कई दशक पहले मैंने वाल्मीकि रामायण और आध्यात्म रामायण तुलसी दास कृत राम चरितमानस का अध्ययन किया था। रामचरित मानस और वाल्मीकि रामायण के बाद मन में एक तुलनात्मक अध्ययन करने की उत्कंठा जागी थी। शुरू में ही मैंने पाया कि वाल्मीकि रामायण में सूंगी ऋषि को बुलाने के लिए किस प्रकार सुन्दरियों ने उनको आकर्षित किया था इसका विशद वर्णन किया गया है और श्रृंगार रस भरा पड़ा है। जबकि तुलसीदास के रामचरित मानस में उन सब प्रसंगों में लेश मात्र भी इस रस का प्रयोग नही किया गया है। उदाहरण के लिए तुलसीदास जी ने सूंगी ऋषि के निमंत्रण के बारे में सिर्फ वह भी इस प्रकार लिखा है।
मैंने अपने अनुभव में यह पाया कि रामचरित मानस के नवाह्न पारायण के बाद सब रसों को दबाकर भगवद् भक्ती इस प्रकार प्रबल होकर छा जाती है कि बाकी घटनायें भूलकर भक्त राम रस में डूब जाते हैं। मन में यह विचार भी आया कि अगर तुलसीदास जी ने श्रृंगार रस का प्रयोग किया होता तो ऐसा अनुभव होना दुष्कर हो जाता। कारण स्पष्ट था तुलसीदास जी के लिये श्रृंगार रस का प्रयोग न करना एक नितांत कलियुगी आवश्यकता थी। क्योंकि कलियुग का प्राणी न जितेन्द्रिय होता है न योगी और इसलिये सात्विक या गुणातीत अवस्था से संसार के प्रवाह का अवलोकन ज्ञान की दृष्टि से नहीं कर सकता है। श्रृंगार उसके लिये साहित्य का आभूषण न बनकर कामोत्पादक बन जायेगा।
देखते देखते अब उपभोक्तावाद ऐसे छा गया है और इश्तहारबाजी इतनी अधिक है कि छोटी छोटी बातों से लेकर बड़ी-बड़ी घटनाओं के बखान या चित्रण में मीडिया में सेक्स का प्रयोग आम हो गया है। इससे समाज किस प्रकार अपने नैतिक मूल्यों से गिरता चला जा रहा है और किस प्रकार कलियुग का आवेश इतना प्रबल हो चुका है यह तो सभी देख रहे हैं। इस उपभोक्ता वाद के युग में अगर भगवान के चरित्र के साथ भी श्रृंगार रस का प्रयोग किया जाये तो आम जनता इस श्रृंगार को सेक्स के रूप में ही देखेगी। तुलसीदास जी में ऐसी दूरदर्शिता थी। वह महान शास्त्रज्ञ थे और एक त्रिकाल दर्शी के रूप में उन्होंने देखा होगा कि कलियुग में भ्रष्टाचार और दुराचार के साथ-साथ चरित्रहीनता इतनी बढ़ चुकी होगी कि अगर रामचरित के चित्रण में उन्होंने श्रृंगार रस का प्रयोग किया तो जनमानस में गलत संदेश पहुंचेगा।
इस महान आदर्श को सामने रखते हुए रामचरित मानस में श्रृंगार रस का प्रयोग न करने का निर्णय लिया होगा।
स्वयं कलियुग में जन्मे तुलसीदास जी ने अपने ही समय में कलियुग का काफी प्रभाव देख लिया होगा। इसलिये किसका बखान करना उचित है किसका नहीं इसका निर्णय लेने में कोई कठिनाई नहीं हुई होगी। वाल्मीकि रामायण में श्रृंगार रस की प्रचुरता है अध्यात्म रामायण में वह बहुत न्यून मात्रा में है और रामचरित मानस में शून्य प्रायः क्यों है? इसका कारण स्पष्ट हो गया।
सुन्दरकाण्ड में हनुमान जी लंका में प्रवेश कर जब सीता को खोजने निकले स्वाभाविक ही है सबसे पहले वो रावण के महलों में जाकर उनको ढूंढने लगे होंगे। वाल्मीकि रामायण में इसका विपरीत वर्णन है और आजकल के वातावरण में अगर तुलसीदास जी ने इसका वर्णन किया होता तो राम भक्त सुन्दरकाण्ड का पाठ अपने कष्टों के निवारण के लिये कम करते और मनोरंजन के लिये अधिक पढ़ते।
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