संवत् की गणना के क्रम में पन्द्रहवीं शताब्दी के अंतिमचरण तथा सोलहवीं शताब्दी के काल को भारतवर्ष की दृष्टि से यदि शोचनीय कहा जाय तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। इस काल में देश के धार्मिक, सामाजिक, राजनैतिक एवं सांस्कृतिक क्षेत्रों में चारो ओर प्रायः अंधकार की स्थिति व्याप्त थी। जन-जन निराश और पथभ्रान्त होकर जीवन व्यतीत कर रहा था। इसी समय किसी दैवी योजना एवं प्रभुकृपा के अधीन भारत के प्रायः हर प्रान्त में प्रकाशदीप स्वरूप कई सन्तों एवं भक्तों का आर्विभाव किसी एक स्थान से न होकर विभिन्न भाषा भाषी अलग-अलग क्षेत्रों में हुआ। गुजरात, पंजाब, राजस्थान, दिल्ली से लेकर उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार, उड़ीसा, बंगाल तथा आसाम में इन सन्तों का प्राकट्य लगभग इसी उल्लिखित काल में हुआ। संवत् १४६८ में स्वामी रामानंद, १४९७ में कबीरदास, १५२६ में गुरुनानक देव, १५३० में रविदास (रैदास), १५३५ में वल्लभाचार्य, १५४० में सूरदास, १५४३ में चैतन्य महाप्रभु, १५४९ में तानसेन, १५५४ में तुलसीदास, १५५५ में मीराबाई, १५७२ में गुसाईं विठ्ठलनाथ और १५९० में इस लघु पुस्तिका के चरित्र नायक नंददास का आविर्भाव हुआ।
इन सन्तों एवं भक्तों ने धर्म, मर्यादा, आचरण, मानवता, प्रभु भक्ति तथा सेवा का ऐसा संदेश प्रसारित किया जिससे एक नवीन युग का सूत्रपात हुआ और भारतीय संस्कृति की नष्ट होती परम्परा की पुनः प्रतिष्ठा का मार्ग प्रशस्त हुआ। निराश और पथभ्रान्त जनों के हृदय में आशा की नई किरण प्रकाशित कर उन्हें अंधकार से मुक्त करने का भरपूर प्रयास इन सन्तों एवं भक्तों ने किया जिससे देश में अभूतपूर्व धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक जागरण का प्रवर्तन हुआ। इन सन्तों ने कभी भी सामाजिक वर्गभेद की भावना को प्रश्रय नहीं दिया।
गोस्वामी तुलसीदास जी तो उस काल की सामाजिक दुर्व्यवस्था से इतने व्यथित हुए थे कि अपने श्री रामचरितमानस में उस काल की सामाजिक अवस्था की ओर संकेत करते हुए लिख दिया- 'मानहीं मात पिता नहीं देवा साधुन से करवावहीं सेवा'।
इतिहास इस बात का साक्षी है कि कोई भी पुरुष अपने माता-पिता, अग्रजों एवं गुरुजनों की कृपा बिना जीवन में सफल नहीं हो सकता है। जो सफल हुए हैं वे अच्छे दैवी संस्कारों एवं इनकी सेवा के प्रतिफल के रूप में प्राप्त आशीर्वाद के कारण ही उनति के शिखर पर पहुँचे और हमारे पथ प्रदर्शक बने। ऐसा वृत्तांत मिलता है कि इस लघु पुस्तिका के नायक श्री नन्ददास जी रामकथा के अमर गायक कविकुल चुडामणि सन्त तुलसी दास के चचेरे भाई थे। श्री नन्ददास जी एवं तुलसीदास जी की शिक्षा एक ही गुरु के सान्निध्य में हुई।
स्वयं नन्ददास जी ने तुलसी वंदना के पद में उन्हें 'स्वगुरु आता' कहकर सम्बोधित किया है। उन्होंने अग्रज या निज भ्राता शब्द का प्रयोग क्यों नहीं किया यह विचारणीय है। नंददास जी प्रारम्भ में अपने भाई के समान ही रामभक्त थे। सं. १६०९ में महाप्रभु वल्लभाचार्य जी के पुत्र गुसाईं श्री विठ्ठलनाथ के सम्पर्क में आने और उनसे वल्लभ संप्रदाय एवं ब्रह्मसंबन्ध की दीक्षा लेने के बाद वे पूर्णतः कृष्ण भक्त हो गये। अपने अध्ययन काल में नन्ददास जी ने अपने अग्रज तुलसीदास के समान ही वेद, उपनिषद, दर्शन और पुराण ही नहीं अपितु संस्कृत एवं भाषा के साहित्यिक अंगों, नाट्यशास्त्र, छंदशास्त्र, काव्य, इतिहास का भी ज्ञान प्राप्त किया। प्रकाण्ड पाण्डित्य के साथ-साथ आपमें कवित्व का भी जागरण हो चुका था। फिर भी गुसाईं जी से दीक्षित होने के बाद वे गोकुल तथा गोवर्धन में रहने लगे थे और वहाँ सूरदास जी के सान्निध्य में रहकर पुष्टिमार्ग तथा काव्य रचना की शिक्षा प्राप्त करने लगे थे। ये सूरदास के साथ छःमास परासोली में भी रहे।
कालान्तर में तुलसीदास के काशी आगमन के पश्चात नन्ददास काशी आये थे। इस समय गोस्वामी तुलसीदास प्रभु श्रीराम के प्रति विनय भावना से प्रेरित होकर काशी के गोपाल मंदिर के बगीचे में एक कोठरी में रहकर विनय पत्रिका की रचना कर रहे थे। ऐसी जनश्रुति है कि तुलसीदास ने नन्ददास को अपने पास यहीं पर रखा। यह घटना तुलसीदास के नन्ददास के अग्रज होने की ओर ही संकेत करती है। यहीं पर नंददास ने भ्रमरगीत की रचना की।
श्री नंददास जी ने इसके साथ ही रस मंजरी, विरह मंजरी, रूप मंजरी, मान मंजरी (नाम मंजरी, नाम माला, नाम चिंतामणि) श्याम सगाई, सुदामा चरित, रुक्मिणी मंगल, सिद्धान्त पञ्चाध्यायी, दशम स्कंध भाषा अनेकार्थ मंजरी और श्रीमद्भावत के दशम स्कन्ध के २९वें से ३३वें अध्याय पर आधारित रासपञ्चाध्यायी की रचना के साथ अनेक पदों (भजनों) की भी रचना की।
नन्ददास जी का संक्षिप्त जीवन परिचय एवं उनके द्वारा रचित रासपञ्चाध्यायी का आज काशी विराजमान षष्ठगृहाधिपति गो. श्री श्याममनोहर जी महाराज द्वारा प्रकाशनोद्घाटन होना अतीव प्रसन्नता का विषय है।
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