भूमिका
भारत के जिन राज्यों में जनजातियों की संख्या का बाहुल्य है उनमें झारखण्ड प्रदेश का स्थान प्रमुख है झारखण्ड का नाम सुनते ही एक ऐसे प्रदेश की याद जेहन में उभरती है जो प्राकृतिक संसाधनों के मामले में देश का सबसे संपन्नशील राज्य है लेकिन वास्तविकता इस हकीकत के बिल्कुल विपरीत है। आज से 17 वर्ष पहले यानी 15 नवम्बर 2000 को देश का 28वाँ राज्य झारखण्ड के नाम से भारतीय मानचित्र पर उभरा था तो यहाँ के मूल आदिवासी जनजातीय समुदाय, आदिम जनजातीय एवं गैर आदिवासी सबको उम्मीद थी कि यह राज्य देश के सबसे विकसित राज्यों में शुमार होगा, इसकी खनिज संसाधनिक संपन्नता राज्य के कोने-कोने को संपन्नता करती हुई विकास की एक नयी परिभाषा गढ देगी। लेकिन अफसोस कि ऐसा नहीं हो पाया आज भी इस प्रदेश की आदिम जनजातियाँ विकास के इस दौर में दो वक्त की रोटी के लिए दिन-रात तरसता है। विश्व में लगभग तीस करोड़ आदिवासी समुदाय के लोग भिन्न-भिन्न देशों में निवास करती है उनमें से 15 करोड़ सिर्फ एशिया में है जहाँ तक भारत के इस 28वाँ राज्य की बात है यहाँ 32 प्रकार की जनजातियाँ निवास करती है। इनमें से 8 आदिम जनजातियों है वहीं पूरे भारत में 72 प्रकार की आदिम जनजातियाँ है जो भारत के विभिन्न राज्यों में निवास करती है। इन 72 आदिम जनजातियों में से इस राज्य में 8 आदिम जनजातियाँ इस प्रकार है असुर, बिरहोर, कोरवा, बिरजिया, परहिया, माल पहाड़िया, सौरिया पहाड़िया एवं सबर है। जिनकी कुल जनसंख्या 2.92,359 से अधिक हैं इनमें से बिरहोर जनजाति अपने समुदाय के अस्तित्व को विलुप्तता से बचाये रखने के लिए संघर्ष कर रहे है 2011 की जनगणना के अनुसार इस प्रदेश के 24 जिलों में छिट-पुट मिलाकर लगभग 10,000 जो एक गम्भीर विषय है। यह समुदाय प्रदेश के विभिन्न जिलों जैसे राँची, हजारीबाग, गुमला, गिरिडीह, चतरा, सिंहभूम, पलामू इत्यादि कुछ भागों में निवास करती है यह जाति तीन भागों में विभाजित है उथलू बिरहोर, जांघी बिरहोर एवं बसालू बिरहोर, यह जाति घूमन्तु प्रवृत्ति वाला है इन लोगों का जंगलों वनों से गहरा रिश्ता है प्राकृतिक के खुले आकाश के नीचे एवं धरती के गोद में खुले एवं स्वच्छ वातावरण में जीने वाले प्राणी है।
इस समुदाय के लोगों का जंगलों, वनों, झरनों को मित्र की तरह कंद-मूल, फल-फूल, मधु, जंगली फल, शिकार एवं अस्थायी खेती और अकुशल श्रमिकों द्वारा अपना और अपने परिवार का भरण पोषण करने में सहायक होते है। जंगलों को अपनी निजी जागीर समझते है परन्तु सरकार द्वारा कानूनी बंधन से यह समुदाय असहज हो गया है। 'लूट लाओ, कूट खाओ' की जिंदगी जीते है पैसे कमाने के लिए रस्सी, चटाई, चोप, डाला, टोकरी, सूप, जाल, केन्दू पत्ता, दातून, जड़ी-बूटी, लकड़ी बेचना, जंगली फल, महुवा, मधु एवं छोटे शहरों में अकुशल श्रमिकों इत्यादि आय का प्रमुख स्त्रोत है। यह समुदाय जंगलों एवं स्थानीय शहरों के समीप में रहकर अत्यंत अंधविश्वासी, गंभीर बीमारियों, अशिक्षित है न सड़क मार्ग से जुड़ा है और न ही सरकार की ओर से सुविधा प्राप्त हो रही है यहाँ तक कि भारतीय नागरिकता की पहचान पत्र भी नहीं है न आधार कार्ड, न राशन कार्ड न निर्वाचन पहचान पत्र, न बैंक खाता, ऊपर से कुपोषण एवं खाद्यान्न की समस्या से गम्भीर ग्रसित है तब भी जीने के लिए मजबूर है कुछ पढ़े लिखे ईसाईयों और निकट के समुदायों द्वारा धर्म परिवर्तन की प्रक्रिया से यह समुदाय का अस्तित्व ही संकट पर खड़ा है। इस जनजाति की और सर्वप्रथम ब्रिटिश प्रशासकों का ध्यान 19वीं शताब्दी के मध्य में गया। विलियम्स जोन्स द्वारा स्थापित 'एशियाटिक सोसाइटी ऑफ बंगाल' (1784) की पत्रिका में जनजातियों के बारे में विवरण मिलता है। बिरहोर जनजाति के बारे में कई पुस्तक, लेख, रिपोर्ट, मोनोग्राफ आदि लिखा गया, जिनमें कर्नल डाल्टन जो छोटानागपुर के कमिश्नर के पद पर (1857 से 1875) रहे। जो उसने अपनी पुस्तक 'डिसक्रिप्टिव एथनोलॉजी ऑफ बंगाल' (1872) तथा जर्नल में छपे अपने नोट में बिरहोर जनजाति के बारे में वर्णन प्रस्तुत किया है। साथ ही हबर्ट रिजले की पुस्तक 'ट्राइब एण्ड कास्ट ऑफ बंगाल' (1891) बैडले बर्ट की 'छोटानागपुर (1905) शरदचन्द्र राय की 'द बिरहोर (1925) जियाउद्दीन अहमद की 'बिहार के आदिवासी' (1951) जी.पी. मार्डक की 'सोशल स्ट्रक्चर (1949) एल.पी. विद्यार्थी की 'कल्चर टाइम्स इन ट्राइबल बिहार" (1958) डॉ० नर्मदेश्वर प्रसाद की 'लैण्ड एण्ड द पीपुल्स ऑफ ट्राइबल बिहार' (1961) जे.एच. हट्टन की 'कास्ट इन इण्डिया' (1973) एल.पी.विद्यार्थी की 'द ट्राइबल कल्चर ऑफ इण्डिया' (1976) नदीम हसनैन की 'ट्राइबल इण्डिया टुडे' (1987) डॉ० प्रकाश चन्द्र उराँव की "बिहार के बिरहोर' (1994) डॉ० चतुर्भुज साहु की 'बिरहोर ट्राइबल (1995), आनन्द भूषण की 'द ट्राइबल साइन इन झारखण्ड' (1999), एवं विमला चरण शर्मा एवं कीर्ति विक्रम की "झारखण्ड की जनजातियाँ (2006) आदि हैं। विभिन्न जनजातियों पर विभिन्न विद्वानों ने विद्धतापूर्वक कार्य किया है, परन्तु बिरहोर जनजाति पर बहुत अधिक कार्य नहीं हुआ है। उनके विलुप्तता की समस्या पर अब तक किसी विद्वानों ने कार्य नहीं किया है। झारखण्ड राज्य में बिरहोर जनजाति लगभग अपेक्षित रहा है। इन पर विशेष कार्य नहीं किया गया है। बिरहोर जनजाति की विलुप्तता की समस्या आदिवासी समाज के लिए अथवा सम्पूर्ण समाज के लिए गहन चिन्ता का विषय है। प्रस्तुत शोध-प्रबंध में इसी खाई को भरने का प्रयास किया गया है।