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हिन्दी एवं गुजराती दलित उपन्यासों का तुलनात्मक अध्ययन- Comparative Study of Hindi and Gujarati Dalit Novels

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Specifications
Publisher: Chintan Prakashan, Kanpur
Author N. S. PARMAR
Language: Hindi
Pages: 280
Cover: HARDCOVER
9x6 inch
Weight 460 gm
Edition: 2016
ISBN: 9789385804090
HBO519
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Book Description

भूमिका

दलित कथा-साहित्य भारतीय साहित्य की एक विशिष्ट उपलब्धि है। यह केवल साहित्य उपक्रम भर नहीं है, अपितु मानव अभिव्यक्ति के ऐतिहासिक दमन और नकार का प्रतिकार भी है।

स्वतंत्रता पूर्व श्री मोहनदास करमचंद गाँधी जी और बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर के मध्य घटित पूना की यर्वदा जेल का समझौता अर्थात् पूना पैक्ट में तय हुआ था कि पृथक निर्वाचन की माँग को छोड़ कर डॉ० अम्बेडकर संयुक्तता में दलितों को समान अधिकार दिलाएंगे, जिन क्षेत्रों में ये अधिकार स्वेच्छ्या मिलने संभव नहीं हैं उनके लिए बाध्यकारी कानून बनाएंगे। उद्देश्य था सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक समानता की स्थापना करना। अस्पृश्यता, बहिष्कार और अमानवीय अत्याचारों के कारण जो सामाजिक हिस्से पीछे छूट गये हैं, उन्हें आरक्षण देकर अगड़े तबकों के बराबर लाया जाएगा। अगर यह न्यायसंगत व्यवस्था नहीं बनी तो सामाजिक अन्याय का शिकार "अस्पृश्य भारत अपनी आजादी किससे मांगेगा अंग्रेज अछूतों को उनके अधिकार स्पृश्यों से दिला कर तब भारत से जाएं" डॉ. अम्बेडकर की माँग उस आशंका से पैदा हुई थी, जिसमें उन्होंने कहा था- हमें डर है कि, 'स्वराज हमारे ऊपर राज न हो जाए।'

आजादी के सत्तर सालों के उपरांत दलितों पर गैर दलितों का राज कायम है। लोकसभा, विधानसभाओं में दलितों के प्रतिनिधियों की स्थिति छिपी नहीं है। परन्तु स्वराज/आजादी तो कला, साहित्य, शिक्षा, मीडिया, सिनेमा, उद्योग इत्यादि क्षेत्रों में भागीदारी से मिलता है।

शिक्षा मुक्ति का पहला और आधारभूत माध्यम है। बाबा साहब ने प्राथमिक से लेकर विश्वविद्यालयों तक की शिक्षा को सस्ता, सुलभ और समान रूप से सभी बच्चों को उपलब्ध कराने का सुझाव रक्खा था।

आज शिक्षा दलितों को दुर्लभ है, निजी और मुनाफा कमाने का साधन है। शैक्षिक संस्थाओं के स्वामित्व में दलितों की भागीदारी नहीं है। यहाँ गुणकारी शिक्षा समाप्त है। इसलिए दलितों के बच्चे या तो अशिक्षित रह रहे हैं या शिक्षित बेरोजगार रह रहे हैं।

मीडिया संस्थान, साहित्य-व्यवस्था ये लोकतांत्रिक भागीदारी देने की कल्पना भी नहीं करते, इन विषयों पर चर्चा भी नहीं होती। लोकतंत्र के इन मानवाधिकार संबंधी मुद्दों को लेकर दलित साहित्य में क्या लेखन हो रहा है?

कितना हो रहा है, किन-किन विधाओं और किन-किन भारतीय भाषाओं में हो रहा है? इन प्रश्नों की पड़ताल करना अत्यंत आवश्यक है।

मेरे हाथों में महाराजा सयाजीराव विश्वविद्यालय, बड़ौदा के हिन्दी विभाग में एशोसिएट प्रोफेसर डॉ० एन० एस० परमार द्वारा तैयार यू० जी० सी० का 'मेजर रिसर्च प्रोजेक्ट' है।

वर्ष 2012 में बाबा साहब अम्बेडकर जयंती पर ओएनजी के कर्मचारी-अधिकारी संगठनों ने बड़ौदा में मेरा एक व्याख्यान कराया था। मैंने अपने व्याख्यान का विषय-पत्रकार अम्बेडकर, दलित पत्रकार बनाम सवर्ण पत्रकार चुना था। अखबारों से सूचना पाकर डॉक्टर परमार ने मुझसे संपर्क किया था। वे मुझे विश्वविद्यालय दिखाने और महाराजा सयाजीराव का महल दिखाने ले गये थे। इस महल से और महाराजा की स्मृति से मेरा थोड़ा लगाव इसलिए था कि उन्होंने डॉ. अम्बेडकर को विद्या अर्जन के लिए विदेश भेजा था।

डॉ॰ परमार और मैं उस बस्ती की ओर गए। हम उस इतिहास में भी गए जिसमें एक पारसी परिवार में जाति छिपा कर डॉ० अम्बेडकर ने पनाह ली थी-जब वे महाराजा के सचिव थे। जाति पता चलने पर उन्हें बसामान घर बदर ही नहीं किया था, अपमानित भी किया था। हम उस वृक्ष के नीचे बैठे थे, जिसके नीचे बैठ कर बाबा साहब जाति-भेद वाली अस्पृश्यता संपन्न अमानवीय समाज-व्यवस्था पर फूट-फूट कर रोए थे।

यह प्रसंग दलित संवेदना का ही नहीं दुनिया के किसी भी सुधरे हुए मानवतावादी इंसान की वेदना का सबब है।

आज जब मैं संबंधित ग्रंथ के लिए अपने शब्द लिखने बैठा तो मेरी दृष्टि डॉ० परमार के बिना तिथि के एक पत्र पर गई जो लगभग छह-सात माह पूर्व मुझे प्राप्त हुआ था। पत्र की आखिरी पंक्तियों में डॉ० परमार ने लिखा है- "बड़ौदा में आपकी मुलाकात से मुझे एक नयी दिशा मिली है, जिस 'संकल्प भूमि' की हमने मुलाकात की थी वह पेड़ अब गिर चुका है, परन्तु हमारा संकल्प कभी विफल नहीं होगा, ऐसा हमारा विश्वास है।"

सच में डॉ. परमार ने इन शब्दों में बड़ी बात कही। एक रूपक हो जैसे 'संकल्प वृक्ष' का गिरना। गिरने उठने, सफलता असफलता की अनेक कथाएँ इस ग्रंथ में डॉ॰ परमार ने विवेचित और विश्लेषित की हैं। इधर की दलित साहित्य की पंचवर्षीय योजना के अंतर्गत कई प्रबंधों को देखने एवं दायित्व निभाने को मिला है। परन्तु दो भाषाओं के उपन्यासों का तुलनात्मक अध्ययन इतनी वस्तुपरक दृष्टि और दलितों की अधिकार चेतना के बोध के साथ कम देखा है। यह ग्रंथ पाठकों को न केवल हिन्दी और गुजराती दलित उपन्यासों से परिचित कराएगा बल्कि साहित्य के मार्फत आने वाली जीवन-स्थितियों से भी अवगत कराएगा।

एक अच्छा शोध श्रम-साध्य कार्य तो होता ही है। उसके लिए स्पष्ट की नितांत आवश्यकता पड़ती है। यह दृष्टि रचना के चयन से लेकर उसकी भीतरी संवेदनशीलता को समझने में सहायक होती है।

क्योंकि जितना जरूरी ग्राह्य को अंगीकार करना है, उससे अधिक कठिन होता है अग्राह्य के प्रति निर्मम हो उससे बचना। ऐसा अध्ययन दो भाषाओं के बीच परिचय सेतु बनाते हैं। मराठी-हिन्दी, हिन्दी-तमिल, हिन्दी-पंजाबी, हिन्दी-तेलगू, हिन्दी-कन्नड़ आदि अध्ययन हो रहे हैं। इससे देश व्यापी प्रभाव पड़ रहा है।

ग्रंथ के लेखक डॉ. एन. एस. परमार स्वयं हिन्दी के प्राध्यापक हैं। उन्होंने प्रस्तावना में बताया है कि गैर दलितों के दलित विषयक वे उपन्यास जो उनके पाठ्यक्रम में थे उन्होंने पढ़े। जाहिर सी बात है, गैर दलितों का दलित विषयक लेखन सच्चा नहीं होता। वह मनगढंत काल्पनिक और निहित उद्देश्यों की पूर्ति करने के लिए व्यावसायिक ढंग से लिखा जाता है। उससे दलित समस्याएँ बढ़ती हैं, समाधान नहीं होता है।

डॉ० परमार ने यू० जी० सी० के प्रोजेक्ट भर के लिए दलित साहित्य से रिश्ता नहीं जोड़ लिया है, बल्कि उन्होंने पी-एच० डी० में 'दलित चेतना से अनुप्राणित हिन्दी उपन्यास' विषय को लिया था। जाहिर है दलित चेतना ने ही मृतप्राय साहित्य व्यवस्था में प्राण फूंके हैं। ये प्राण हैं दलित चेतना का अपना स्वतंत्र योगदान।

यह बहस कि, दलित साहित्य किसे कहते हैं। गैर दलित भी दलित साहित्य क्यों नहीं लिख सकते, साहित्य में अनुभूति की क्या आवश्यकता है। सहनुभूति ही क्या कम है, अछूत सहानुभूति के पात्र ही कब रहे हैं? गैर दलितों को चार हजार साल से लेखन-पाठन के अवसर मिले हैं इसलिए वे कला-सौंदर्य का साहित्य में समावेश करने में सिद्धहस्त हैं। दलित साहित्य का सौंदर्य-श्रम और जीवन यथार्थ का सौंदर्य है। दलित का अनुभव स्वातंत्र्योत्तर हिन्दू समाज में एक ठगे गये, लूट लिए गए और छले गये देश-भक्त का अनुभव है।

वह जानता है कि उसके नायकों ने चेताया था कि संविधान कितना भी अच्छा बने पर यदि उस पर अमल करने वाले लोग अच्छे नहीं होंगे तो संविधान प्रभावी नहीं होगा। अब ये कैसे लोग हैं, सत्तर साल की आजादी के बाद दलित और गैर दलित के बीच गैर बराबरी हर स्तर पर बढ़ रही है। दलित की जितनी गरीबी बढ़ रही है गैर दलित की उतनी ही अमीरी बढ़ रही है। दलित को तालीम, आवास, रोजगार की जितनी मुसीबत बढ़ रही है, विद्या के व्यवसायी गैर दलितों को शिक्षा विदेशों में जाने मेडिकल, इंजीनियरिंग, साहित्य, मीडिया सब क्षेत्रों में वर्चस्व स्थापित करने के साधन बन गए हैं।

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