पुस्तक परिचय
कुछ ऐसे अछूते नगर भी संसार में स्थित हैं जहाँ पर काल की विकरालता का कोई प्रभाव नहीं है । ऐसा ही एक नगर है काशी जो भोग ओर मोक्ष दोनों का प्रतीक है । भोगमोक्ष समभाव में काशी का सामाजिक व सांकृतिक स्वरूप पूर्ण रूप से झलकता है । इस अनुपम कृति में एक ऐसे नगर के विविध पहलुओं पर एक नइ दृष्टि डाली गई है जिसके अध्ययन से भारत की प्राचीन संस्कृति और गरिमा का वास्तविक मूलांकन हो पायेगा । काशी तीन संकृतियों एच दो थमी की नगरी है । इस नगरी को अपने में बिभिन्न आकारों और विचारधाराओं को समावेश करने की महान् शक्ति ग्राफ है । इसे लघु ब्रह्मांड की संज्ञा भी दी जा सस्ती है । भगवान शिव भी काशी में ही अन्नपूर्णा से भिक्षा ग्रहण करते हें ।
विद्वान लेखकों के अनुसार काशी एक ऐसी प्रयोगशाला है जहां पर मानव वैज्ञानिक, समाजशास्त्री, अर्थशास्त्री, पुरातलवेत्ता, भारतीय संत्कृति के विशेषज्ञ एवं संस्का वाड्गमय के मर्मज्ञ कंधे से क्या मिलाकर नई खोज कर भारत की पुरातन संस्कृति पर प्रकाश डाल सकते है ।
यह पुस्तक ५७ लेखों के संग्रह से परिपूर्ण, समाज के हर वर्ग के लिए एक अनुपम कृति है । उत्तम शैली में रचित यह पुस्तक काशी के वास्तविक स्वरूप पर प्रकाश डालती है ।
लेखक परिचय
श्री बैद्यनाथ सरस्वती अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्रात्त मानव विज्ञान के प्रमुख विशेषज्ञ और लेखक हैं । नई दिली स्थित इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र में आप यूनेस्को प्राध्यापक है । आप नार्थईस्टर्न हिल यूनवर्सिटी में पूर्ववर्त्ती प्राधापक रहे है तथा भारतीय उच्चस्तरीय शिक्षा कलामन्दिर इन्डियन इस्टीट्यूट ऑफ एडवॉस्ड स्टड़ीज़) के अधिसदस्य और रांची से विश्वभारती विश्वविद्यालयों के अतिथि प्राध्यापक भी रहे हैं । प्रसे सरस्वती द्वारा रचित अनेक ग्रंथ और एक ही विषय पर लिखे गये विशेष लेख काफी पसन्द किये गये हैं । उनमें मुख हैं पोटरी मेकिंग कल्चर्स एंड इन्डियन सिविलाइज़ेशन ब्राह्मनिक रिच्चुल ट्रेडिशन्स काशी मिथ एंड रियलिटी स्पेक्ट्रम ऑफ दी सेक्रेड । श्री सरस्वती द्वारा सम्पादित कई और अमूल्य ग्रंथ है ट्राइबल थाट एंड क्लर प्रकृतैं प्राइमल एसीमेन्टस दी ओरल ट्रेडिशन्स प्रकृति मैन इन नेचर कम्पूटर राइजिंग कल्चर्स एवं क्रासकल्चुरल लाइफ स्टाइल स्टडीज़ ।
आमुख
इस पुस्तक की एक रामकहानी है ।
प्रसिद्ध गांधीवादी मानव वैज्ञानिक आचार्य निर्मल कार बोस के निधन के सोलहवें दिन १ नवम्बर १९७२ को काशी में एक नवीन मानवविज्ञान अनुसंधान केलिए भानवविज्ञान मंदिर आचार्य निर्मल कुमार बोस स्मारक प्रतिष्ठान की स्थापना की गयी । इस प्रतिष्ठान के तत्वावधान में उनके जन्म दिन के अवसर पर २२ जनवरी १९७३ से काशी के सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवन की झांकी पर एक चतुर्दिवसीय परिसंवाद का आयोजन किया गया । इसमें ६० से अधिक सांस्कृतिक विशेषज्ञों ने असाधारण उत्साह से भाग लिया । विषयवस्तु एवं अनुसंधान पद्धति की दृष्टि से यह अपने आप में एक अभिनव प्रयास था । वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय के सभाकक्ष में माननीय काशीनरेश डॉ० विभूतिनारायण सिंह ने इसका उद्घाटन किया । काशी के नागरिकों ने इसकी प्रशंसा की थी । फिर भी इस परिसंवाद का प्रतिवेदन २७ वर्षों तक अप्रकारशित रहा । ऐसा क्यों? इस परिसंवाद में भाग लेने वाले कई विशेषज्ञों ने मौखिक रूप से अपने विचार प्रस्तुत किये थे । इनमें से कुछ निरक्षर थे, कुछ साक्षर ओर कुछ पंडित प्रवर । इन सबके मौखिक प्रस्तुतिकरण को लिपिबद्ध करने एवं अन्य विद्वानों के लेख एकत्र करने में लगभग दो वर्ष का समय लगा । तत्पश्चात् सम्पादन का दुष्कर कार्य प्रारम्भ हुआ । मेरे अन्तस्तम से प्रिय मित्र श्री सत्यप्रकाश मित्तल ने लेखों को एकत्र करने एवं सम्पादन में यथायोग्य श्रमदान दिया । बोस प्रतिष्ठान स्वयं इस कार्य को प्रकाशित करने की स्थिति में नहीं था । अत प्रकाशकों के समक्ष प्रस्ताव रखा गया, कई समृद्ध व्यक्तियों से प्रकाशन के लिये अनुदान की याचना भी की गयी । परन्तु यह प्रयास सर्वथा असफल रहा । सुहृद मित्र श्री कृष्णनाथजी ने सुझाव दिया कि इन संगृहीत लेखों का किसी हिन्दी पत्रिका में धारावाहिक प्रकाशन किया जाए । इसके लिये उन्होंने प्रयास भी किये । उन दिनों हैदराबाद की एक प्रतिष्ठित पत्रिका बन्द पड़ी थी । सम्पादक ने आश्वासन दिया था कि काशी परिसंवाद की सामग्री से उस पत्रिका का पुर्नप्रकाशन प्रारम्भ होगा । सम्पादक के पास पाण्डुलिपि भेज दी गयी, आशा की लहर उठी । एक दशक तक ऊहापोह की स्थिति बनी रही, अन्त निराशा से हुई । पाण्डुलिपि वापस आ गयी, और भाई कृष्णनाथजी के पास धरोहर के रूप में कई वर्षों तक पड़ी रही । इसका एक सुखद परिणाम यह हुआ कि उन्होंने पाण्डुलिपि का फिर से सम्पादन कर दिया । अब एक निलम्बिका का क्षण । पता चला कि पाण्डुलिपि उनके पुराने और नये घर के बीच कहीं खो गयी है । प्रिय मित्र श्री रामलखन मौर्य ने उसे ढूँढने का भगीरथ प्रयास किया । अन्ततोगत्वा पाण्डुलिपि अस्तव्यस्त अवस्था में मिली । उन्होंने इसे प्रकाशन योग्य बनाया । इस बीच मैं दिल्ली आ गया था । एक और प्रयास करने का साहस जुटाया । एक दिन अपने युवा मित्र एवं यशस्वी प्रकाशक श्री सुशील कुमार मित्तल से इसकी चर्चा की । वे भारतीय विद्या की पुस्तकें अंग्रेजी में प्रकाशित करते हैं । मेरे प्रति व्यक्तिगत स्नेह एवं धर्मनगरी काशी के प्रति अपार श्रद्धा ने उन्हें इसे प्रकाशित करने की प्रेरणा दी ।
इस प्रसंग में एक और घटना की याद आती है ।
५ जनवरी १९६३ को प्रात चार बजे कड़ाके की सर्दी में ठिठुरते भक्तगण जब सुवर्णमंडित श्री काशी विश्वनाथ के मंदिर पहुँचे तो उस समय मंदिर का द्वार बन्द था और पुलिस की भागदौड़ चल रही थी । दर्शनार्थियों के मुख से हठात् शब्द निकला अमंगल! (पुलिस और महापात्र अमंगल सूचक हैं) मन्दिर के महन्त श्री कैलाशपति पुलिस अधिकारी से कह रहे थे कुत्ता का गर्भगृह में प्रवेश करना अनुचित होगा, पुलिस अधिकारी ने दृढ़ता से कहा यदि आप इस पर आपत्ति करेंगे तो हम कुछ भी जांचपड़ताल न कर पायेंगे । किंकर्तव्यविमूढ़ महन्तजी ने कहा आप जैसा उचित और आवश्यक समझें, करें । मन्दिर का दरवाजा खुला, जासूसी कुत्ता तेजी से मंदिर के अन्दर प्रवेश कर गया । भक्तों का क्षीण स्वर महादेव! उस कुत्ते की छलांग के साथ लोप हो गया । दुःखी दर्शनार्थी वहीं देवालय की देहली पर जल और फूल डालकर वापस लौट गये । संवेदनशील महिलायें रो पड़ी अनर्थ हो गया ! कुछ ही क्षणों में सम्पूर्ण काशी नगर जाग उठा । पता चला कि रात के अन्धकार में चोर भगवान विश्वनाथ के अरघे में लगा हुआ सोना काटकर ले गया, जबकि मंदिर के अन्दर दो पुजारी सोते रहे और बाहर पुलिस गश्त लगाती रही । समाचारपत्रों ने मोटे शीर्षक में इस समाचार को छापा श्री काशी विश्वनाथ का शृंगार खंडित , मंदिर में भीषण चोरी , २५ लाख की चोरी, चोरी की चौथी घटना । इस घटना के विरुद्ध अभूतपूर्व जनआन्दोलन छिड़ा । लोग आस्था और अनास्था के बीच डोलते रहे । मंदिर की परम्परागत व्यवस्था टूटी । धर्मनिरपेक्ष राज्य ने अपने को सर्वोच्च पुजारी घोषित कर मंदिर का अधिग्रहण कर लिया । इस घटना के दूसरे दिन से बोस स्मारक प्रतिष्ठान ने लोगों की आस्था और नयी व्यवस्था सम्बन्धी प्रतिक्रिया जानने के लिये एक त्वरित सर्वेक्षण प्रारम्भ किया । एक पखवाड़े तक अध्ययन का कार्य चलता रहा । निष्कर्ष चुनौती देने वाला था । श्री काशी विश्वनाथ आस्था और व्यवस्था क्त प्रश्न शीर्षक से बोस प्रतिष्ठान ने हिन्दी में एक पुस्तिका प्रकाशित की । आज सोलह वर्ष बीत गये, परन्तु उसकी सोलह कापी भी नहीं बेच पाये ।
यह कैसी विडम्बना है कि तीन लोकों से न्यारी काशी के प्रति विदेशियों का आकर्षण बढ़ता जा रहा हे ओर भारतवासियों की आस्था क्षीण होती जा रही है क्या कारण हे कि इसके भोग और मोक्ष का स्वरूप आज असंतुलित हो रहा हैं? अन्य नगरी की तरह यह भोगप्रधान एवं विशालकाय होती जा रही हैं, मोक्ष की कामना करने वाले तीर्थयात्रियों की संख्या घटती जा रही हे ओर विलासी पर्यटकोकी सख्या बढ़ती जा रही है हिन्दुओ में बढ़ती अनास्था का कारण क्या हे? हिन्दी के पाठकोमें सास्कृतिक अध्ययनों के प्रति उदासीनता क्यों हे? आधुनिक विद्या पढने वाले हिन्दीभाषी को विद्वानों में ही लिखनेपढने की ऐसी बाध्यता क्या है? इन प्रश्नो के उत्तर कई प्रकार से दिये जा सकते हैं । उत्तर अपने आप में महत्वपूर्ण नहीं हैं । परन्तु भारतीय संस्कृति को समझने के लिये तथा इसे समृद्ध बनाने के एसे प्रश्न विचारनीय हे ।
मैंनेकाशी के विभिन्न पक्षो पर बारह वर्ष (१९६६१६७८) तक निरन्तर काम किया हे अध्ययन के मुख्य विषय थे काशी का साधु समाज , चगशी क् पंडित , काशी के तीर्थ , काशीवासी विधवायें, ओर काशी के सफाई मजदूर आज भी १६७२ का काशी परिवाद मेरे लिये एक दिव्य पथप्रदर्शक हे उन दिनों मेर साथ कई युवा अनुसधान सहायक थे जिन्होंने परिसवाद के आयोजन मे मेरी सहायता की थी डॉ० अरविन्द सिन्हा, डॉ० भोलानाथ सहाय, डॉ० मगनानन्द झा, डॉ० ओंकार प्रसाद, ओर डॉ० सचीन्द्र नारायण ने कुछ सास्कृतिक विशेषज्ञों के विचारों को लिपिबद्ध कर उसे लेख का स्वरूप दिया है में उन सबों का अत्यन्त आभारी हूँ परिसवाद के आयोजन मे कई मित्रों ने अनेक प्रकार से सहायता की थी श्री सत्यप्रकाश मित्तल, श्री श्यामा प्रसाद प्रदीप, एवं प्रोफेसर जगन्नाथ उपाध्याय का मै विशेष रूप से अनुगृहीत हूँ। खेद है कि इस परिसवाद में भाग लेने वाले कई विद्वान मित्र इस लोक में नहीं रहे मैं उन सबों के प्रति अश्रुपूर्ण श्रद्धाजलि अर्पित करता हूँ । उन सभी मित्रो से जो इस पुस्तक में अपने भूले बिसरे लेख देखकर आश्चर्य करेगें, मैं इस असाधारण विलम्ब के लिये क्षमा की याचना करता हूँ। इस पुस्तक के प्रकाशक श्री सुशील द्वार मित्तल के प्रति आभार प्रदर्शन करने के लिये मेरे पास पर्याप्त शब्द नहीं हैं ।
इस बीच काशी की उत्तरवाहिनी गंगा में बहुत सारे पानी बह गये परन्तु मुझे विश्वास हे कि विज्ञ पास्कगण इस प्रायोगिक कार्य के महत्त्व को समझेंगे तथा भोग और मोक्ष की नगरी काशी की स्वत पारिभाषित सस्कृति के स्वरूप का रसास्वादन करेंगे।
इस पुस्तक को पांच खंडों में बाटा गया है (१) काशी खोज की दृष्टि, (२) काशी विभिन्न संस्कृतियो का नगर, (३) काशी परम्परागत ऐश्वर्य का नगर, (४) काशी आर्थिक सामाजिक विषमता का नगर, (५) काशी सृजनशीलता पथ? कुण्ठा का नगर । विभिन्न विद्वानोंके ५७ लेखों में व्यापक और गहरी खोज से अनेक पहलू उजागर हुये हैं । ऐसा प्राय पहले कभी नहीं झा पुस्तक के अन्त में इसकी निष्पत्ति का एक प्रयास किया गया हे, जो प्रधानत मेरे व्यक्तिगत अनुभव की भाषा है ।
विषय क्रम
बैद्यनाथ सरस्वती
v
खण्ड 1 काशी खोज की दृष्टि
1
काशी स्वत पारिभाषित संस्कृति
3
2
काशी भोग और मोक्ष के समन्वय की खोज
9
काशी परम्परा और परिवर्तन
12
खण्ड 2 काशी विभिन्न संस्कृतियों का नगर
4
काशी के जनजीवन में विश्वनाथ
17
5
काशी के तीर्थ
23
6
काशी घाटों पर जनजीवन
27
7
काशी का साधु समाज और मठ
31
8
काशी की जैन संस्कृति और समाज
39
काशी में सिख धर्म और समाज
43
10
काशी के ईसाई मिशन
45
11
काशी का मुस्लिम समाज
50
काशी में हिन्दूमुस्लिम सम्बन्ध एक अनुभव कथा
54
13
काशी में दक्षिण भारतीय संस्कृति
58
14
काशी में बंग समाज और संस्कृति
61
15
काशी के महाराष्ट्रियों की संस्कृति
66
16
काशी का गुजराती समाज
74
काशी में मैथिल संस्कृति और समाज
85
18
काशी के यादव
89
19
काशी में डोम समाज
94
20
काशी के नाविक
99
21
काशी के पक्के महाल का जनजीवन
103
22
काशी मे व्यायाम तथा पहलवानी की परम्परा
108
काशी की लोक संस्कृति
112
24
काशी की पातिस्थतिकीय संरचना
123
25
बनारसी
128
खण्ड 3 काशी परम्परागत ऐश्वर्य का नगर
26
काशी नरेश
139
काशी का वर्तमान राजवंश
143
28
काशी के रईस
148
29
काशी का व्यापारी वर्ग
163
खण्ड 4 काशी दरिद्रता और आर्थिक सामाजिक विषमता का नगर
30
काशी के नये रईस
169
काशी नगरीय स्वरूप तथा गंदी बस्तियाँ
173
32
काशी के ठग ओर गुंडे
180
33
काशी मे वेश्यावृति का उन्यूलन एक प्रशासकीय प्रयास
187
34
काशी की विधवाएँ और समाजसेवी सस्थाएँ
192
35
काशी मे विधवाओं की समस्या
197
36
काशी मे भिक्षावृत्ति
203
खण्ड 5 काशी सृजनशीलता तथा कुण्ठा का नगर
37
संस्कृत साहित्य में काशी का योगदान
211
38
काशी संस्कृत विद्या मे सन्यासियो का योगदान
227
आयुर्वेद विद्या को काशी का योगदान
233
40
काशी मे पौरोहित्य और कर्मकाण्ड
239
41
काशी मे उर्दू और उर्दू संस्कृति
244
42
पत्रकारिता में काशी का योगदान
253
भारतीय संगीत को काशी का परिदान
256
44
काशी की नाट्य परम्परा
260
काशी की रंगमंचीय परम्परा
264
46
काशी की लोकनाट्य परम्परा रामलीला
271
47
काशी में परम्परागत लोकगीत
276
48
काशी के भांड
281
49
काशी के मुस्लिम बुनकर
287
काशी के नक्शेबद तथा लिखाई करने वाले
292
51
काशी की भिति चित्रकला
296
52
काशी का बौद्धिक वर्ग सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक पृष्ठभ्रूमि
305
53
काशी का पण्डित समाज
311
आधुनिक काशी में योगसाधना और सिद्ध साधक
318
55
काशी की धार्मिक एव सांस्कृतिक पृष्ठभूमि
328
56
काशी परम्परागत सामाजिक व्यवस्था ओर राजनीतिक व्यवहार
339
57
काशी के युवा वर्ग की समस्याएं
351
उपसंहार बैद्यानाथ सरस्वती
359
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