किसी भी साहित्य के अध्ययन का केन्द्र व्यक्ति और समाज होता है। साहित्यकार भी एक व्यक्ति है। व्यक्ति के व्यक्तित्व का निर्माण एवं परिमार्जन आदि परिवार में ही होता है। स्वाभाविक है कि साहित्यिक के व्यक्तित्व गठन में भी उसका समाज, एवं परिवार का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। वर्ष 2022-23 के दौरान हमारे प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने 'वसुधैव कुटुंबकम् का नारा दिया था। रीति, प्रीति, जाति नीति, आदि सामाजिक समस्याओं का साहित्य जऔर समाज में घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है। विशेष करके साहित्य में उपन्यासों का महत्व ज्यादा रहा है। उपन्यास जीवन और जगत की विविध समस्याओं को उजागर करनेवाला सबसे समर्थ साधन माना गया है।
यह सच है कि साहित्यकार हमेशा समय की विसंगतियों, कुरिवाजों, एवं जाति पाँति के भेदभाव पर बराबर लिखते हैं। कहीं न कहीं रीतिरिवाज, विसंगतियों से असंतुष्ट हुई है। इन सब बारीकियों को समझते हुए डॉ. दिप्ती ने जगदीशचन्द्र के उपन्यासों पर दलित जीवन पर गंभीरता से कार्य किया है। साहित्यकार जब समाज की बात को उजागर करने के लिए अपनी कलम उठाता है, तब कहीं न कहीं उन हालातों को झेलता है, और भोगता है। या फिर आधुनिक दलित जीवन की साहजिक सच्चाई का सामना करता है। डॉ. दिप्ती ने दलित साहित्य को समझने के लिए विविध सेमिनारों, पुस्तकों, पत्र-पत्रिकाओं एवं दलितों के साथ हो रहे अन्याय का विवरण आदि को यथा संभव समझने का प्रयास किया है। इसलिए शास्त्र के चक्कर में न फंसकर दिप्ती ने जगदीशचन्द्र के उपन्यास एवं उनके दलित जीवन पर सम्यक प्रकाश डाला है।
डॉ. दिप्ती बहन ने इस पुस्तक को कुल सात अध्यायों में विभाजित किया है। 'धरती धन अपना' में विभिन्न दृष्टि कोणों से वर्णभेद की सामाजिक एवं दलित जीवन की समस्या पर प्रकाश डाला है। मनुकाल के दौरान भारत में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र आदि वर्ण व्यवस्था स्थापित हुई, यानी व्यवस्था चार वर्णों में विभाजित की गई है। किन्तु चौथे वर्ण शूद्र में तीन सौ से अधिक जातियाँ हैं।
दलित साहित्य की व्युत्पत्ति एवं अवधारणा को समझाने के लिए 'दलित' शब्द की उत्पत्ति को समझना आवश्यक है। डॉ. दिप्ती ने दलित शब्द की व्युत्पत्ति के संदर्भ में विभिन्न शब्दकोशों का अर्थ समझाने की कोशिश की है। इस प्रकार हिन्दी, संस्कृत एवं अंग्रेजी भाषा में दलित के लिए विभिन्न शब्दों का प्रयोग किया गया है। डॉ. दिप्ती ने दलित साहित्य का अर्थ बताने के लिए कई भौगोलिक क्षेत्रों का सर्वेक्षण भी किया है। यहाँ पर डॉ. दिप्ती ने दलित शब्द की अनेक प्रकार से मिली-जुली परिभाषाओं का उपयोग किया है।
वर्तमान समय में 'दलित' शब्द चर्चा का विषय बना हुआ है। दलित साहित्य एवं उनके जीवन समता, स्वतंत्रता एवं बंधुत्व भावना का पक्षधर है। जैसे डॉ. दिप्ती ने लिखा है कि दलित साहित्य का मूल प्रेरणास्रोत डॉ. अंबेडकर की विचार धारा एवं साहित्य है।
डॉ. दिप्ती बहन ने प्रथम अध्याय में जगदीशचन्द्र के परिवार का ब्यौरा प्रस्तुत किया है। जगदीशचन्द्र के परिवार एवं वैवाहिक जीवन उनके परिवार की बात करके उनकी संतानों के बारे में भी विशद चर्चा की है। उपन्यास का मूल ढांचा परिवार से एवं सामाजिक सरोकार से शुरू होता है। डॉ. दिप्ती बहन ने जगदीशचन्द्र का जन्म एवं परिवार की बात करके इस पुस्तक को पूर्णतः न्याय प्रदान किया है। जगदीशचन्द्र का जीवन स्वतंत्र एवं पत्रकारिता से प्रारंभ हुआ है। इनके कार्यक्षेत्र दिल्ली, जालंधर, श्रीनगर तथा ग्वालियर की बात भी डॉ. दिप्ती जी ने पाठकों के सामने व्यक्त की है।
डॉ. दिप्ती बहन ने जगदीशचन्द्र के उपन्यास के माध्यम से समाज में व्याप्त जातीय, बंधन, आर्थिक शोषण, जातीय भेदभाव, छुआछूत, राजनैतिक वैषम्य, नारी के प्रति हीन भावना ने इनके मन में प्रबल आक्रोश पैदा किया। लेखक की औपन्यासिक रचनाएँ 'यादों के पहाड़, 'धरती धन न अपना', 'आधा पुल, मुट्ठी भर कॉकर', 'कभी न छोड़ें खेत', 'टुण्डा लाट', 'घास गोदाम', 'नरक कुण्ड में बास', 'जमीन अपनी तो थी' आदि उपन्यासों में जगदीशचन्द्र के जीवन का दर्शन देखने को मिलता है। इनके उपर्युक्त सभी उपन्यासों में केवल 'जमीन अपनी तो थी' उनकी मृत्यु के बाद प्रकाशित हुआ।
जगदीशचन्द्र का पहला कहानी संग्रह पंद्रह कहानियों का संकलन है। इस कहानी संग्रह में भी डॉ. दिप्ती जी ने जगदीशचन्द्र के जीवन की समग्रलक्षी बारीकियाँ व्यक्त करने की सफल कोशिश की है। इस प्रकार लेखक के बहु आयामी व्यकितत्व एवं कृतित्व पर प्रकाश डाला है।
डॉ. दिप्ती बहन ने द्वितीय अध्याय में दलित शब्द का अर्थ परिभाषा एवं स्वरूप को निरूपित किया है। लेखिका ने दलित साहित्य की अवधारणा को समझने के लिए 'दलित' शब्द को समझाकर उनकी अवधारणा को समझाने की कोशिश की है। डॉ. दिप्ती ने हिन्दी भाषा में दलित शब्द के विभिन्न पर्याय अनुसार शोषित एवं शोषण पर प्रकाश डाला है। सामाज की ओर से भी सवर्णों द्वारा जिनका पराजय एवं दमन किया गया है उन पर भी अपना विचार व्यक्त करके दलितों को न्याय देने की कोशिश की है।
तृतीय अध्याय में डॉ. दिप्ती बहन ने सामाजिक परिवेश में अनेक वर्ण एवं विभिन्न जातियों के अस्तित्व पर आधारित परंपरागत व्यवसायों में संलग्न का आधार प्रस्तुत किया है। इस अध्याय में दलित शब्द का अर्थ एवं विकास की व्युत्पत्ति पर अपना गहरा मंथन पेश किया है। दलित साहित्य एवं दलित उपन्यास वे हैं जिनमें दलितों की आपबीती का वर्णन किया हो, इस तरह डॉ. दिप्ती ने दलित साहित्य पर अपनी गहरी सोच का ब्यौरा प्रस्तुत किया है।
वर्तमान समय को नजर में रखकर दलित साहित्य को डॉ. दिप्ती ने कथित निम्न जातियों या उन्हीं की भाँति आर्थिक सांस्कृतिक, शैक्षिक पिछड़े हुए अन्य सभी मनुष्यों के लिए अपना आकलन पेश किया है। हिन्दी में दलित साहित्य को लेकर दलित एवं गैर दलित बुद्धि जीवियों का तर्क बताकर दलित ही वास्तविक साहित्य को न्याय प्रदान कर सकते हैं. इस बात को शत प्रतिशत सत्य बताकर डॉ. दिप्ती ने दलितों की भावनाओं को समझने की कोशिश की है।
चतुर्थ अध्याय में डॉ. दिप्ती ने दलित समाज का अर्थ एवं उनकी समस्या पर गम्भीर चर्चा की है। समाज में निम्न एवं कुचले गये शोषित लोगों के लिए दलित शब्द का प्रयोग होने लगा है। सामाजिक तरीके से दलित उस जाति या समुदाय को कहा जायेगा, जिसका दलन अन्यायपूर्ण तरीकों से उच्च जातियों द्वारा हुआ हो इस वर्ग के लोगों को विभिन्न समय में विभिन्न प्रकार से अनेक नामों से संबोधित किया गया है। इन सभी जातियों के साथ अपमान या अ-समान सूचक भावों को संयुक्त करके, अब इन तमाम की गणना दलित वर्ग के अंतर्गत हो रही है। इन सभी उपर्युक्त बातों को डॉ. दिप्ती जी ने अपने तरीके से अपनी पुस्तक के माध्यम से समझाने की कोशिश की है। अस्पृश्यता की समस्या के कारण एक पृथक समाज के रूप में उनको मुहल्ले या गाँव नगर के बाहर कर देना, अब यह धीरे-धीरे दूषण दूर हो रहा है। मगर अनेक गाँवों में आज भी यही स्थिति पायी जाती है, इस बात का उल्लेख भी डॉ. दिप्ती ने अपनी पुस्तक में किया है।
डॉ. दिप्ती बहन ने पंचम अध्याय में उपन्यास की परिभाषा, स्वरूप, दलित समाज का उद्भव को व्यक्त किया है। दलित समाज का प्रमुख स्वर, दलितों की पीड़ा, यातना, घुटन, प्रति हिंसा, अत्याचार, छुआछूत की भावना, जातिवाद, संवेदना, व्यथा, सामाजिक, असहिष्णुता, मंदिर प्रवेश निषेध, देव-देवियों की पूजा का निषेध, आर्थिक एवं सांस्कृतिक परिस्थितियों में परिवर्तन लाने का कार्य दलित उपन्यासकारों ने किया है। इस बात पर डॉ. दिप्ती ने हर संभव प्रयास किया है।
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