परात्पर ब्रह्म के साक्षात्कार के लिए हमारे शास्त्रों में तीन मार्ग प्रमुखतया बताए गए हैं। ये तीन मार्ग हैं कर्म, ज्ञान और भक्ति । इन तीन मार्गों से परमपद तक पहुँचा जा सकता है। गीता में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि कर्म, ज्ञान और भक्ति ये तीन मार्ग ही प्रभु को प्राप्त करने के लिए साधन हैं-
लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरो प्रोक्ता मयाऽनध ।
ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम् ।।
- गीता २/३
ज्ञान और कर्म के पश्चात् एक और ऐसी निष्ठा होती है जिसमें लोग सब कुछ छोड़कर ईश्वर को सर्वात्मना समर्पण हो जाते हैं और उन्हें भगवान दर्शन देते हैं, वे ही भगवान के भक्त होते हैं-
भक्त्या त्वनया शक्यं अहमेवं विधोऽर्जुन ।
ज्ञातुं दृष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टुं च परंतप ।।
गीता ११-५४
भक्ति से ही भगवान् सरलता से प्राप्त होते हैं और इस भक्ति में भी अपने आपको प्रभु-प्रेम में जो एकाकार कर देते हैं चे ही भक्तों की परम कोटि में आ जाते हैं। भगवान् शंकराचार्य के अद्वैतवाद को ज्ञानाश्रित कहा जाता है और उस से ही मुक्ति का मार्ग सुलभ बनता है पर मध्यकाल से कुछ पूर्व दक्षिण में भक्ति की लहर इस कदर तरंगायित होने लगी कि प्रभु के प्रति सर्वात्मना समर्पण ही भक्ति का विशेष पथ माना जाने लगा है। भक्ति तो वास्तव में प्रभु में अनुरक्ति ही है। प्रभु प्रेम में आकण्ठ निमग्न हो जाना ही वास्तव में भक्ति का सच्चा स्वरूप है। गोपी भगवद्-भक्ति के इसी रूप की प्रतीक हैं। गोपियों का प्रेम अवर्णनीय है, शब्दों की पकड़ से, तर्क से आधार से वह कोसों दूर है। भक्ति ने स्वयं नारद द्वारा पूछे जाने पर कहा है "मैं भक्ति हूँ, ज्ञान और वैराग्य नाम के मेरे दो पुत्र हैं पर समय के बदलाव के साथ ये दोनों जर्जर हो गए हैं। मैं द्रविड़ देश में उत्पन्न हुई हूँ, कर्णाटक में बढ़ी हूँ, महाराष्ट्र में सम्मानित हुई हूँ पर गुजरात में आकर मुझे बुढ़ापे ने घेर लिया है। मैं अब वृन्दावन में आ गई हूँ और मुझे नव यौवन यहाँ प्राप्त हुआ है पर मुझे दुःख इस बात का है कि मेरे ये दोनों पुत्र क्यों जरठ बने हैं ? माता तरुण हो और पुत्र बूढ़े हों तो चिन्ता का विषय बन जाता है। नारद जी मुझे बताइए कि ऐसा क्यों हुआ ?" नारद जी ने कहा - सोच में मत पड़ो, कृष्ण के प्रति अनन्य स्नेह ही तुम्हारा रक्षण कर सकेगा । कलियुग में केवल भक्ति ही काम आएगी - 'कलौ तु केवला भक्तिः ब्रह्म सायुज्यकारिणी' । ईश्वर की प्राप्ति भक्ति से ही होगी । कलियुग बड़ा खराब है। इसमें तप, ज्ञान, कर्म आदि किसी साधन से प्रभु वश में नहीं किए जा सकते हैं। केवल भक्ति ही प्रभु के पास ले जा सकेगी- कलौ भक्तिः, कलौ भक्तिः, भक्त्या कृष्णः पुरः स्थितः । इस भक्ति के प्रतीक हैं गोपीजन हरिर्हि साध्यते भक्त्या प्रमाणं तत्र गोपिकाः । श्री भागवत में गोपियों के अनन्य प्रेम की कथा है और इस कथा को लेकर कृष्ण भक्त कवियों ने 'भ्रमर गीत' के नाम से प्रेम-भक्ति का बहुत ही प्रभावकारी निरूपण किया है। वहाँ ज्ञान के सामने भक्ति की विजय हुई है। भक्ति वह भी गोपीभाव की भक्ति सबसे उत्तम है।
विद्वान् और सहृदय लेखक श्री अशोकनारायण जी ने गोपियों की इस भक्ति का बड़ी गहराई से अनुभव किया और श्रीमद् भागवत के दशम स्कन्ध के ४७ वें अध्याय के ६७ श्लोकों में आई गोपी-उद्धव की बातचीत को बड़े गहरे ढंग से एक-एक श्लोक का अभिधार्थ देकर बृहद् भाष्य के द्वारा उसका अभिप्रेतार्थ को सरल, तरल और भावमयी भाषा में व्याख्यात किया है। प्रेम की अद्भुतता व्यक्त की है।
उद्धव ज्ञान के द्वारा परमात्मा रूप कृष्ण की बात समझाने गोपजनों के पास आए थे परन्तु उनकी प्रेम विह्वलता को प्रत्यक्ष देखकर उनकी कृष्णप्रीति से स्वयं परितृप्त हो गए। उद्धव कहाँ तो गोपियों को कृष्ण के परात्पर रूप को सिखाने आए थे और कहाँ अब वे उनकी भक्ति के मुरीद हो गए, भक्ति के सामने ज्ञान की चमक फीकी पड़ गई ।
वन्दे नन्दव्रजस्वीणां पादरेणुभभीक्षणशः ।
यास्यां हरिकथोद्गीतं पुनाति भुवनत्रयम् ।।
गोपियों के भावुक मन का, कृष्ण के प्रति समर्पिता समग्र चेतना का इतना सुन्दर भाष्य शायद अन्यत्र पाना कठिन है। श्री अशोक नारायण जी ने इस भक्ति की अपनी भावात्मक अभिव्यक्ति से 'भ्रमर गीत' परम्परा में एक नया आयाम जोड़ दिया है। मैं हिन्दी साहित्य अकादमी का यह सद्भाग्य समझता हूँ कि इस सुन्दर भाष्य को जिज्ञाषुओं के सामने प्रस्तुत करने का उसे अवसर मिला है। मैं आचार्य रघुनाथ भट्ट का भी ऋण स्वीकार करता हूँ कि उन्होंने इस ग्रंथ के समस्त परामर्शन और प्रकाशन की प्रक्रिया में अकादमी को अनन्य सहयोग देकर इस भागवत कार्य को परिपूर्णता प्रदान की है।
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