'भारत सावित्री' के रूप में महाभारत का एक नया अध्ययन यहाँ प्रस्तुत किया गया है। इस अध्ययन के अट्ठाइस लेख 'हिन्दुस्तान' साप्ताहिक पत्र में धारावाहिक रूप से १६५३-५४ में प्रकाशित हुए थे, शेष अंश बाद में लिखा गया है। पुस्तक तीन खण्डों में है। इस प्रथम खण्ड में 'विराट पर्व' तक की कथा आ गई है। दूसरे खण्ड में 'उद्योग पर्व' से 'स्त्री पर्व' अर्थात् युद्ध के अन्त तक की कथा है और तीसरे खण्ड में 'शान्ति पर्व' से लेकर महाभारत के अन्त तक का अंश दिया गया है।
'भारत सावित्री' नाम महाभारत के अन्त में आया है। जैसे वेदों का सार गायत्री मन्त्र या सावित्री है, वैसे ही सम्पूर्ण महाभारत का सार धर्म शब्द में है। भारत-युद्ध की कथा तो निमित्त मात्र है, इसके आधार पर महाभारत के मनीषी लेखक ने युद्ध-कथा को धर्म-संहिता के रूप में परिवर्त्तित कर दिया था। धर्म की नित्य महिमा को बताने के लिए ग्रन्थ के अन्त में यह श्लोक है:
न जातु कामान्न भयान्न लोभाद् धर्म त्यजेज्जीवितास्यापि हेतोः ।
नित्यो धर्मः सुखदुःखे त्वनित्ये नित्यो जीयो धातुरस्य त्वनित्यः ।।
(स्वर्गा० ५। ६३, उद्योग० ४०। ११-१२)
अर्थात् काम से, भय से, लोभ से अथवा प्राणों के लिए भी धर्म को छोड़ना उचित नहीं। धर्म नित्य है, सुख और दुःख क्षणिक हैं। जीव नित्य है और शरीर (धातु) अनित्य है। इस श्लोक की संज्ञा भारत सावित्री है (स्वर्गा० ५। ६४)। यही महाभारत का निचोड़ या उसका गायत्री मन्त्र है। विश्व की प्रेरक शक्ति का नाम सविता है। महाभारत ग्रन्थ का जो धर्मप्रधान उद्देश्य है, वही उसका सविता देवता है। उसकी प्रेरणात्मक भावना को इस अध्ययन में यथासम्भव सुरक्षित रखा गया है। यही इस नाम का हेतु है।
वेदों में सृष्टि के अखण्ड विश्वव्यापी नियमों को ऋत कहा गया था। ऋत के अनुसार जीवन का व्यवहार मानव के लिए श्रेष्ठ मार्ग था। ऋत के विपरीत जो कर्म और विचार थे, उन्हें वरुण का पाश या बन्धन समझा जाता था। वैदिक परिभाषाओं का आनेवाले युग में विकास हुआ। उस समय जो शब्द सबसे ऊपर तैर आया, वह धर्म था। धर्म शब्द भारतीय संस्कृति का सार्थक और समर्थ शब्द बन गया। महाभारतकार ने धर्म की एक नई व्याख्या रखी है, अर्थात् प्रजा और समाज को धारण करनेवाले, नियमों का नाम धर्म है। जिस तत्व में धारण करने की शक्ति है, उसे ही धर्म कहते हैं।
प्रजाः । धारणाद्धर्म इत्याहुधर्मो धारयते
यत्रस्याद्धारण संयुक्तं स धर्म इत्युदाहृतः ।।
जितना जीवन का विस्तार है, उतना ही व्यापक धर्म का क्षेत्र है। धर्म की इस व्याख्या के अनुसार धर्म जीवन का सक्रिय तत्त्व है, जिसके द्वारा प्रत्येक व्यक्ति की निजी स्थिति और लोक की स्थिति सम्भव बन रही है। धर्म, अर्थ, काम की संज्ञा त्रिवर्ग है। इस त्रिवर्ग में भी धर्म ही मुख्य है एवं राज्य का मूल भी धर्म ही है:
त्रिवर्गोऽयम् धर्ममूलं नरेन्द्र राज्यं चेदं धर्ममूलं वदन्ति।
(वन० ४।४) धर्म अथवा मोक्ष के विषय में भी जो कुछ मूल्यवान अंश महाभारत में है, उसपर प्रस्तुत अध्ययन में विशेष ध्यान दिया गया है।
ब्रह्मवाद और प्रज्ञावाद के सम्मिलन से जीवन के जिस कर्मपरायण एवं उत्थानशील मार्ग की उद्भावना प्राचीन भारत में की गई थी, उसका बहुत ही रोचक और सर्वोपयोगी वर्णन महाभारत में पाया जाता है। गृहस्थ जीवन का निराकरण करने वाले श्रमणवाद और कर्म का तिरस्कार करनेवाले नियतिवाद या भाग्यवाद का सक्षम उत्तर इस नए धर्मप्रधान दर्शन का उद्देश्य था। मुक्ति-मुक्ति अर्थात् त्रिवर्ग और मोक्ष इन दोनों के समन्वय का आग्रह उस धर्म की विशेषता है, जिसका प्रतिपादन महाभारत में हुआ है। महाभारत के तरंगित कथा-प्रवाह में जहां-जहां ये स्थल आये हैं और उनकी संख्या पर्याप्त है उनकी रोचनात्मक व्याख्या इस अध्ययन में इष्ट रही है।
साथ ही महाभारत में जो सांस्कृतिक सामग्री है, उसकी व्याख्या का पुट भी यहां रिलेगा, यद्यपि इस विषय में सब सामग्री को विस्तार के साथ लेना स्थानाभाव से सम्भव नहीं था।
पूना से महाभारत का जो संशोधित संस्करण प्रकाशित हुआ है, उस पाठ को आधार मानकर यह विवेचन किया गया है। जहां सम्भव था, वहां यह सूचित करने का भी प्रयत्न किया गया है कि महाभारत के पाठ-विकास की परम्परा में कौन-सा अंश मौलिक और कौन-सा मूल के उपबृंहण का परिणाम था। इसमें दो विशेषताओं की ओर ध्यान दिलाया जा सकता है। एक तो, जहां किसी प्रकरण या आख्यान के अन्त में फलश्रुति का उल्लेख हुआ है, वह अंश उपबृंहण का फल माना गया है। दूसरे, जहां किसी कथांश को एक बार संक्षेप में कहकर पुनः उसी को विस्तार से सुनने या कहने की प्रार्थना की गई है, वह अंश भी प्रायः उपबृंहण या पाठ-विस्तार का ही परिणाम था। प्रायः जनमेजय पूछते है, "भगवन्, मैं इसे अब विस्तार से सुनना चाहता हूं।" (विस्तरेणैतदिच्छामि कथ्यमानं त्वया द्विज, सभा० ४६। ३)। और उत्तर में वैशम्पायन कहते हैं, "हे भारत, अब इसी कथा को मैं विस्तार से सुनाता हूं।" (शृणु मे विस्तरेणेमां कां भरतसत्तम। भूय एव महाराज यदि ते श्रवणे मतिः ।। सभा० ४६ । ५)। विस्तार से फिर सुनाने की बात जहां है, वहां स्पष्ट ही वह पुनरुक्ति है, जैसाकि इसी के आगे सभा पर्व के ४६, ४७ और ४८ अध्यायों की भौगोलिक और सांस्कृतिक सामग्री को देखने से प्रकट होता है। इसी प्रकार सभा पर्व के २३ वें अध्याय में चारों दिशाओं की विजय संक्षेप में सुनने के बाद जनमेजय ने पूछा, "हे ब्रह्मन् ! अब दिशाओं की विजय विस्तार से कहिये, क्योंकि पूर्वजों का महान् चरित्र सुनते हुए मेरी तृप्ति नहीं होती।" (दिशामभिजयं ब्रह्मन्विस्तरेणानु कीर्तय । न हि तृप्यामि पूर्वेषां शृण्वानश्वरितं महत् ।। सभा० २३।११)। फलस्वरूप इसके बाद के सात अध्यायों में दिग्विजय का विस्तृत वर्णन है।
महाभारत की पाठ-परम्परा में इसके कई संस्करण सम्भावित ज्ञात होते हैं। उनमें से एक शुंगकाल में और दूसरा गुप्तकाल में सम्पन्न हुआ जान पड़ता है। इनमें भी पिछले संस्करण में पंचरात्र भागवतों ने बहुत-सी नई सामग्री अपने अभिनव दृष्टिकोण के अनुसार यथास्थान सन्निविष्ट कर दी थी। उसकी ओर भी प्रस्तुत अध्ययन में ध्यान दिलाया गया है। जीवन और धर्म के विषय में भागवतों का जो समन्वयात्मक शालीन दृष्टिकोण था, उससे महाभारत के कथा-प्रसंगों में नई शक्ति और सरसता भर गई है। भागवतों का विशेष आग्रह धर्म के उस स्वरूप पर था, जिससे समाज की प्रतिष्ठा गृहस्थाश्रम की महिमा प्रख्यात होती है। प्रायः भागवत दर्शन प्राचीन प्रज्ञावाद और ब्रह्मवाद का ही एक नूतन संस्करण था।
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