प्राकृतिक सौन्दर्य और संसाधनों से समृद्ध छिंदवाड़ा जिला सतपुड़ा पर्वत श्रेणी के दक्षिण-पश्चिमी क्षेत्र में स्थित है। दसवीं शताब्दी तक छिंदवाड़ा जिले के घनें जंगलों और चुनिन्दा स्थानों पर वाकाटक और राष्ट्रकूट जैसे शक्तिशाली राजवंशों का शासन रहा। मुगलकाल के दौरान इसका उल्लेख देवगढ़ के संदर्भ में किया गया है। गौड़वंश के राजा जाटवा वीर देवगढ़ के पहले शासक हुए और उन्होंने देवगढ़ के किले का निर्माण कराया। जाटवा के बाद क्रमशः कोकशाह प्रथम, जाटवा द्वितीय, कोकशाह द्वितीय, बख्त बुलंद और अंतिम शासक चाँद सुल्तान हुए। इन सभी ने लगभग दो सौ साल राज किया। चाँद सुल्तान के बाद यह मराठा शासकों के अधीन हो गया। रघुजी भोंसला पहले मराठा शासक हुए। फिर जानोजी, सावाजी, रघुजी द्वितीय, परसोजी, अप्पा साहब और रघुजी तृतीय अंतिम शासक रहे।
सन् 1803 में भारत में आंग्ल-भोंसला सम्बन्धों का नवीन युग आरम्भहुआ। इस वर्ष द्वितीय आंग्ल मराठा युद्ध समाप्त हुआ जिसमें रघुजी भोंसले ने दौलतराव सिंधिया के साथ मिलकर अंग्रेजी सेना का कड़ा विरोध किया था। परन्तु दोनों मराठा शक्तियां पराजित हो गई। तत्कालीन गर्वनर लॉर्ड वेलेजली ने दोनों के साथ अलग-अलग संधियां की। रघुजी भोंसले (द्वितीय) के साथ अंग्रेजों ने 17 दिसम्बर, 1803 में देवगाँव की संधि की। इस संधि की अंतिम शर्त के अनुसार मॉन्स्टुअर्ट एल्फिस्टन को नागपुर का रेजीडेंट नियुक्त किया गया। सम्भवतः इसी समय से छिंदवाड़ा की शासन व्यवस्था आंशिक रूप से ब्रिटिश शासन के नियंत्रण में आ गई और रेजीडेंट द्वारा संचालित की जाने लगी। सीताबर्डी के युद्ध में पराजय के पश्चात भी अप्पा साहब भोसले ने अंग्रेजों का कड़ा प्रतिरोध करने का प्रयास किया और जंगलों में रहकर ब्रिटिश शासन के खिलाफ संघर्ष जारी रखा। इस दौरान छिंदवाड़ा जिले के गोंड और कोरकू ज़मींदारों ने उन्हें पर्याप्त सहयोग दिया। इनमें सोनपुर के जागीरदार राजा चैनशाह और प्रतापगढ़ के जागीरदार राजबाशाह के नाम उल्लेखनीय हैं। इसी समय अप्पा साहब की भेंट पिण्डारी नेता चीतू से हुई थी, जिसने कि अंग्रेजों से लगातार संघर्ष किया था।
सन् 1818 ई. से 1830 तक का समय छिंदवाडा में ब्रिटिश प्रभुत्व की स्थापना का समय था। इस समय नागपुर राज्य का शासन अंग्रेज रेजीडेन्ट रिचर्ड जेनकिन्स के हाथों में रहा और कैप्टन मॉण्टगोमरी को छिंदवाड़ा का प्रबन्धक नियुक्त किया गया था। अतंतः रघुजी (तृतीय) की मृत्यु के पश्चात् नागपुर राज्य 1854 में अंग्रेजी राज्य में मिला लिया गया तथा इसी समय से छिंदवाड़ा भी ब्रिटिश साम्राज्य के अंतर्गत हो गया।
सन 1857 के स्वाधीनता संग्राम में नागपुर और जबलपुर दो ऐसे जिले थे जिनमें होने वाली हर घटना का इस पूरे प्रदेश अथवा पूरे क्षेत्र पर प्रभाव पड़ता था क्योकि छिंदवाड़ा की स्थिति नागपुर और जबलपुर के बीच में थी। यह छिंदवाड़ा जिले का सौभाग्य था कि भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के वीर सेनानी तात्याटोपे का इस जिले में आगमन हुआ। जमींदार महावीरा सिंह ने साहस एवं वीरता का प्रदर्शन करते हुए तात्याटोपे का साथ दिया।
इस संग्राम में छिंदवाड़ा क्षेत्र के जनजातीय समुदाय की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही। तामिया के इमरत भोई, इमरत भोई कौडवाला, टापरू भोई, अमरू भोई, झन्का भोई, लोटिया भोई, इमरत भोई सरआम, सहरा भोई आदि ने ब्रिटिश सरकार से लगातार संघर्ष किया और अपने प्राणों का उत्सर्ग कर दिया। 1857 की क्रांति के पश्चात जब मध्यप्रांत की स्थापना की गई तब उसके 18 जिलों में छिंदवाड़ा जिला भी सम्मिलित था।
सन 1920 से इस जिले में स्वाधीनता आंदोलन हेतु आवश्यक पृष्ठभूमि का निर्माण हुआ और जनचेतना पुनः जागृत हुई। परिणामस्वरूप 1920 से 1947 ई. तक छिंदवाड़ा जिला राजनीतिक गतिविधियों का प्रमुख केन्द्र रहा। महाराष्ट्र के निकट होने के कारण लोकमान्य बालगंगाधर तिलक द्वारा प्रारंभ किये गये धार्मिक उत्सवों तथा राष्ट्रीय एवं प्रांतीय स्तर के नेताओं जैसे सरोजनी नायडू, अलीबंधुओं, डॉ. मुंजे तथा डॉ. खापर्डे आदि के छिंदवाड़ा आगमन ने इस क्षेत्र में राष्ट्रीय जागृति उत्पन्न करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
देश में स्वतंत्रता आंदोलन की जन चेतना को महात्मा गांधी के नेतृत्व से एक नई दिशा मिली और छिंदवाड़ा भी इससे अछूता नही रहा। गांधीजी दो बार छिंदवाड़ा आये और अपने प्रभावशाली भाषण से यहां के जनमानस को उद्वेलित कर दिया। उन्हीं की प्रेरणा से छिंदवाड़ा में सविनय अवज्ञा, व्यक्तिगत सत्याग्रह, जंगल सत्याग्रह और भारत छोड़ो आंदोलन, छिंदवाड़ा, अमरवाड़ा, पांढुर्ना, रामाकोना और लोधीखेड़ा आदि स्थानों पर सफलतापूर्वक संचालित हुए जिनमें विश्वनाथ सालपेकर, वीरबाबूराव हरकरे, माणिकराव चवरे और चोखेलाल मान्धाता, रायचन्द भाईशाह, दुलीचन्द भाई मेहता सहित अनेकोनेक स्वतंत्रता सेनानियों ने बढ़-चढ़कर भाग लिया।
इस प्रकार छिंदवाड़ा जिले में स्वाधीनता आंदोलन को सफल बनाने में दो प्रकार की शक्तियों की महत्वपूर्ण भूमिका रही। प्रथम, क्रांतिवीर राष्ट्रीय शक्तियां जिनमें तात्याटोपे, अलीबंधु, महात्मा गांधी, सरोजनी नायडू, पं. रविशंकर शुक्ल, पं. द्वारका प्रसाद मिश्र आदि का नाम विशेष उल्लेखनीय है। द्वितीय, स्थानीय शक्तियां जिनमें, गोंड जनजाति, मराठी भाषी, उत्तरप्रदेश के प्रवासी व अन्य अनेक स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों का समावेश था। इन्हीं शक्तियों के प्रयासों से इस जिले में स्वतंत्रता आंदोलन की गतिविधियों में तेजी आई और यह जिला स्वाधीनता आंदोलन के इतिहास में अपना विशिष्ट स्थान बनाने में सफल रहा।
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