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चरैवेति चरैवेति: एक जीवन यात्रा- Charaiveti Charaiveti: A Life Journey

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Specifications
Publisher: BODHRAS PRAKASHAN
Author Prabhu Narayan Srivastava
Language: Hindi
Pages: 111
Cover: PAPERBACK
8.5x5.5 inch
Weight 140 gm
Edition: 2024
ISBN: 9788197598067
HBY852
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Book Description

पुरोवाच

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की शाखा, स्वामी विवेकानंद की जीवनी, श्रीमद्भागवत गीता और अपने परिवार के संस्कारों ने मेरी बुद्धि और हृदय को बहुत प्रभावित किया है।

हिन्दू जाति, इतना समृद्ध ज्ञान परंपरा और महापुरुषों की अखंड परंपरा के बावजूद आज इतना उपेक्षित, प्रताड़ित क्यों है? यह प्रश्न सतत् हमारे मन मस्तिष्क को झंकृत करता रहता है। अतीव वेदना भी होती है। भारत का विभाजन, पाकिस्तान, बांग्लादेश, पी.ओ.के., अफगानिस्तान का बनना मुझे उतना नहीं व्यथित करता, जितना उन देशों में रहने वाले हिंदुओं पर हो रहे अत्याचार।

भारत में आजादी के पूर्व भी तो 563 राज्य थे, किन्तु एक अबाध हिन्दुत्व की भाव धारा ने पूरे राष्ट्र को बाँधे रखा था। परस्पर युद्ध भी होते थे, किन्तु सांस्कृतिक धारा एक ही थी। सुदूर केरल में पैदा होने वाले जगद्गुरु शंकराचार्य ने पैदल चल कर सनातन भारत की अक्षुण्ण धारा को समृद्ध बनाये रखा था। ज्यों ज्यों मेरी जीवन यात्रा आगे बढ़ती रही, मेरे हृदय में व्यथा की यह धारा भी गहरी होती गयी कि आखिर जो धर्म और संस्कृति इतनी समृद्ध थी, उस पर परमात्मा ने इतना अत्याचार क्यों होने दिया? बाद में इसका समाधान भी मुझे श्रीमद्भगवद् गीता के "कर्म फल" सिद्धांत से ही मिला। भगवान श्रीकृष्ण गीता के अध्याय 5 में कहते हैं-

न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः।

न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते।।

"परमेश्वर मनुष्यों के न तो कर्तापन की, न कर्मों की और न कर्मफल के संयोग की ही रचना करते हैं। स्वभाव, प्रकृति का विराट नियम ही इसका नियमन करता है।"

मेरी दृष्टि में यह 'कार्य-कारण सिद्धांत' सार्वभौमिक है। जैसा कर्म होगा वैसा ही फल। यह नियम व्यक्ति पर भी लागू होगा और समाज पर भी। हिन्दू समाज ने शक्ति की उपेक्षा की। आसुरी प्रवृत्ति की संगठित शक्ति के दुष्प्रभाव को शांत करने का कोई संस्थागत समाधान नहीं ढूँढा। रा. स्व. संघ के संस्थापक पूज्य डा. केशव बलीराम हेडगेवार ने जितनी गहराई से इसके लिए संगठित और 'सामूहिक सात्विक' शक्ति का महामंत्र और तंत्र दिया, वही आज हिन्दू समाज का संजीवनी मंत्र बन गया है। संघ की लगभग 100 साल की साधना ही है कि भारत की आसुरी शक्तियाँ अभी तक सफल नहीं हो पायी हैं। आसुरी शक्ति को भी भगवान ने एक संपदा ही बताया है।

"दम्भ, दर्प, अभिमान, क्रोध, कठोरता और अज्ञानता" को ही आसुरी संपदा बताया है। इसके लक्षण भी बताये हैं। हिंसा, भ्रष्टाचार, पाखंड, अहंकार इसके लक्षण हैं।

(अध्याय-16, श्लोक 7 से 18 तक)

देता है। यही प्रवृत्ति आगे चलकर आतंकवाद और विकृत जिहाद को जन्म

मैं यह भी अनुभव करता हूँ कि अतिवाद चाहे वह शक्ति की उपेक्षा कर अतिशय सज्जनता ही क्यों ना हो, वरेण्य नहीं है। एक संत के लिए संभव है यह उचित हो, किन्तु सामान्य जीवन में यह उचित नहीं है। हिन्दू संगठन, हिन्दू समाज भी इस अतिवाद का शिकार हो गया है। इसी प्रवृत्ति ने हिन्दू समाज में भी स्वार्थ, भय, कायरता, ईर्ष्या को जन्म दिया है। हम यह जानते हैं कि भूतकाल में इसका दुष्परिणाम क्या हुआ है?

भूतकाल में भारत विभाजन को छोड़ भी दिया जाय तो वर्तमान भारत में आसुरी शक्तियों के षड्यन्त्र की दिन रात उपेक्षा कर हम अपने स्वार्थ की पूर्ति में ही क्यों लगे रहते हैं? समाज के उपेक्षित, आर्थिक दृष्टि से कमजोर वर्ग को छोड़ भी दिया जाय तो जो समाज का समृद्ध वर्ग है, वह इस देश में तेजी से बढ़ रही आसुरी प्रवृत्ति द्वारा संचालित गैंग, राजनीतिक दल, यहाँ तक कि पंथ और मज़हब बाबाओं की घोर उपेक्षा कर अपने छोटे बड़े स्वार्थ पूर्ति में ही दिन रात लगे रहते हैं। कुछ सात्विक समाज भी पूजा पाठ के कर्मकाण्ड को सर्वोच्च प्राथमिकता प्रदान करते हैं। "कर्मकाण्ड" के प्रति अति आसक्ति से कई बार मुझे लगता है संघ के स्वयंसेवक भी प्रभावित हैं। शाखा जाना किन्तु शेष जीवन में समाज के प्रति संवेदनशीलता, सहज सक्रियता का अभाव ही उनके जीवन में दिखता है। लेकिन बावजूद इसके अगर आज समाज में संघ न होता तो जो थोड़ी बहुत समाज और राष्ट्र में जागरूकता दिखती है वो भी नहीं होती। समझा जा सकता है कि संघ न हो तो समाज की आज कितनी दुर्गति होती। कश्मीर, केरल और बंगाल की दुर्गति इसका ज्वलंत प्रमाण है। यशस्वी प्रधानमन्त्री योगर्षि श्री नरेन्द्र मोदी जी के पूरे शासन काल में कट्टरपंथियों द्वारा अब तक लगभग छः सौ निर्दोष नागरिकों की छिटपुट हत्या हो जाना कितना दुःखद है।

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