व्यक्ति का अनुभव उत्तरोत्तर जितना सघन होता जाता है- उतनी ही मौन की स्थिति बनती चली जाती है। अनुभव के सन्दर्भ में भी यह स्थिति लागू होती है। अनुभूति जितनी गहरी होगी- कहने में उतनी सूत्रात्मक हो जाती है।
जनपदीय कहावतें/लोकोक्तियाँ / मुहावरे और पहेलियाँ लोक अनुभव के सूत्रात्मक कथन हैं, जो बहुत सारे अर्थों को अपने में संरक्षित किये रहते हैं। बहुत कुछ कहने से हमेशा यह बेहतर होगा कि मात्रा में कम कहकर अधिक सम्प्रेषित किया जाय। लोक समाजों ने इस अनुभव सार को अपनी-अपनी भाषा में कहा है। वाचिक साहित्य परम्परा की इस विरासत का संग्रह ऐसे समय में बहुत महत्त्वपूर्ण है- जबकि स्मृति का ह्यस होता जा रहा हो।
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