मध्यप्रदेश का दमोह जिला भौगोलिक रूप से विंध्य क्षेत्र का भाग होकर भी सांस्कृतिक दृष्टि से बुंदेलखंड का महत्वपूर्ण भाग रहा है। देश के स्वाधीनता आंदोलन में दमोह जिले के सेनानियों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। 1842 ई. के बुंदेला प्रतिरोध से लेकर सन् 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन व उसके उपरांत हुए आंदोलनों में दमोह के जन मानस ने बढ़-चढ़कर भाग लिया और बलिदान दिया।
इससे पूर्व मराठा पेशवा बाजीराव द्वारा महाराजा छत्रसाल को दी गई मदद के बदले महाराजा द्वारा दमोह का क्षेत्र पेशवा को उपहार स्वरूप देने के कारण दमोह मराठों के प्रभुत्व में आ गया था। किन्तु 1818 में मराठों से हुए निर्णायक युद्ध के पश्चात इस संपूर्ण भाग को अंग्रेजों ने ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया।
ब्रिटिश प्रभाव में आ जाने के बाद इस क्षेत्र में भू-राजस्व की जो व्यवस्थाएँ की गई, उससे स्थानीय जनता, शासकों और जमींदारों आदि में संतोष व्याप्त था जिसकी परिणिति बुंदेला क्रांति के रूप में हुई। बुंदेला क्रांति का दमन तो कर दिया गया लेकिन अंसतोष की दबी हुई चिनगारी 15 वर्षों बाद 1857 की महान क्रांति के रूप में प्रस्फुटित हुई। सागर, दमोह, जबलपुर आदि क्षेत्रों में क्रांति की घटनाएँ वायु वेग से घटित हुई और झाँसी में हुई क्रांति की घटनाओं ने यहाँ उत्साह का संचार किया। इसीलिए अंग्रेजों ने भी माना कि सितम्बर 1857 के अंत तक सागर नर्मदा के लगभग संपूर्ण भाग में क्रांति की स्थितियाँ थीं जिसमें दमोह भी शामिल था।
दमोह जिले में इस क्रांति के प्रमुख नायक हिंडोरिया के ठाकुर किशोर सिंह के अलावा मानगढ़ के राजा गंगाधर सिंह, सिंगरामपुर के राजा देवीसिंह, अभाना के राजा तेज सिंह, कारीजोग के पंचम सिंह राठौर, किशनगंज के सूबेदार रघुनाथ राव, मंडन गुरु, सूबेदार गोविंद राव आदि थे।
20वीं सदी के प्रथम दशक में दमोह में राजनीतिक चेतना पुनः जाग्रत हुई, जब स्वदेशी आंदोलन, बहिष्कार व मद्यनिषेध आंदोलन में यहाँ के विद्यार्थियों और अग्रणी नेताओं ने भाग लेना शुरू किया। गांधीजी के द्वारा चलाए गए देशव्यापी आंदोलनों का व्यापक प्रभाव दमोह जिले में भी देखने को मिला। सविनय अवज्ञा आंदोलन के समय यहाँ जंगल सत्याग्रह सफलतापूर्वक किया गया। जिसमें सिंघई गोकुल वकील, तपस्वी सुंदरलाल तथा दादाभाई नाईक आदि ने महत्वपूर्ण योगदान दिया। स्वतःस्फूर्त भारत छोड़ो आंदोलन में प्रेम शंकर धगट, रघुवर प्रसाद, प्रभु नारायाण टंडन व रावजी भाई सहित अनेकानेक सेनानियों ने महती भूमिका निभाई।
दमोह जिले में हुए स्वाधीनता आंदोलन का एक पक्ष गांधीजी द्वारा हरिजनों के कल्याण के लिए चलाया गया कार्यक्रम भी था। अछूतोद्धार के इस कार्यक्रम के अंतर्गत गांधीजी 2 दिसम्बर, 1933 को दमोह आए थे जहाँ उन्होंने आंदोलन के लिए कोष इकट्ठा किया था और बाल्मिकी बस्ती में मंदिर का शिलान्यास भी किया था। इस प्रकार दमोह जिले के स्वाधीनता आंदोलन का इतिहास रचनात्मक और क्रांतिकारी आंदोलन का इतिहास रहा है।
प्रस्तुत पुस्तक 'मध्यप्रदेश में स्वाधीनता संग्राम-दमोह', स्वराज संस्थान संचालनालय की महत्वाकांक्षी परियोजना का परिणाम है जिसके अंतर्गत मध्यप्रदेश के समस्त जिलों के स्वाधीनता आंदोलन के इतिहास पर विस्तृत शोधकार्य कर उन्हें प्रकाशित किया जा रहा है। परियोजना से जुड़े विद्वतजनों तथा स्वराज संस्थान संचालनालय के सहयोगियों का हृदय से आभार व्यक्त करता हूँ।
विश्वास है कि यह पुस्तक दमोह जिले के स्वाधीनता संग्राम के अल्पज्ञात पक्षों, गुमनाम स्वातंत्र्य वीरों के कृतित्व पर प्रकाश डालने में सफल सिद्ध होने के साथ जनमानस तक स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़े तथ्यों, विचारों एवं कार्यों का भी प्रचार-प्रसार करेगी।
मध्यप्रदेश के अंतर्गत महाकौशल का यह भाग सागर-नर्मदा टेरीटरी के नाम से इतिहास में ख्यात है। यह नर्मदा नदी घाटी के उत्तर में स्थित है एवं विंध्यन कगारी प्रदेश के भाग के रूप में एक पठारी क्षेत्र है। विंध्यन शैल समूह के अंतर्गत कैमूर एवं भांडेर की पहाड़ी श्रृंखलाएँ यहाँ फैली हुई हैं। मुख्य रूप से सोनार एवं बैरमा नदियों की समतल भूमि ने इस क्षेत्र को जीवंतता दी है। इसके उत्तरी भाग में बुंदेलखंड का पठारी प्रदेश है, जिसने दमोह के इतिहास को व्यापक रूप से प्रभावित किया है। दक्षिण में स्थित नर्मदा घाटी ने इस प्रदेश को ऐतिहासिक रूप से भरपूर अपनाया है। विंध्यन क्षेत्र में रीवा, सतना, पन्ना, दमोह एवं सागर का कुछ भाग समाहित होता है। यह क्षेत्र प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर है। सोनार- बैरमा नदियों के दोआब का क्षेत्र इस इलाके की भूमि को उपजाऊ बनाता है। यही कारण है कि इस क्षेत्र में विभिन्न राजवंशों ने लंबे समय तक शासन किया एवं इस क्षेत्र को अपने राज्य का भाग बनाये रखने हेतु संघर्ष किया।
अभिलेखों से ज्ञात होता है कि मौर्यों, गुप्तों एवं वर्धन राजवंश के पश्चात इस क्षेत्र पर कुछ समय कलचुरि राजवंश का अधिकार रहा। यहाँ प्राप्त सती अभिलेखों से पता चलता है कि कुछ समय तक चंदेलों का भी दमोह पर अधिकार रहा। प्रतिहारों एवं राष्ट्रकूटों के आधिपत्य के प्रमाणों से पता चलता है कि दमोह, क्षेत्रीय संघर्ष की भूमि का भाग रहा। सल्तनत काल में खिलजी एवं तदोपरांत तुगलक शासकों ने इस क्षेत्र को अपने अधीन रखकर आर्थिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से प्रभावित किया। मालवा के सुल्तानों, गोंडों, एवं बुंदेलखंड के शासक छत्रसाल के पश्चात दमोह, मराठा पेशवाओं के अधीन रहा। तदुपरांत मराठों से यह क्षेत्र अंग्रेजों ने हस्तगत कर लिया।
अंग्रेजी राजसत्ता के अधीन यह क्षेत्र सागर-नर्मदा टेरीटरी कहलाया। अंग्रेजों ने सागर में छावनी स्थापित की तथा दमोह को मुख्यालय बनाया। अंग्रेजों द्वारा इस क्षेत्र में व्यापक स्तर पर सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन किये गये, जिसके फलस्वरूप बेदखल भूमि स्वामियों ने बुंदेला प्रतिरोध कर अपनी स्वंतत्रता के लिये संघर्ष प्रारम्भ किया। सन् 1857 की महान क्रांति में भी इस क्षेत्र ने बढ़-चढ़ कर भाग लिया।
अंग्रेजों के खिलाफ राष्ट्रीय आंदोलन के विकास के सभी चरणों में दमोह की जनता ने सक्रिय योगदान दिया। महात्मा गांधी ने भी इस जिले के कई दौरे किये। स्वदेशी आंदोलन से लेकर भारत छोड़ो आंदोलन तक सभी आंदोलनों में दमोह के सेनानियों ने बढ़-चढ़कर भाग लिया, कष्ट सहे, जेल गये और बलिदान दिये। इस प्रकार दमोह जिले में स्वाधीनता आंदोलन का एक गौरवशाली इतिहास रहा।
मध्यप्रदेश में स्वाधीनता संग्राम के अंतर्गत दमोह जिले में हुए स्वाधीनता संग्राम पर इस शोध कार्य हेतु विभिन्न संदर्भग्रंथों, पुस्तकों, दस्तावेजों एवं अभिलेखों का अध्ययन किया गया तथा व्यक्तिगत रूप से दमोह के विभिन्न स्थानों का भ्रमण भी किया गया। स्वाधीनता आंदोलन में भाग लेने वाले स्वाधीनता संग्राम सेनानियों के परिवार के लोगों से संपर्क कर उनसे जानकारी प्राप्त की गई। अभिलेखागारों का भ्रमण कर वहाँ से जानकारियाँ एवं छायाचित्र प्राप्त किये गये, आवश्यकतानुरूप अनुवाद भी किये गये। तदनुसार ही आवश्यक दस्तावेजों, पुस्तकों, लेखों, साक्षात्कार से प्राप्त जानकारियों एवं व्यक्तिगत निरीक्षणों से प्राप्त तथ्यों के आधार पर शोध प्रबंध का लेखन किया गया।
प्रस्तुत शोध कार्य को सफल बनाने में जिन महानुभावों ने सहयोग प्रदान कर प्रमुख भूमिका निभाई, मैं उनका आभार प्रकट करती हूँ। सर्वप्रथम माननीय श्री संतोष सिंघई ने दमोह जिले के स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के संबंध में महत्वपूर्ण जानकारियाँ प्रदान की। डॉ. आर. एन. श्रीवास्तव, जबलपुर की आभारी हूँ, जिनके बहुमूल्य सुझावों ने मुझे इस कार्य को करने में महती सहायता की एवं आवश्यक संदर्भ ग्रंथ उपलब्ध कराने में भी उन्होंने बहुत मदद की। तत्कालीन आयुक्त (अभिलेखागार), श्रीमति शिल्पा गुप्ता, आई.ए.एस. ने महत्वपूर्ण दस्तावेज उपलब्ध कराने हेतु जो महती सहयोग प्रदान किया उसके लिए मैं उनका भी आभार व्यक्त करती हूँ।
अभिलेखागार में पदस्थ अधिकारियों एवं कर्मचारियों का भी धन्यवाद करती हूँ कि उन्होंने इतने विशाल अभिलेखागार से आवश्यक दस्तावेज उपलब्ध कराने हेतु भरपूर श्रम किया। साथ ही मैं मेरे पति श्री आशीष जैन का आभार प्रकट करती हूँ जो हर कदम पर मेरे साथ खड़े रहे तथा जिन्होंने अध्ययन, अनुवाद, टंकण, भ्रमण एवं छायाचित्र प्राप्ति आदि कार्यों में सहयोग प्रदान किया।
यह पुस्तक 'मध्यप्रदेश में स्वाधीनता संग्राम दमोह' जिले के लगभग सभी ज्ञात एवं अज्ञात अमर बलिदानियों और स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के प्रति विनम्र श्रद्धांजलि स्वरूप समर्पित है। मैं स्वराज संस्थान संचालनालय, संस्कृति विभाग, मध्यप्रदेश की भी विशेष आभारी हूँ तथा इस पुस्तक में प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से सहयोग के लिए सभी का धन्यवाद ज्ञापित करती हूँ।
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