श्री लक्ष्मीनाथ झा के द्वारा संगृहीत मैथिल लोकचित्रकला के नमूनों का यह प्रकाशन हमारे देश की सद्यः प्रस्फुटित सांस्कृतिक चेतना में एक नये मोड़ का परिचायक है।
सन् १९६० में जब श्री झा ने ये चित्र मुझे दिखाये तो मैं विभोर हो गया। किन अछूती कल्पनाओं, किन अपरिचित आह्लादों, किन अज्ञात कौशल-सम्पन्न अंगुलियों के सहारे उत्तर कर रेखाओं और रंगों की ये अप्सरियों प्रांगणों, देहलियों और कोठरियों में, युगों से नर्तन करती रही है? क्या इन्हें छापाखाने के निर्मम पथ द्वारा प्रकाशन के उस चौराहे पर ला खड़ा करना उचित होगा, जहाँ अभिजात कला के पोषक मर्मज्ञों एवं आलोचकों की वक्रदृष्टि और आधुनिक जीवनचर्या की उपेक्षा-दृष्टि उन्हें अनावृत कर सके? असूर्यम्पश्य राजदाराओं-सी ये अलंकृत विभूतियों पथ के ठीकरों की भाँति छिन तो न हो जायेंगी, युग के प्रखर और निर्मम प्रकाश के नीचे? इस शंका से कुछ दिन मैं डगमगाता रहा। बहुत कुछ सोचने के बाद मैंने श्री झा को सलाह दी कि वे इस संग्रह को अवश्य प्रकाशित करें, और कुछ समय बाद इसके अंग्रेजी संस्करण के प्रकाशन की भी व्यवस्था करें। आज उनके प्रयास के प्रथम सोपान को पूरा होते देख कर मुझे विशेष संतोष का अनुभव हो रहा है।
आधुनिक कला गुमराह हो या न हो, इतना हो स्पष्ट ही है कि वह नई दिशाओं, नयी आयाम की खोज में है। इसीलिए भारतवर्ष का तरुण कलाकार परम्परागत अभिजात शैलियों से मुकर कर पेरिस और मेक्सिको की अतिरंजनाओं और असम्बद्धताओं में आत्मीयता खोजता है। अजंता और मुगल-शैली की रमणीयता उसे स्त्रैण लगती है, एकेडेमिक शैली का यथातथ्य उसे फोटोग्राफी जान पड़ती है। प्रभाववादियों का रंगसौष्ठव उसे बचकाना प्रतीत होता है। ऐसी परिस्थिति में, भारतवर्ष की ही धरती में उपजी कोई ऐसी कला-प्रवृत्ति, जो शास्त्र के भार से मुक्त हो, टेक्निकल सिद्धान्तों और विवादों से परे हो, और वाक्य कल्पना के स्तर से उतर कर सामान्य जीवन में रमती रही हो, शायद भारतीय चितेरों की नई पीढ़ी को अनुप्राणित कर सके। मिथिला की लोक-चित्रकला के इन नमूनों में जहाँ एक निराली सादगी और भोलापन है, वहाँ आधुनिकतम कला की दो प्रमुख विशिष्टतायें भी अनायास ही मुखर हैं। एक तो वृत्त, त्रिकोण, आयत आदि आकारों का संतुलन, डिजाइन एवं अलंकरण के उन प्रयोगों का आभास देता है जिन पर ऐसे आधुनिक कलाकार भी निछावर हो जाते हैं जो अर्द्धचेतना (सब-कांशस) के गहरों के निवासी हैं। दूसरे, मिथिला के ये लोकचित्र संकेतों के कलात्मक वाहन है। श्री झा की टिप्पणियों के अनुसार ये संकेत स्थूल जीवन के क्रियाकलापों और पदार्थों को ही नहीं बताते, सूक्ष्म अनुभूतियों एवं आध्यात्मिक धाराओं को भी प्रदर्शित करते हैं। ये चित्र भंगिमाये है विस्मय, क्षोभ एवं आनन्द की उन प्रतिक्रियाओं की, जो प्रकृति एवं समाज के सम्पर्क में मिथिला के स्त्री-पुरुषों के अंतस्तल में प्रदीप्त होती हैं। संकेतों की ऐसी मणिप्रवाल-संयुक्त वाणी की आजकल के कलाकार को विशेष चाह है। शायद यह संग्रह आधुनिक संकेतों की भाषा के अन्वेषकों को कुछ मदद दे सके।
ऐसे प्रकाशनों का दूसरा उपयोग सामाजिक नवनिर्माण में हो सकता है। मिथिला के इन चित्रों को लोक-कला की संज्ञा दी जाय अथवा गृहकला की, यह प्रश्न मेरे मन में अकसर उठा है। जो भी हो, ये चित्र एक ऐसे सामाजिक जीवन के अंग हैं जिसमें गृहकृत्य और गृहोत्सवों की कक्षा (ऑर्बिट) में, व्यक्ति उपग्रहों की भाँति घूमते रहते हैं। आज ये कक्षाएँ तिरोहित हो चली हैं। कुटुम्ब के सूत्र छिन्न-भिन्न हो रहे हैं। अगणित स्वतंत्र पथों में विचरता हुआ व्यक्ति संयुक्त परिवार के बन्धनों से मुक्त होकर भी नई जंजीरों में बँध रहा है। इस विश्रृंखलता का एक परिणाम यह हुआ है कि गृह-जीवन में रमी हुई रसप्रवाहिनी आनन्ददायिनी कला भी निर्जीव हो चली है और नये सामाजिक विधान में वह निष्प्रयोजनीय जान पड़ती है। मिथिला के उस गृह-जीवन का पुनर्निर्माण, जिसकी धड़कन इन चित्रों में व्याप्त है, अब तो असम्भव प्रतीत होता है। किन्तु उस गृह-जीवन के कई ऐसे पहलू है, कुछ ऐसे चिरनवीन क्रियाकलाप है, जो नये समाज में न केवल शामिल किये जा सकते हैं, बल्कि उसे बहुरंगी सज्जा और विविध स्वरपूर्ण वाणी से समृद्ध कर सकते हैं। जिन कुमारियों के हाथों से मिथिला के गृहोत्सव सम्पन्न होते थे और ये आकर्षक आलेपन और चित्र घरों में बनाये जाते थे, आज वे पाठशालाओं, विद्यालयों और क्लबों में साधना और मनोरंजन उपलब्ध करती हैं।
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