लोक साहित्य लोकजीवन की अभिव्यक्ति है। लोक समाज का वह वर्ग है, जो आभिजात्य संस्कार, शास्त्रीयता और पांडित्य की चेतना अथवा अहंकार से शून्य है। ऐसे लोक की अभिव्यक्ति में जो तत्व मिलते हैं, वे लोक तत्व कहलाते हैं। लोक मानस की प्रत्येक अभिव्यक्ति में लोकत्व किसी न किसी प्रकार से विद्यमान अवश्य रहता है। मनुष्य के पास अभिव्यक्ति के लिए कितने ही साधन हैं, जिनमें वाणी की अहं भूमिका है। परिणामस्वरूप हमारे देश में एक तरफ तो विशाल लिखित काव्य साहित्य है, तो दूसरी ओर जनपदीय अलिखित साहित्य जिसे हम लोक साहित्य कहते हैं, जिनकी अक्षय निधि देश के प्रत्येक भूभाग में मौजूद है। ये दोनों साहित्य अर्थात् लिखित और वाचिक साहित्य मानव की सृजनशक्ति का ही परिणाम हैं। हमारी यह सांस्कृतिक धरोहर स्थिर रहे, इसका अस्तित्त्व बना रहे, हमें यही प्रयत्न करना चाहिए। प्रस्तुत ग्रंथ इसी उद्देश्य को लेकर संग्रहीत किया गया है। इस प्रयास में ग्वालियर-चंबल की लोक संस्कृति की झलक आप सुधी पाठकों के समक्ष प्रस्तुत की गई है। भौतिकवादी संस्कृति की चकाचौंध के सामने लोक मूल्य-लोकादर्श फीके पड़ने लगे हैं। यह क्षेत्र ऐतिहासिक काल के प्रारंभ से ही कुषाण, गुप्त, प्रतिहार, तुर्क तथा मुगल शासकों के अतिरिक्त मराठा और अंग्रेजी शासकों से प्रभावित रहा है। परिणाम-स्वरूप प्रतिकूल राजनैतिक तथा सामाजिक परिस्थितियाँ यहाँ के निवासियों को झेलनी पड़ीं। लेकिन इन सबके बावजूद यहाँ का लोकमानस अपनी सांस्कृतिक विरासत को यथावत संजोये हुए है। अर्थात् न तो यहाँ भौतिकवाद का प्रभाव पड़ा और न ही पाश्चात्य संस्कृति का। यहाँ के लोकमानस ने सांस्कृतिक मूल्यों को ही प्राथमिकता दी है। इतनी विशेषता जरूर है कि यहाँ की संस्कृति ब्रज, मालवा, मराठा, बुन्देलखण्ड एवं राजस्थान से प्रभावित है। इस क्षेत्र के सीमावर्ती राज्यों के निरंतर संपर्क के परिणामस्वरूप मिश्रित लोकतत्वों का समावेश स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है।
प्रथम अध्याय में क्षेत्र की भौगोलिक सीमाएँ, इतिहास, वास्तुकला, शिल्प, साहित्य, संगीत, संस्कृति का उल्लेख है। द्वितीय अध्याय में क्षेत्र की वाचिक परंपरा के विविध पक्ष संकलित किये गये हैं। चूँकि यह बात पहले ही स्पष्ट कर दी गई है कि यहाँ की लोकसंस्कृति मिश्रित संस्कृति है, अर्थात् यहाँ के गीत भी हरेक सीमांचल संस्कृति का प्रतिनिधित्व करते हैं। संस्कार गीतों में जन्म से संबंधित गीत तथा विवाह के संस्कारों पर गाये जाने वाले गीतों को सम्मिलित किया गया है। वैभवशाली तथा समृद्ध सांस्कृतिक परंपरा वाले इस क्षेत्र में प्रचलित तीज-त्योहार एवं उत्सव पर्वो के गीतों में जितनी विविधता है, उतनी शायद ही अन्य किसी अंचल में होगी। ग्रंथ में वर्णित सामग्री का संकलन साक्षात्कार द्वारा तथा रिकार्डिंग द्वारा लिपिबद्ध किया गया है। अगले क्रम में कथा साहित्य जिसमें लोक कथाएँ, व्रत कथाएँ, लोकोक्ति, मुहावरे और कहावतों का संकलन है।
तीसरे अध्याय में कथागायन, लीला, कन्हैया एवं गोटों की जानकारी है। इस क्षेत्र में धार्मिक प्रसंगों को कथा गायन के रूप में गाया जाता है, जिनमें सुदामा चरित, सूर्पणखा प्रसंग, श्रीकृष्ण जन्म की कथा, बेला विवाह आदि सम्मिलित हैं। कन्हैया गायकी जो कि तीज-त्योहारों, विवाह आदि अवसरों पर गायी जाती है। गोट कारसदेव की गाथा है।
चौथे अध्याय में ग्वालियर-चंबल में तीज-त्योहारों, व्रतों पर्वो, पूजा-अर्चना, जन्म-विवाह आदि मांगलिक अवसरों पर बनाये जाने वाले लोक चित्रों की निर्माण विधि, प्रतीक बोध, निर्माण प्रक्रिया एवं उनसे जुड़ी कथाएँ हैं।
पाँचवे अध्याय में नारदीय भजन, कथा तथा स्वांग परंपरा सम्मिलित है। ग्वालियर में श्रीमंत ढोलीबुवा महाराज द्वारा मठ का संचालन होता है, उसकी परंपराएँ लगभग दो सौ वर्षों से चली आ रही हैं, उनका संक्षिप्त वर्णन है।
छठा अध्याय इस क्षेत्र की जनजाति सहरिया से संबंधित है, जिसमें उनके रहन-सहन, जीवन-यापन, जातीय परंपराओं की जानकारी है।
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