकाबले हुए, जिनमें भजनोपदेशक इक्कीस ही रहे। आर्यसमाज के प्रारम्भिक काल में, जब भजनोपदेशक विधा का उदय हो ही रहा था, सांग विधा का जबरदस्त प्रचलन था। ऐसे समय में भजनोपदेशकों ने सभ्य समाज में जो स्थान पाया, वह किसी चमत्कार से कम नहीं है।
दोनों ही विधाओं में ऐतिहासिक कथाओं का प्रस्तुतीकरण किया गया। भजनोपदेशकों की इतिहास कथाओं में उन प्रसंगों को स्वीकार किया!
गया जो कुछ सन्देश देकर मनुष्य के चरित्र को ऊँचा उठाने का कार्य करती थीं। चाहे वह देशाभिमान की बात हो, धर्म रक्षा का प्रसंग हो, समाज में व्याप्त कुप्रथाओं पर प्रहार हो, भजनोपदेशक जान की बाजी लगाकर एक योद्धा की तरह विपरीत परिस्थितियों में तनकर खड़े हो जाते थे। आर्यसमाज के जितने भी समाज सुधार और राष्ट्रीय महत्त्व के कार्य इतिहास के पन्नों में स्वर्णाक्षरों में अंकित हैं, उनका सर्वाधिक श्रेय आर्यसमाज के भजनोपदेशकों को है, पर उनको इतिहास में समुचित स्थान प्राप्त नहीं है।
भक्त अमीचंद और दादा बस्तीराम ऐसे दो महापुरुष हैं जिन्हें स्वामी दयानन्द के सामने उनकी सभाओं में गाने का अवसर प्राप्त हुआ।
भजनोपदेशकों की सुदीर्घ परम्परा में स्वामी भीष्म जी महाराज का नाम सम्मान के साथ लिया जाता है। स्वामी भीष्म जी की विशाल शिष्य परम्परा में स्व. पं. चन्द्रभान आर्य भजनोपदेशक एक प्रमुख हस्ताक्षर हैं। उन्होंने 18 वर्ष की तरुणावस्था में स्वामी भीष्म जी का सान्निध्य/शिष्यत्त्व प्राप्त किया और 21 वर्ष की अवस्था में अपनी पार्टी बनाकर भजनोपदेश प्रारम्भ कर दिया था। उन्होंने प्रारम्भ में अपने गुरु की रचनाओं की प्रस्तुतियाँ दीं। शीघ्र ही उन्होंने नई सामयिक तर्जों में अपना रचना कर्म प्रारम्भ कर दिया। हालांकि कई वर्ष पूर्व उनके बाल सखाओं ने लेखक को बताया था कि स्वामी जी के पास जाने से पूर्व भी वे फुटकर भजन बनाते थे और गांव की महफिलों में सुनाते थे।
पं. चन्द्रभान आर्य की कथाओं में लोक प्रसिद्ध इतिहास कथाओं का समावेश तो है ही, सामयिक समस्याओं पर भी उन्होंने मौलिक कथाओं की रचना की है और उनको स्वयं गाया भी है। हालांकि उनकी लोकप्रियता के चरम काल में टेप आदि की सुविधाएँ नहीं थीं, तथापि वृद्धावस्था में गाई हुईं अञ्जना और सुन्दर बाई की कथायें ऋषि रेडियोज रोहतक के पास उपलब्ध हैं। उनकी स्वयं गाई हुई कुछ फुटकर रचनायें भी श्री अमित आर्य सिवाहा ने खोज निकाली हैं।
पं. चन्द्रभानु आर्य लिखित लगभग 45 छोटी बड़ी इतिहास कथायें उपलब्ध हैं, जिनमें से अधिकतर अप्रकाशित हैं। लेखक इनको अपने जीवनकाल में प्रकाशित नहीं करा पाये। हम इनको प्रकाशित कराने का प्रयास कर रहे थे। अनेक कारणों से विलम्ब होता गया। गीना प्रकाशन ने इस विस्तृत साहित्य को अलग-अलग भागों में प्रकाशित कराने का सुझाव दिया, जो प्रायः सबको पसन्द आया। इस भाग में पाँच कथायें प्रस्तुत हैं। शेष भाग भी शीघ्र प्रकाशित कराने का विचार है। आपके सहयोग और सुझावों का स्वागत रहेगा।
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