राजनीतिक सिद्धांत, जिसे सामान्यतया अन्य संबंधित विषयों जैसे रराजनीतिक चिन्तन, राजनीतिक दर्शन, राजनीतिक विचारधारा आदि के समान एवं उनसे भिन्न समझा जाता है, हर लिहाज से एक अत्यन्त व्यापक बौद्धिक क्रिया है। जैसा एन्ड्रयू हेकर ने सुझाव दिया है, इसमें दर्शन, विचारधारा और विज्ञान सभी शामिल हैं। अपितु इसके बारे में एक दुविधाजनक तत्व यह है कि प्राचीन युग से लेकर आधुनिक युग तक यह विषय 'मानव बनाम राज्य' जैसा हर्बर्ट स्पेन्सर ने शीर्षक दिया- के इर्द-गिर्द घूम रहा है और इसी कारण विरोधाभासों, अन्र्तावरोधों और वादविवादों को इस सीमा तक सृजित कर रहा है कि अब, जैसा विलियम सी० वॉम ने कहा है, यह बेमेल उखाड़ पछाड़ के भंडार की तरह हो गया है। इस स्थिति को बहुत आशंकाओं से देखा गया है, यहां तक कि यदि एल्फ्रेड कोबां जैसे कुछ लेखकों ने इसके 'पतन' पर अपनी चिन्ता व्यक्त की है, तो टी० एल० थॉरसन जैसे अन्य लेखक इसके 'निधन' पर शोक व्यक्त करने की सीमा तक गए हैं, जबकि दान्ते जर्मीनो जैसे कुछ अन्य लेखकों ने इसके 'पुनरुत्थान' या 'पुनर्जीवन' पर विशेष वल देने का प्रयास किया है।
वत्तमान समय में राजनीतिक सिद्धांत के स्वभाव व क्षेत्र के विषय ने विशेष महत्व ग्रहण कर लिया है। समकालीन संकट की व्याप्ति को ध्यान में रखते हुए राजनीति के विचार तथा राजनीतिक संकट की जानकारी ने उन समस्याओं व चुनौतियों के प्रति उचित प्रतिक्रिया व्यक्त की है जिन्हें सारे संसार में सामाजिक-आर्थिक विकासों एवं अधिक सटीक वौद्धिक प्रवृत्तियों ने प्रस्तुत किया है और जो देखने में परम्परागत रूपमें पारिभाषित राज्य विज्ञान के विषय से संबंधित नहीं हैं। इसका यह परिणाम हुआ है कि समकालीन राजनीतिक सिद्धान्त उत्तर-उदारवाद तथा वैज्ञानिक समाज-वाद के ध्रुवों के बीच घूमता दिखाई देता है जिसने, सी० वी० मैक फर्सन के शब्दों में, इसके प्रयोजन को अत्यन्त 'भ्रमपूर्ण' बना दिया है या, जैसा फेड डी० डेलमायर ने कहा है, इसने उसे 'चौराहे' पर खड़ा कर दिया है।
निश्चिततः अब राजनीतिक सिद्धान्त विरोधी दिशाओं में फंस गया है। यह उस पूर्वाग्रह का शिकार बन गया है जिसने इसके निष्पक्ष चरित्र पर गंभीर प्रहार किया है। विशेषकर अमेरिका के उदारवादी सिद्धान्त-शास्त्रियों के इस आग्रह ने उलझन के भंडार में वृद्धि की है कि मार्क्सवादी सामाजिक व राजनीतिक सिद्धान्त का कोई वैकल्पिक नमूना प्रस्तुत करने की बजाए इसने परिणामतः इस विषय के वास्तविक अर्थ, स्वरूप व क्षेत्र के बारे में गड़बड़ मचा दी है। इस विषय को वैज्ञानिक रूप में प्रस्तुत करने की उन्मादपूर्ण होड़ अपेक्षित परिणाम प्रस्तुत करने में विफल रही है। व्यवहारपरकवाद की प्रवृत्ति इतनी प्रभावी हो गई है कि अब इसे मानपरक-बाद की ताजगी देने वाली प्रवृत्ति से प्रति-सन्तुलित नहीं किया जा सकता । अपने तत्कालीन पूर्वोपायों की तुलना में उत्तर-व्यवहारवादी लेखक भी इस विषय के आयामों को दूषित करने में 'छोटे पापियों' के सिवा और कुछ नहीं है। अपितु दूसरे महायुद्ध के बाद के समय में सामाजिक व राजनीतिक सिद्धान्त के विषय पर होने वाली रचनाओं का एकमात्र योगदान उस प्रचुर साहित्य के विकास में देखना चाहिए जिसमें विविध दिशाओं की ओर संकेत किया गया है तथा जिनमें इस विषय के नए छात्र कुछ उपयोगी अभ्यास करने के लिए पदार्पण कर सकते हैं।
समकालीन राजनीतिक सिद्धान्त मानपरक व व्यवहारपरक, उदारवादी व मार्क्सवादी, पाश्चात्य एवं गैर-पाश्चात्य दोनों है; इस तथ्य के बावजूद कि इसके पूर्वोक्त आयाम इसके उत्तरोक्त आयाम पर अधिक हावी रहे है। दूसरे शब्दों में, यह मूल्य-भारित व मूल्य-मुक्त दोनों है; यह कल्पना-लोकीय व वैज्ञानिक दोनों है। इसके संबंध का परास, एलन गीवर्थ के प्रशंसापूर्ण शब्दों में, 'राजनीतिक सत्ता के नैतिक मूल्यांकन' से लेकर ईस्टन के निन्दापूर्ण स्वर में 'विज्ञानवाद के प्रति उन्मादपूर्ण होड़' तक फैला हुआ है।
प्रस्तुत पुस्तक मेरी कन्टेम्पोरेरी पोलिटिकल थ्योरी के दूसरे संस्करण का हिन्दी रूपान्तर है। इस विनम्र रचना में नए आयामों, मूल संकल्पनाओं तथा प्रमुख प्रवृत्तियों का विवेचन किया गया है। पाठकगण ऐसा आभास कर सकते हैं व ऐसी आपत्ति उठा सकते हैं कि इस पुस्तक में कुछ महत्वपूर्ण विषयों को शामिल नहीं किया गया है। अपने पाठकों की आलोचनात्मक टिप्पणियों को ध्यान में रखते हुए मैं उन विषयों को इस पुस्तक के अगले संस्करण में शामिल करने का प्रयास करूंगा, ऐसी मेरी आशा है। मुझे पायेंगे और इस तरह विश्वास है कि पाठकगण इस रचना को उपयोगी मेरे परिश्रम को उपयुक्त रूप में पुरस्कृत करेंगे ।
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