पुरातत्वविद् रमेश वारिद और सांस्कृतिक एवं पुरातात्विक वैभव ...
आध्यात्मिक संचेतना और कला के प्रति अनुराग व्यक्ति की सृजनात्मकता को पल्लवित तो करते ही हैं साथ ही उसके कौशल को भी विकसित करते हैं। जब पल्लवन और विकास का यह क्रम जीवन में सरगम जैसे अनुनादित होने लगता है तो व्यक्ति के भीतर एक दार्शनिक पृष्ठभूमि उभरने लगती है और वह अपनी आंतरिक प्रेरणा से रचनात्मक पथ पर बढ़ने लगता है। यही वह पथ है जो उसके भीतर के कौशल को मंथने का अवसर प्रदान करता है और वह अपनी सम्पूर्ण चेतना के साथ सृजन सन्दर्भों में रम जाता है।
इतिहास एवं पुरातत्वविद् रमेश वारिद इन्हीं सन्दर्भों के साथ अपने सृजनात्मक मूल्यों को समर्पित रहे तथा कला, साहित्य एवं संस्कृति के विविध पक्षों को अपनी शोधात्मक प्रवृत्ति से लेखन के माध्यम से उजागर करते रहे।
मेरा सौभाग्य रहा मुझे इस जन्म में उनका प्रेरक सान्निध्य मिला। उनके प्रेरणात्मक दिशाबोध और सृजनात्मक संस्कारों के साथ सृजन परिवेश से ही मेरा रचनात्मक सन्दर्भों से साक्षात्कार होता रहा। इससे मेरी कला साहित्य संचेतना को अभिव्यक्ति एवं शब्द-शिल्पों को तराशने की ऊर्जा के संचार से सृजन पथ निर्मित हुआ और सतत् लेखन के आयाम उभरने लगे...
मेरे गुरु-पिता श्री रमेश वारिद साहब सतत् रूप से कला-साहित्य, संस्कृति तथा पुरातात्विक और इतिहास से सन्दर्भित शोध लेखन को समर्पित रहे। उनका इतिहास-कला और पुरातत्व विषयक गहन लेखन हाड़ौती अंचल की थाती है।
वे सृजनात्मक सन्दर्भों को समर्पित रह कर सृजन परिवेश को संरक्षित और विकसित करने हेतु निरन्तर तत्पर रहे। उनके गीत, मुक्तक और कविता समय की साक्षी रही तो उनकी लिखी एवं प्रकाशित विस्तृत रिपोर्ट और कला-समीक्षा जीवन्तता प्रदान करती रही।
आध्यात्मिक ऊर्जा से परिपूर्ण उनका सहज, सरल और सौम्य व्यक्तित्व सदैव दिशाबोधक रहा। वे अपने गहन अध्ययन के साथ मौन साधक रहकर सृजनकर्म करते रहे। वे कला, साहित्य, आध्यात्मिक और भारतीय दर्शन के अध्येयता और प्रखर वक्ता रहे।
"सांस्कृतिक एवं पुरातात्विक वैभव" में पुरातत्वविद् रमेश वारिद के समय -समय पर लिखित एवं विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित आलेखों का संचयन है। संस्कार, संस्कृक्ति, इतिहास और पुरातत्व से सम्बन्धित इन आलेखों में उनका शोधात्मक दृष्टिकोण तो सामने आया ही है, साथ ही विषय वस्तु पर उनका गहरा अध्ययन पक्ष भी परिलक्षित हुआ है।
संस्कृति के रंग और हमारा सोच तथा देश प्रेम संस्कारों की अनोखी देन कतिपय ऐसे आलेख हैं जो अपनी प्रासंगिकता को तो दृष्टिगोचर करते ही हैं साथ ही साथ संस्कारों से समृद्ध सांस्कृतिक परिवेश से साक्षात्कार भी कराते हैं।
वैदिक देव और देवता, अग्नि को देवत्व, नटराज शिव ध्यान और शिल्प, शिव का शरभावतार, शाम्भवी विद्या शिवोपासना में आराधना के स्वर, शैव धर्म और संस्कृति, सिद्धपुर के प्राचीन सन्दर्भ, मन्दसौर के प्राचीन दुर्लभ सन्दर्भ, भगवती आराधना दुर्लभ प्राचीन हस्तलिखित ग्रन्थ टीकायें तथा भैरव उपासना परम्परा सांस्कृतिक कला संदभों में आलेख शिव और शक्ति के विविध प्रसंग शिल्प और कला के माध्यम से उभारते हैं। इन आलेखों में शैव संप्रदाय, शैव दर्शन, शिव पूजन परम्परा और पुरातात्विक - सांस्कृतिक एवं कलात्मक चिंतन गहराई से विवेचित हुआ है। साथ ही वैदिक युगीन संस्कृति में वैदिक देव और देवता का विस्तृत वर्णन भी दिया है जिसमें देव और देवता शब्द की व्याख्या भी दी गई है।
कालिदास का हिमालय के प्रति अनुराग और श्रीराम नाम की महिमा और कैवल्य प्राप्ति आलेखों में आस्था और सांस्कृतिक मूल्यों के साथ प्रकृति और मनुष्य के अन्तर्सम्बन्ध की लोकाभिव्यक्ति दृष्टिगोचर होती है।
राजस्थान के गौरवशाली इतिहास और समरांगण की आभा वीरता के प्रसंगों से भरी हुई है। इनको परिलक्षित करते हुए राष्ट्र चेतना और राजस्थान के समाचार पत्र, कला एवं साहित्य में राजस्थान की प्रेरणा, 1857 का स्वतंत्रता संग्राम और राजस्थान, 1857 स्वतंत्रता के महान योद्धा राजा बखूतार सिंह राठौड़, इतिहासकार महाकवि सूर्यमल्ल मिश्रण एवं स्वातन्त्र समर के अपराजेय सेनानी लोकमान्य बालगंगाधर तिलक आलेखों में ऐतिहासिक तथ्यों के साथ प्रसंगानुसार विवरण को उजागर करते हैं। साथ ही हाड़ा (चहुआन) राजवंश : सन्दर्भ ग्रन्थ में समीक्षात्मक दृष्टिकोण से हाड़ा वंश की ऐतिहासिकता का वर्णन मिलता है।
विश्वविख्यात राजस्थानी चित्र शैली के परिदृश्य को उभारते हुए कल्पकुंज : रंग बोध का सैलाब, दुर्लभ राजपूत चित्र शैली का मोहक संसार तथा नाथद्वारीय चित्र शैली के विकास और इतिहास का प्रामाणिक ग्रन्थ आलेखों में रंग और रेखाओं की जुगलबंदी के साथ चित्र शैली की विशेषताओं को बारीकी से वर्णित किया गया है।
राजस्थान के प्रमुख जैन तीर्थ और मन्दिर तथा दिगम्बर जैन मंदिर और तीर्थ: सेवा निष्ठा की परम्परा आलेखों में जैन धर्म, दर्शन, संस्कृति एवं कला सन्दर्भों के वैशिष्ट्य को स्थापत्य और आस्था के समन्वय के साथ उभारा गया है।
हाड़ौती अंचल अपने सांस्कृतिक वैभव और पुरातात्विक महत्व के लिए विख्यात है। संस्कृतिकर्मी एवं पुरावेत्ता रमेश वारिद साहब ने अपने लेखन के आरम्भ से ही अपनी समृद्ध संस्कृति, ऐतिहासिक गरिमा और वैभवशाली पुरासम्पदा पर विशद लेखन कार्य किया। हाड़ौती अंचल के कला, शिल्प, प्रागैतिहासिक महत्व के स्थल, धरोहर और सन्दर्भित साहित्य पर उनके इन आलेखों में कई अनछुए प्रसंग उद्घाटित हुए हैं।
हाड़ौती क्षेत्र का कला वैभव, हाड़ौती के भित्तिचित्र, हाड़ौती अंचल के कला संदर्भों में दीपक, हाड़ौती अंचल में गणगौर विषयक चित्रांकन, पाषाणकाल प्रागैतिहासिक मानव, हाड़ौती क्षेत्र के अप्रकाशित ताम्र अभिलेख, हाड़ौती अंचल के दुर्लभ प्रतिमा शिल्प, हाड़ौती अंचल में बौद्ध धर्म के वास्तु शिल्प, हाड़ौती अंचल में शैल चित्रों में नृत्य मुद्रायें, हाड़ौती अंचल की गुफाओं में रथ चित्रांकन, हाड़ौती अंचल की कार्तिकेय प्रतिमा, हाड़ौती में पुष्टिमार्गीय हस्तलिखित चित्रित ग्रन्थ, हाड़ौती अंचल में पुरातन महत्व का राजस्थान का अप्रकाशित ज्योतिष ग्रन्थ, झालावाड़ के ऐतिहासिक एवं दर्शनीय स्थल, दुर्लभ पाषाण प्रतिमाओं का संग्रह है झालावाड़ संग्रहालय, गागरोन: ऐतिहासिक परिदृश्य, चन्द्रवती नगर की एक अनूठी प्रस्तर प्रतिमा, काकूनी की सहस्त्रमुख शिवलिंग प्रतिमा, भण्डदेवरा के निर्माण पर नई शोध, कणसुआँ की अप्रकाशित भैरव प्रतिमा-शिल्प सौन्दर्य, कोटा का राजकीय संग्रहालय ऐसे आलेख हैं जिनमें विषयानुरूप सन्दर्भों की शोधपरक जानकारी उपलब्ध होती है।
अन्ततः यही कि पुरातत्वविद् रमेश वारिद के ये सभी आलेख सांस्कृतिक एवं पुरातात्विक वैभव को उजागर करते वे पृष्ठ हैं जिनमें आंचलिक विशेषताओं की आभा है तो लोक संवेदना की भावभूमि भी है, स्थापत्य का लालित्य है तो पुराकाल की पृष्ठभूमि भी है, कला सन्दर्भों का अनुनाद है तो बतियाते चित्रों की श्रृंखला भी है।
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