इतिहास मनुष्य के क्रमबद्ध विकास की कहानी है जिसकी अनंत श्रृंखला में वर्तमान और भविष्य जुड़े हुए हैं। भारतीय सभ्यता व समाज अति प्राचीन है। इतिहास साक्षी है कि सांस्कृतिक एवं भौतिक सम्पन्नता से समृद्ध हमारा देश भारत विश्व को सदैव आकर्षित करता रहा है। विदेशी आक्रमणकारियों में से जहाँ कुछ देश को लूट-खसोट सम्पत्ति बटोर कर लौट गये, वहीं कुछ यहीं रच बस गये व शासन भी किया। उत्थान-पतन के अनेक दौरों के पश्चात जब हम भारत के स्वतंत्रता संग्राम की बात करते है तब हमारा तात्पर्य भारतीय इतिहास के उस दौर से होता है जब अंग्रेजों के शासन के दौरान हमारे देशवासी इस विदेशी आधिपत्य को समाप्त कर स्वाधीनता हेतु प्रयत्नशील थे।
मूलतः व्यापार के लिए आई ईस्ट इण्डिया कम्पनी से प्रभावित होकर राजाओं ने उन्हें फलने-फूलने व यहाँ व्याप्त कमजोरियों का लाभ उठाकर पनपने का भरपूर मौका दिया। परिणामस्वरूप शनैः शनैः समूचा देश ही उनके अधीन हो गया।
वस्तुतः प्लासी के बाद साम-दाम-दण्ड-भेद की नीति अपना कर ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने साम्राज्यवादी रुख अपनाया। उसने राज्यों की लड़ाइयों में कमजोर राज्यों की मदद कर अपने अनुकूल संधियाँ कीं जिसमें, राज्यों को अंग्रेजों की फौज रखने के लिए मजबूर किया गया तथा उनके खर्चे राज्यों से ही वसूले जाने लगे। अंग्रेजों के अत्याचार, आर्थिक शोषण की नीति, सामाजिक तथा धार्मिक परम्पराओं में हस्तक्षेप के कारण जनता में आक्रोश था। किसान त्रस्त थे, शिल्पकार भुखमरी की कगार पर थे। यहाँ के उद्योग धन्धे, व्यापार बर्बाद हो चुके थे। सन् 1757 से पूर्व ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी की दिलचस्पी जहाँ मुख्यतः पैसा बटोरने में थी, प्लासी के युद्ध के बाद बंगाल व दक्षिण भारत कम्पनी के राजनीतिक अधिकार में आ गये। इस राजनीतिक सत्ता का प्रत्येक स्तर पर भरपूर दुरूपयोग स्वार्थ पूर्ति और भारतीयों के शोषण के लिये किया गया।
वर्ष 1793 में लॉर्ड कार्नवालिस द्वारा 'स्थायी-बंदोबस्त' के जरिए जमींदारों का एक वर्ग तैयार किया गया जो किसानों पर जुल्म करता था। इसी के साथ जहाँ रैय्यतवारी व्यवस्था शुरू की गई वहाँ लगान की दर बहुत ऊँची रखी गई। इन सब कारणों के साथ लॉर्ड डलहौजी की हड़पनीति ने आग में घी का काम किया। सिपाहियों के असंतोष का एक कारण अवध का विलय भी था।
1857 का संग्राम केवल सिपाहियों अथवा विलिपित राजाओं का न था बल्कि सभी भारतीयजन का था। 1857 के स्वतंत्रता सेनानियों के जीवटपूर्ण संघर्ष की परिणिती ही 1947 की आजादी थी। 1857 में ही तत्कालीन विश्व मीडिया सहित साम्यवादी विचारधारा के प्रवर्तक कार्ल मार्क्स द्वारा इस क्रांति को 'राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम' माने जाने के बावजूद अंग्रेज इतिहासकारों द्वारा वास्तविक परिस्थितियों को छुपाने के उद्देश्य से इसे 'सिपाही विद्रोह' प्रचारित कर महत्वहीन सिद्ध कर दिये जाने का प्रयत्न किया जाता रहा।
यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि सन् 1910 में जहाँ विनायक दामोदर सावरकर द्वारा सन् 1857 के अतीत के महान संघर्ष को इतिहासबद्ध करते हुए भारतीय स्वाधीनता संग्राम घोषित करने विषयक पुस्तक '1857 का स्वातंत्र्य समर' प्रकाशित हुई, वहीं इसके एक वर्ष पूर्व 1909 में गांधीजी की प्रश्नोत्तर शैली में भविष्य के स्वतंत्रता आंदोलनों व भारत के स्वराज की रूपरेखा का आंकलन करती 'हिन्द स्वराज्य' भी प्रस्तुत हुई। ब्रिटिश सरकार ने दोनों पुस्तकों को प्रतिबन्धित कर दिया।
गांधीजी ने 'हिन्द स्वराज' में लिखा है "कुछ देशी रियासतों में प्रजा कुचली जाती है। वहां के शासक नीचता से लोगों को कुचलते हैं। उनका जुल्म अंग्रेजों के जुल्म से भी ज्यादा है।.. मेरा स्वदेशाभिमान मुझे यह नहीं सिखाता कि देशी राजाओं के मातहत जिस तरह प्रजा कुचली जाती है, उसी तरह उसे कुचलने दि
या जाये। मुझमें बल होगा तो मैं देशी राजाओं के जुल्म के खिलाफ और अंग्रेजी जुल्म के खिलाफ जूझंगा।" तत्कालीन समय में भोपाल एक देशी रियासत था, जिसकी जनता 'दासानुदास' थी अर्थात इसे दोहरी गुलामी भोगनी पड़ी- अंग्रेजों के साथ-साथ उनके कृतज्ञ सेवक नवाबों की भी। इसलिए यहाँ स्वतंत्रता संधर्ष और भी कठिन था। जन-आंदोलन को दबाने के सरकारी प्रयत्न लगातार होते रहे। इन्हें कुचलने के लिये जहाँ एक ओर सरकारी कानून, पुलिस, दमन और अत्याचारों का सहारा लिया जाता था, वहीं दूसरी ओर ब्रिटिश सरकार के पदचिन्हों पर चलते हुए 'विभाजन करो और शासन करो' की नीति पर भी अमल किया जाता था।
1857-58 की क्रांति में भोपाल की जनता ने जिस वतन-परस्ती का सबूत दिया, उसे देखते हुए सिकन्दर जहाँ ने अंग्रेजों के आदेश पर भोपाल की सभी सैनिक व असैनिक सेवाओं के दरवाजे उनके लिए बन्द कर दिये और भोपाल से बाहर से बुलाये गये सरकार परस्त और अंग्रेज परस्त गैर भोपालियों को सेवाओं में भर्ती किया गया। भोपाल में क्रांति की मशाल को ठण्डा कर दिया गया लेकिन उसकी रूह अंदर ही अंदर सुलगती रही। भोपाल की जनता द्वारा निरन्तर भोपाल सरकार के विरोध का यह परिणाम निकला कि सिकन्दर जहाँ के शासन काल से लेकर हमीदुल्ला खाँ के शासन काल, लगभग 90 वर्षों (1857-1949) तक भोपाल की जनता को न केवल प्रशासनिक सेवाओं से ही ही दूर रखा गया बल्कि हर प्रकार की प्रगति के दरवाजे उनके लिये बन्द कर दिये गये थे।
भोपाल जिले का 1857 के स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास महज वक्त की गर्द तले ही नहीं दबा रह गया, बल्कि तत्कालीन शासकों द्वारा इसका क्रूरतापूर्वक इस प्रकार दमन किया कि दशहतजदा कई पीढ़ियां इसका जिक्र तक नहीं कर सकी।
1857-58 के दमन के बाद देश के सन् 1947 में स्वतंत्र हो जाने तक भी राष्ट्रीय पटल पर निरंतर घटित हो रही छोटी-बड़ी निरन्तर गतिविधियों के बावजूद भोपाल रियासत की जनता अंग्रेज व उनकी चाटुकार नवाब सल्तनत की दोहरी गुलामी के बीच अन्दर ही अन्दर घुटती रही पर एकजुट हो ऐसा कोई सार्थक जन आन्दोलन खड़ा न कर सकी जो उसकी ढाई सदी की बैचेनी को आवाज़ दे और सामन्तशाही को खुली चुनौती दे सके। कुछेक राष्ट्र प्रेमियों के निरंतर छुटपुट प्रयासों के बावजूद 1942 का भारत छोड़ो आन्दोलन भी इस रियासत को प्रतिध्वनित नहीं कर सका।
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