साहित्य द्वारा सामाजिक परिवर्तन हो सकता है या नहीं और परिवर्तन कितना दूरगामी तथा प्रभावशाली हो सकता है, इस पर विवाद हो सकता है; परन्तु इतना तो निर्विवाद है कि समाज में अनेक कारणों से आ रहे परिवर्तन को साहित्य शब्द देता है, उसे मुखर करता है, उसकी दिशा बनाता है, परिवर्तन के स्वर को दूर-दूर तक पहुँचाता है, उसे प्रोत्साहित करता है, और आने वाली पीढ़ियों के लिए उस प्रयास और स्वर को जीवित रखता है। इसके साथ ही व्यापक परिवर्तनकामी, स्वल्प परिवर्तनकामी, यथास्थितिकामी और परिवर्तन विरोधी शक्तियों के आपसी टकराव का वह दस्तावेज बनता है। भारतीय भाषाओं के भक्तिकालीन साहित्य के अध्ययन से मध्ययुगीन परिवर्तन चेतना का अनुमान लगता है, जो हमारे आधुनिक साहित्य की पृष्ठभूमि बनता है। सामाजिक संरचना, सामाजिक संस्थाएँ, यहाँ तक कि सामाजिक परम्परा, क्रिया और व्यवहार आदि सभी सामजिक मूल्यों पर निर्भर करते हैं। सामाजिक संरचना या सामाजिक संस्थाओं में कोई भी परिवर्तन उसी समय होता है, जब सामाजिक मूल्यों में परिवर्तन होता है। भारतीय संदर्भ में, विशेष रूप से सामाजिक मूल्यों की समस्याओं को समझे बिना सामाजिक परिवर्तन की समस्या को नहीं समझा जा सकता।
सामान्यजन की ओर समाज का ध्यान आकर्षित होना और उसकी निजता मानवीयता का महत्वांकन होना, आधुनिक युग में सामाजिक परिवर्तन की ओर एक महत्वपूर्ण कदम था। साहित्य में इस परिवर्तन की व्यापक तस्वीर उभरने लगी । धीरे-धीरे साहित्य में विशिष्टजन गायब होने लग गया। समकालीन साहित्य में सामाजिक परिवर्तन के विविध संदर्भों के अनेक मुखी चित्र उपलब्ध हैं। आज का लेखक परिवर्तन का दर्शक या लेखा-जोखा रखने वाला ही नहीं है, वरन् वह परिवर्तन की प्रक्रिया का सक्रिय सहगामी भी बनना चाहता है। इसी बिन्दु पर साहित्य और सामाजिक परिवर्तन का संबंध गहरे अन्तर्सम्बन्ध में बदलता है।
आधुनिक साहित्य का द्वार भारतेन्दु ही खोलते हैं, और वह द्वार उनके और उनके साथियों के इस प्रकार के लोकवादी साहित्य से ही खुलता है। यह बात कही जा सकती है कि भारतेन्दु युग का यह नया साहित्य कलात्मक उपलब्धियों के शिखर नहीं छूता, किन्तु यह बात भी उतने ही बलपूर्वक कही जा सकती है कि बाद की साहित्यिक उपलब्धियों का मूलाधार भारतेन्दु काल की यह लोकोन्मुखता ही है, उसे नींव कह सकते हैं। सशक्त साहित्य की परम्परा खुरदरे जीवन के साहित्य से ही शुरू होती है, चिकने चुपड़े शिष्ट जीवन के साहित्य से नहीं। प्रगतिवादी आन्दोलन ने भी अपने को लोक - जीवन और लोक-संस्कृति से जोड़ने का प्रयत्न किया, किन्तु उसके इस प्रयत्न में एक दर्शन के तहत् मात्र एक ललक थी, गहरी अनुभूति नहीं थी, इसलिए वह लोक-जीवन और संस्कृति को स्थूल या एकांगी रूप में ही देख सका, उसके साथ गहरा तादात्म्य स्थापित नहीं कर सका। यही वजह है कि उसने एक अच्छे प्रयत्न की शुरूआत तो की, किन्तु उससे स्वयं कोई उपलब्धि नहीं प्राप्त कर सका। कवियों, कहानीकारों और उपन्यासकारों के एक बहुत बड़े वर्ग ने अपने लेखन को लोक-जीवन, अतः उसकी संस्कृति से जोड़ा। यह बात ध्यान देने योग्य है कि आजादी के बाद गाँव बहुत तेजी से बदले और शहरों का भी सामान्य वर्ग एक नयी राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक समझ से अनुप्राणित होने लगा। इस तरफ कहीं न कहीं मध्यप्रदेश और देश के समकालीन कहानीकारों की दृष्टि रही है।
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