श्री स्वामी कृष्णानन्द जी महाराज इस काल के उन विशेष महापुरुषों में से थे जिनका सम्पूर्ण जीवन आध्यात्मिक उन्नति में बीता जो व्यक्ति उनके सम्पर्क में आया उस पर उनकी सत्यनिष्ठा, भगवत्प्राप्ति के लिए तत्परता, लगन, सच्चरित्रता आदि विशिष्ट गुणों की छाप बरबस पड़ी। अपने मुख्याध्यापकत्व के काल में भी उन्होंने विद्यार्थियों पर विशेष प्रभाव छोड़ा। उनके पढ़े हुए विद्यार्थी आज तक भी नतमस्तक होकर श्रद्धा से उस श्रेष्ठ महापुरुष का स्मरण करते हैं। बचपन से ही उनमें सत्यनिष्ठा तथा विषय-वैराग्य के संस्कार प्रबल थे। क्या विद्यार्थी काल में और क्या अध्यापकी के समय में उनका ध्येय यही रहा कि किसी प्रकार से इस जन्म-मरण के चक्कर से छुटकारा पाया जाए। अपनी बातचीत में वे कई बार कहा करते थे कि 'इस जीवन में यदि आत्म-साक्षात्कार द्वारा भगवत्प्राप्ति न हो सकी और जन्म-जन्मान्तर का चक्कर ऐसे ही बना रहा-इस विचार के आने से मेरे शरीर में कपकपी आ जाती थी और मन में बेचैनी हो जाती थी।" ऐसी तीव्र आत्म-जिज्ञासा के कारण ही वे इसी जीवन में चरम उद्देश्य को प्राप्त कर पाए ।
बाल्यकाल से ही इन पूर्वजन्म के संचित शुभ संस्कारों के आधार पर उन्होंने साधना आरम्भ की। यम-नियम के पालन की ओर विशेष ध्यान रखा । यम-नियम के पालन में उनको कठिनाई नहीं हुई।
वे कहा करते थे कि उन्हें ऐसा प्रतीत होता था कि सत्यादि नियमों का पालन करना उनके लिए स्वाभाविक था और इनका उल्लङ्घन करना अस्वाभाविक । फिर भी अपने मन की साधना के लिए उन्होंने अनेक कठोर तथा मृदु सभी प्रकार के नियमों का पालन उसी ढंग से किया जिस पथ से सभी अध्यात्म-जिज्ञासुओं को जाना पड़ता है। २० वर्ष की छोटी आयु में ही उनकी पत्नी का देहान्त हो गया और उसके बाद वे विवाह-बंधन में नहीं पड़े। उनकी शादी छोटी आयु में ही हो चुकी थी जिसका उन्हें ज्ञान भी नहीं था ।
अध्यात्म-पथ पर अग्रसर होने की लालसा से प्रेरित होकर वे कार्य को छोड़ कर योगीराज श्री स्वामी सियाराम जी महाराज के सम्पर्क में आए और उनके जीवन के अन्तकाल तक उनके साथ ही रहे। चाहे यह काल थोड़ा ही था परन्तु इस काल में ही उन्होंने अपने अध्यवसाय और लगन से उस मार्ग की कई सीढ़ियां चढ़ लीं। श्री स्वामी सियाराम जी महाराज इस लोक को छोड़ कर १६२६ में ब्रह्मलीन हुए । श्री स्वामी कृष्णानन्द जी १६२७ से १६२६ तक ही उनके सत्संग में रह पाए ।
आप का जीवन सरल, तपस्वी और लगन वाला था। उनके दो ही प्रिय कार्य थे-स्वाध्याय और भजन। जब वे स्वाध्याय करते थे तो एक सच्चे विद्यार्थी की तरह लगातार दिन में दस-दस बारह-बारह घण्टे तक एकाग्रता से पढ़ते थे। जब भजन ध्यान करते थे तब भी वे इतना ही काल ध्यान-भजन में व्यतीत करते थे। अपने शरीर की शक्ति के एक-एक कण को अपने ध्येय की प्राप्ति में लगाते थे। अपनी शक्ति को पूर्णतया अन्तिम क्षण तक कार्य में लगाए रखना उनका एक प्यारा क्रम तथा व्यवसाय था ।
१६२७ से आरम्भ करके मृत्यु के दिन (२३ जुलाई, १६५४) तक उन्होंने अपना सारा समय स्वाध्याय तथा ध्यान-भजन में लगाया और अपने उद्देश्य को प्राप्त किया। उनका पिछला जीवन आनन्द सागर में गोते लगाने वाले महापुरुथ के रूप में व्यतीत हुआ । साधन काल की सम्पूर्ण कठोरता और तपस्या तो छूट गई परन्तु पढ़ने-लिखने तथा ध्यान-भजन का क्रम वैसे ही चलता रहा ।
उनकी बुद्धि कुशाग्र थी। ऊहापोह द्वारा ही वे किसी बात का निर्णय किया करते थे। जो भी छोटी-से-छोटी समस्या उनके सामने आई उसका, उन्होंने हमेशा उसके पक्ष-विपक्ष के दोनों पाश्वों की बारीक से बारीक छान-बीन करके निर्णय करने का यत्न किया। हमेशा वे समस्या की तह तक पहुंचने की कोशिश करते थे। अपने मस्तिष्क को सर्वथा निष्पक्ष तथा खुला रख कर समस्या के हरेक पहलू पर पूर्णतया गम्भीर विचार करना और फिर निर्णय पर पहुँचना-यह उनका स्वभाव था। इसी अपने स्वभाव का उपयोग उन्होंने आध्यात्मिक समस्याओं को सुलझाने में किया। अपने श्रम से ही उन्होंने संस्कृत की अच्छी योग्यता प्राप्त कर ली थी और आकर ग्रन्थों को भी अपने आप लगा लेते थे-इस प्रकार पाश्चात्य तथा पूर्वीय दोनों दार्शनिक विचारधाराओं का उन्होंने उनके मूल स्रोतों से अध्ययन किया। अपने इस अध्ययन तथा साधन से प्राप्त ज्ञान के प्रौढ़ काल में उन्होंने लिखने का कार्य आरम्भ किया। ब्रह्मविद्या का प्रथम भाग उनके जीवन काल में ही पूरा हो गया और छप कर पाठकों के सम्मुख आ गया। जीवन के शेष काल को इस ब्रह्मविद्या के दूसरे भाग को वह पूरा करना चाहते थे। परन्तु विधि को यह स्वीकार नहीं हुआ और वे अपने प्रयास को अधूरा छोड़ कर चले गए ।
ब्रह्मविद्या का यह दूसरा खण्ड विशेषतया अध्यात्म-ज्ञान के परम लक्ष्य के विवेचन सम्बन्ची था। उनकी ऐसी योजना थी कि अध्यात्म-मार्ग के सम्पूर्ण प्रचलित दृष्टिकोणों और वादों की ज्ञान-प्रतिपादन शैली का पहले तो संकलन किया जाए और चरम तुर्यतुर्या अवस्था के आधार पर हरेक के ज्ञान-प्राप्ति की शैली, उद्देश्य तथा प्रक्रिया को सामंजस्य में किया जाए और जिस स्थिति में जो त्रुटि रह गई है उसका दिग्दर्शन किया जाए। इसके लिए वे नास्तिक, चार्वाक, बौद्ध, जैन, योग-सांख्य आदि दर्शनों के प्रतिपादित सिद्धान्तों का पूरा-पूरा विवेचन करके उनकी ज्ञान शैली तथा प्राप्तव्य उद्देश्य का विवेचन कर रहे थे और अभी इन सिद्धान्तों तथा स्थितियों की त्रुटियों का चरम लक्ष्य की अपेक्षा से प्रतिपादित करना शेष रह गया, जिसे वे पूरा नहीं कर सके।
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