किसी जमाने में दादी कहा करती थी कि हमारे गाँव से दूर धाबा पर बोंड की फौज आई थी। भीमा उस फौज से बहुत लड़ा था। छुटपन में उसकी गोद में सुने गये अनगिनत किस्सों में बोंड और भीमा अवश्य होता। मैं उससे कभी पूछता-"दादी तुम्हें इतने किस्से किसने सुनाए?" तब वह कहती थी, मेरे “बा” (पिताजी) ने दादी के बा एक अपढ कृषक थे, लेकिन हिन्दुस्तानियों और अंग्रेज़ों में फर्क करना वे जानते थे। दादी को उसके घर ने कहानी- किस्सों के अतिरिक्त, संस्कारों में निर्धनता की पीड़ा के कुछ भी नहीं सौंपा था। कई किस्सों को सुनाते-सुनाते वह खुद रोने लगती थी। एक बार उसने कहा था- "बोंड लोगों ने उसे काला- पानी की सजा सुनाई थी।” मैंने पूछा था- "काला-पानी क्या होता है?" और तब वह बोली थी- "आदमी को सात समन्दर दूर किसी बड़ी चट्टान पर छोड़ आते हैं।"
पश्चिमी निमाड़ के भीलों की सामाजिक व्यवस्था शोध ग्रंथ पूर्ण करने के लिये सतपुड़ा के घने जंगलों में बसे हुए उन लोगों से मिला, जिनके पास दुःख की अनगिनत पहाड़ियाँ हैं, जिन्हें चढ़ते-चढ़ते पीढियाँ मर गई। बहुत करीब से देखा उन लोगों को। उनका दर्द जो केवल रोटियों से जुड़ा था। पत्थर के चूल्हे पर रखी मिट्टी की हांडी, उसमें खदखदा रही राब कब पकेगी? दो-तीन अध-नंगे बच्चे माँ के चेहरे को पढ़ने की कोशिश में लगे हैं। राब के पक जाने का संकेत, क्योंकि उनकी क्षुधा तृप्ति का विकल्प ही उस हांडी में है। पेट से जुड़ी अंतड़ियाँ और वे पसलियाँ, दुःख के इस आतंक के आगे हाथों में एल्युमीनियम के कटोरे थामे वे बच्चे अनेक बार दिखाई दिए।
अपनी क़ौम का ऐसा ही दर्द पीकर भीमा सचमुच भीमा बन गया था, जिसके अन्दर दया और करुणा के साथ क्रांति का सोता बहता रहा था। उसकी अभीत्साओं के साथ अंगारा नृत्य करती थीं उसकी संकल्पनाएँ का स्रोत भी था। इसी ने उसे क्रांतिकारी बनाया। वास्तव में वह एक इन्सान था, जिसके अन्दर अपनी ज़मीन में घुस आए अंग्रेज़ों के प्रति घृणा थी। इसीलिये वह अंतिम समय तक अपनी छोटी-सी पहाड़ी सेना लेकर उन लोगों से जूझता रहा जो इस जमीन के नहीं थे।
इतिहास विद् डॉ. शिव नारायण यादव ने भीमा पर "निमाड़ का योद्धा भीमा नायक" नाम से बाईस पृष्ठीय एक पुस्तिका का प्रकाशन किया। तत्कालीन समय काल और परिस्थितियों का यह जीवंत दस्तावेज़ भीमा के अनगिनत संघर्ष, जो अंग्रेज़ों के विरुद्ध थे, पढ़कर लगा, इस महान सेनानी को आज तक इतिहास के वृहद् पन्नों पर क्यों नहीं रखा गया? मगर उल्लासित हुआ जब ज्ञात हुआ कि मध्यप्रदेश स्वराज संस्थान 1857 के क्रांतिकारियों पर शोध करने के लिए फैलोशिप दे रहा है। मैंने आवेदन किया और संस्थान ने भीलांचल निमाड़ का स्वतंत्रता संग्राम सेनानी भीमा नायक पर शोध के लिए अनुमति दे दी।
भीमा नायक के संबंध में मैंने उपलब्ध दस्तावेज़ों का गहन अध्ययन किया है, जिनमें बड़वानी गजेटियर, होल्कर गजेटियर, बाम्बे गजेटियर और खानदेश में भीलों का संघर्ष, आदि समाहित हैं। इस कालखण्ड में अध्ययन के साथ ही भीमा की कार्यस्थली से संबंधित अनेक स्थानों पर भ्रमण के द्वारा वहाँ के भीलों और अन्य जातियों के लोगों से सम्पर्क कर यह ज्ञात करने की कोशिश की है, कि वस्तुतः भीमा का जीवन और उस समय की परिस्थितियाँ किस प्रकार की थीं, जिसने एक संपूर्ण इतिहास की रचना की। जनश्रुतियों, लोकगीतों आदि के द्वारा यह ज्ञात करने की कोशिश की है, कि वास्तव में भीमा नायक का कार्यकाल किन संघर्षों की परिणति रहा है। अपने सर्वेक्षण में धाबा बावड़ी, बालकुआँ, जूनाझिरा, जूना पानी, अंबापानी, सेंधवा, राजपुर, जुलवानिया, महेश्वर, पलासनेर, अंजड़ दतवाड़ा, पाँचपूला उत्तर और दक्षिण, सिलावद, पाटी, आदि स्थान प्रमुख हैं जिसने मुझे बहुत करीब से भीमा नायक को समझने में मदद दी है।
जूनाझिरा में तो आज भी भीमा के वंशज एवं उसकी जाति के लोग हैं जो दबी जुबान से केवल इतना बता पाते हैं, कि भीमा हमारे कुल वंश का था। उनकी भावनाएँ अपने इस अग्रज पुरुष की प्रति इतनी भावनात्मक देखी गई है कि वे सहज ही कोई लोकगीत की पंक्तियाँ दोहराने लगते हैं। यह भी देखा गया है कि अनेक जनश्रुतियाँ धीरे-धीरे विलुप्त होती जा रही हैं किन्तु अब भी लोकगीतों में भीमा नायक का उल्लेख मिलता है।
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