दशरथनंदन श्रीराम: Dashrathnandan Shri Rama

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Item Code: NZA984
Author: चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य (Chakravarti Rajgopalacharya)
Publisher: Sasta Sahitya Mandal Prakashan
Language: Hindi
Edition: 2022
ISBN: 9788173093692
Pages: 312
Cover: Paperback
Other Details 8.5 inch X 5.5 inch
Weight 350 gm
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Book Description

प्रकाशकीय

हिन्दी के पाठक वाल्मीकि तथा तुलसीदास की रामायणों से सुपरिचित हैं, लेकिन दक्षिण भारत में अनेक रामायणों की रचना हुई है। उनमें तमिल के महान कवि कंबन की रामायण के उत्तर भारत के पाठक भी कुछ-कुछ परिचित हैं । उनका कथानक लगभग वही है, जो वाल्मीकि अथवा तुलसीदास की रामायणों का है, किंतु वर्णनों में यत्र-तत्र कुछ अंतर हो गया है। कहीं-कहीं घटनाओं की व्याख्या में कंबन ने अपनी विशेषता दिखाई राजाजी-जैसे समर्थ लेखक ने यह पुस्तक रामायण के तीन संस्करणों अर्थात् वाल्मीकि, तुलसी तथा कंबन के अध्ययन के पश्चात् प्रस्तुत की है। अनेक घटनाओं का वर्णन किस प्रकार किया है और किसमें क्या विशेषता है। पाठकों के लिए यह तुलनात्मक विवेचन बड़े काम का है।

पुस्तक का अनुवाद मूल तमिल से श्रीमती लक्ष्मी देवदास गांधी ने किया है। विद्वान् लेखक की अत्री होने के कारण इस कृति से उनकी आत्मीयता होना स्वाभाविक है, लेकिन इतनी बड़ी पुस्तक का इतना सुंदर अनुवाद, बिना उसके रस में लीन हुए, संभव नहीं हो सकता था। लक्ष्मीबहिन की मातृभाषा तमिल है, पर हिन्दी पर उनका विशेष अधिकार है। इस पुस्तक के अनुवाद में उन्होंने जो असाधारण परिश्रम किया है, उसके लिए हम उनके आभारी हैं।

हमें पूर्ण विश्वास है कि यह पुस्तक सभी क्षेत्रों और सभी वर्गों में चाव से पढ़ी जायगी।

प्रस्तावना

परमात्मा की लीला को कौन समझ सकता है! हमारे जीवन की सभी घटनाएं प्रभु की लीला का ही एक लघु अंश है।

महर्षि वाल्मीकि की राम-कथा को सरल बोलचाल की भाषा में लोगों तक पहुंचाने की मेरी इच्छा हुई। विद्वान् न होने पर भी वैसा करने की धृष्टता कर रहा हूं। कंबन ने अपने काव्य के प्रारंभ में विनय की जो बात कही है, उसीको मैं अपने लिए भी यहां दोहराना चाहता हूं। वाल्मीकि रामायण को तमिल भाषा में लिखने का मेरा लालच वैसा ही है, जैसे कोई बिल्ली विशाल सागर को अपनी जीभ से चाट जाने की तृष्णा करे। फिर भी मुझे विश्वास है कि जो श्रद्धा-भक्ति के साथ रामायण-कथा पढूगा चाहते हैं, उन सबकी सहायता, अनायास ही, समुद्र लांघनेवाले मारुति करेंगे। बड़ों से मेरी विनती है कि वे मेरी त्रुटियों को क्षमा करें और मुझे प्रोत्साहित करें, तभी मेरी सेवा लाभप्रद हो। सकती है। समस्त जीव-जंतु तथा पेडू-पौधे दो प्रकार के होते हैं । कुछ के हड्डियां बाहर होती है और मांस भीतर। केला, नारियल, ईख आदि इसी श्रेणी मे आते हैं । कुछ पानी के जंतु भी इसी वर्ग के होते हैं। इनके विपरीत कुछ पौधों और हमारे-जैसे प्राणियों का मांस बाहर रहता है और हड्डियां अंदर। इस प्रकार आवश्यक प्राण-तत्त्वों को हम कहीं बाहर पाते हैं, कहीं अंदर ।

इसी प्रकार ग्रंथों को भी हम दो वगों में बांट सकते हैं। कुछ ग्रंथों का प्राण उनके भीतर अर्थात् भावों में होता है, कुछ का जीवन उनके बाह्य रूप में। रसायन, वैद्यक, गणित, इतिहास, भूगोल आदि भौतिक-शास्त्र के ग्रंथ प्रथम श्रेणी के होते है। भाव का महत्व रखते हैं। उनके रुपांतर से विशेष हानि नहीं हो सकती, परंतु काव्यों की बात दूसरी होती है। उनका प्राण अथवा महत्व उनके रूप पर निर्भर रहता है। इसलिए पद्य का गद्य में विश्लेषण करना खतरनाक है।

फिर भी कुछ ऐसे ग्रंथ हैं, जो दोनों कोटियों में रहकर लाभ पहुंचाते हैं। जैसे तामिल में एक कहावत है-'हाथी मृत हो या जीवित, दोनों अवस्थाओं में अपना मूल्य नहीं खोता । 'वाल्मीकि-रामायण भी इसी प्रकार का ग्रंथ रत्न है; उसे दूसरी भाषाओं में गद्य में कहें या पद्य में, वह अपना मूल्य नहीं खोता।

पौराणिक का मत है कि वाल्मीकि ने रामायण उन्हीं दिनों लिखी, जबकि श्रीरामचन्द्र पृथ्वी पर अवतरित होकर मानव-जीवन व्यतीत कर रहे थे, किन्तु सांसारिक अनुभवों के आधार पर सोचने से ऐसा लगता है कि सीता और राम की कहानी महर्षि वाल्मीकि के बहुत समय पूर्व से भी लोगों में प्रचलित थी, लिखी भले ही न गई हो। ऐसा प्रतीत होता हे कि लोगों में परंपरा से प्रचलित कथा को कवि वाल्मीकि के काव्यबद्ध किया । इसी कारण रामायण-कथा में कुछ उलझनें जैसे बालि का वध तथा सीताजी को वन में छोड़ आना जैसी न्याय-विरुद्ध बातें घुस गई हैं ।

महर्षि वाल्मीकि ने अपने काव्य में राम को ईश्वर का अवतार नहीं माना। हां, स्थान-स्थान पर वाल्मीकि की रामायण में हम रामचन्द्र को एक यशस्वी राजकुमार, अलौकिक और असाधारण गुणों से विभूषित मनुष्य के रूप में ही देखते हैं। ईश्वर के स्थान में अपने को मानकर राम ने कोई काम नहीं किया ।

वाल्मीकि के समय में ही लोग राम को भगवान मानने लग गये थे। वाल्मीकि के सैकड़ों वर्ष पश्चात् हिन्दी में संत तुलसीदास ने और तमिल के कंबन ने राम-चरित गाया। तबतक तो लोगों के दिलो में यह पक्की धारणा बन गई थी कि राम भगवान नारायण के अवतार थे। लोगों ने राम में और कृष्ण में या भगवान विष्णु में भिन्नता देखना ही छोड़ दिया था। भक्ति-मार्ग का उदय हुआ। मंदिर और पूजा-पद्धति भी स्थापित हुई।

ऐसे समय में तुलसीदास अथवा कंबन रामचंद्र को केवल एक वीर मानव समझकर काव्य-रचना कैसे करते? दोनों केवल कवि ही नहीं थे, वे पूर्णतया भगवद्भक्त भी थे।आजकल के उपन्यासकार अथवा अन्वेषक नहीं थे। श्रीराम को केवल मनुष्यत्व की सीमा में बांध लेना भक्त तुलसीदास अथवा कंबन के लिए अशक्य बात थी। इसी कारण अवतार-महिमा को इन दोनों के सुंदर रूप में गद्गद कंठ से कई स्थानों पर गाया है। महर्षि वाल्मीकि की रामायण और कंबन-रचित रामायण में जो भिन्नताएं हैं, वे इस प्रकार हैं; वाल्मीकि-रामायण के छंद समान गति से चलनेवाले हैं, कंबन के काव्य-छंदों को हम नृत्य के लिए उपयुक्त कह सकते हैं; वाल्मीकि की शैली में गांभीर्य है, उसे अतुकांत कह सकते है; कंबन की शैली में जगह-जगह नूतनता है, वह ध्वनि-माधुरी-संपन्न है, आभूषणों से अलंकृत नर्तकी के नृत्य के समान वह मन को लुभा लेती है, साथ-साथ भक्ति-भाव की प्रेरणा भी देती जाती है; किंतु कंबन की रामायण तमिल लोगों की ही समझ में आ सकती है। कंबन की रचना को इतर भाषा में अनूदित करना अथवा तमिल में ही गद्य-रूप में परिणत करना लाभप्रद नहीं हो सकता। कविताओं को सरल भाषा में समझाकर फिर मूल कविताओं को गाकर बतायें, तो विशेष लाभ हो सकता है। किन्तु यह काम तो केवल श्री टी० के० चिदंबरनाथ मुदलियार ही कर सकते थे। अब तो वह रहे नहीं।

सियाराम, हनृमान और भरत को छोड्कर हमारी और कोई गति नहीं। हमारे मन की शांति, हमारा सबकुछ उन्हीं के ध्यान में निहित है। उनकी पुण्य-कथा हमारे पूर्वजों की धरोहर है। इसी के आधार पर हम आज जीवित हैं।

जबतक हमारी भारत भूमि में गंगा और कावेरी प्रवहमान हैं, तबतक सीता-राम की कथा भी आबाल, स्त्री-पुरुष, सबमें प्रचलित रहेगी; माता की तरह हमारी जनता की रक्षा करती रहेगी।

मित्रों की मान्यता है कि मैंने देश की अनेक सेवाएं की हैं, लेकिन मेरा मत है कि 'भारतीय इतिहास के महान एवं घटनापूर्ण काल में अपने व्यस्त जीवन की सांध्यवेला में इन दो ग्रंथों ('व्यासर्विरूंदु'-महाभारत और 'चक्रवर्ति' तिरुमगन्-रामायण) की रचना, जिनमें मैंने महाभारत तथा रामायण की कहानी कही है, मेरी राय में, भारतवासियों के प्रति की गई मेरी सर्वोत्तम सेवा है और इसी कार्य में मुझे मन की शांति और तृप्ति प्राप्त हुई है । जो हो, मुझे जिस परम आनंद की अनुभूति हुई है, वह इनमें मूर्त्तिमान है, कारण कि इन दो ग्रंथों में मैंने अपने महान संतों द्वारा हमारे प्रियजनों, स्त्रियों और पुरुषों से, अपनी ही भाषा में एक बार फिर बात करनेकुंती, कौसल्या, द्रौपदी और सीता पर पड़ी विपदाओं के द्वारा लोगों के मस्तिष्कों को परिष्कृत करने-में सहायता की है । वर्तमान समय की वास्तविक आवश्यकता यह है कि हमारे और हमारी भूमि के संतों के बीच ऐक्य स्थापित हो, जिससे हमारे भविष्य का निर्माण मजबूत चट्टान पर हो सके, बालू पर नहीं ।

हम सीता माता का ध्यान करें। दोष हम सभी में विद्यमान है। मां सीता की शरण के अतिरिक्त हमारी दूसरी कोई गति ही नहीं। उन्होंने स्वयं कहा है, भूलें किससे नहीं होतीं? दयामय देवी हमारी अवश्य रक्षा करेंगी। दोषों और कमियों से भरपूर अपनी इस पुस्तक को देवी के चरणों में समर्पित करके मैं नमस्कार करता हूं। मेरी सेवा में लोगों को लाभ मिले।

 

अनुक्रम

 

1

छंद-दर्शन

11

2

सूर्यवंशियों की अयोध्या

12

3

विश्वामित्र-वसिष्ठ संघर्ष

15

4

विश्वामित्र की पराजय

18

5

त्रिशंकु की कथा

19

6

विश्वामित्र की सिद्धि

22

7

दशरथ से याचना

25

8

राम का पराक्रम

27

9

दानवों का दलन

30

10

भूमि-सुता सीता

33

11

सगर और उनके पुत्र

34

12

गंगावतरण

36

13

अहल्या का उद्धार

39

14

राम-विवाह

42

15

परशुराम का गर्व-भंजन

45

16

दशरथ की आकांक्षा

47

17

उल्टा पांसा

52

18

कुबड़ी की कुमंत्रणा

56

19

कैकेयी की करतूत

58

20

दशरथ की व्यथा

61

21

मार्मिक दृश्य

65

22

लक्ष्मण का क्रोध

70

23

सीता का निश्चय

74

24

बिदाई

76

25

वन-गमन

79

26

निषादराज से भेंट

84

27

चित्रकूट में आगमन

87

28

जननी की व्यथा

89

29

एक पुरानी घटना

91

30

दशरथ का प्राण-त्याग

94

31

भरत को संदेश

96

32

अनिष्ट का आभास

99

33

कैकेयी का कुचक्र विफल

101

34

भरत का निश्चय

104

35

गुह का संदेह

108

36

भरद्वाज-आश्रम में भरत

111

37

राम की पर्णकुटी

114

38

भरत-मिलाप

117

39

भरत का अयोध्या लौटना

120

40

विराध-वध

126

41

दण्डकारण्य में दस वर्ष

131

42

जटायु से भेंट

136

43

शूर्पणखा की दुर्गति

137

44

खर का मरण

143

45

रावण की बुद्धि भ्रष्ट

148

46

माया-मृग

154

47

सीता-हरण

159

48

सीता का बंदीवास शोक-सागर में

166

49

निमग्न राम

171

50

पितृ-तुल्य जटायु की अंत्येष्टि

174

51

सुग्रीव से मित्रता सुग्रीव की व्यथा

179

52

राम की परीक्षा

186

53

बाली का वध

191

54

तारा का विलाप

195

55

क्रोध का शमन

200

56

सीता की खोज प्रारंभ

204

57

निराशा और निश्चय

208

58

हनुमान का समुद्र-लंघन

213

59

लंका में प्रवेश

216

60

आखिर जानकी मिल गई

221

61

रावण की याचना सीता का उत्तर

223

62

बुद्धिमता वरिष्ठम्

227

63

सीता को आश्वासन

231

64

हनुमान की विदाई

236

65

हनुमान का पराक्रम

240

66

हनुमान की चालाकी

244

67

लंका-दहन

247

68

वानरों का उल्लास

252

69

हनुमान ने सब हाल सुनाया

255

70

लंका की ओर कूच

257

71

लंका में मंत्रणाएं

260

72

रावण की अशांति

263

73

विभीषण का लंका त्याग

266

74

वानरों की आशंकाएं

269

75

शरणागत की रक्षा

272

76

सेतु-बंधु

275

77

लंका पर चढ़ाई और रावण को संदेश

287

78

जानकी को प्रसन्नता

282

79

नागपाश से चिंता और मुक्ति

285

80

रावण लज्जित हुआ

290

81

कुंभकर्ण को जगाया गया

293

82

चोट पर चोट

297

83

इंद्रजित् का अंत

300

84

रावण-वध

303

85

शुभ समाप्ति

307

86

उपसंहार

311

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