दतिया राज्य का संबंध जिस भू-भाग से रहा है मध्यकाल में उस प्रदेश का प्रचलित नाम बुंदेलखंड था, जिसकी राजधानी बेतवा नदी के किनारे ओरछा थी। दतिया राज्य बुंदेलखंड प्रांत की पश्चिमी सीमा पर स्थित था। दतिया राज्य में तत्कालीन समय में पाँच परगने सेंवढ़ा, इंदरगढ़, उराव और नंदीगांव थे। ओरछा के प्रतापी और धर्मपरायण शासक मधुकरशाह बुंदेला ने अपने जीवनकाल में ही अपने आठों पुत्रों के बीच राज्य के भागों की जागीरों का बँटवारा कर दिया था और वे अपने-अपने क्षेत्रों के शासक बन गए थे, बुंदेलखंड के विभाजन की नींव यहीं से पड़ी। मधुकरशाह के एक यशस्वी पुत्र वीरसिंह देव बुंदेला को छोटी बड़ौनी नामक स्थान जागीर में मिला था जिसमें दतिया या दतिया-राज्य का समस्त भू-भाग सम्मिलित था। वीरसिंह देव 1592 ई. में मधुकरशाह के बाद दतिया अंचल के पहले शासक हुए, इन्होंने 20 अक्टूबर, 1626 ई. को नवीन दतिया राज्य की स्थापना कर दतिया-बड़ौनी की जागीर अपने छठवें पुत्र भगवानदास बुंदेला को प्रदान की थी। कालांतर में शुभकरण बुंदेला, दलपत बुंदेला, शत्रुजीत बुंदेला और पारौक्षत बुंदेला प्रमुख शासक हुए। विजय बहादुर के समय 1857 में झाँसी और उसके आसपास महान क्रांति प्रारंभ हो चुकी थी। क्रांतिकाल में भवानी सिंह बुंदेला दतिया के शासक रहे। इनके शासनकाल में हुई प्रगति के कारण इस समय को 'दतिया का स्वर्णयुग' माना जाता है। झाँसी में हुई क्रांति को दतिया के जनमानस की पर्याप्त सहानुभूति और समर्थन प्राप्त था। इस क्रांति के दौरान दतिया अंचल में परमार एवं अन्य समकालीन क्रांतिकारियों की अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका रही। उदगुवां-कटीली के दिमान जवाहर सिंह परमार, नौनेर के दिमान रघुनाथसिंह परमार, अमीठा बिलाया के बरजोरसिंह परमार, भाण्डेर के सूबेदार उमराव सिंह, बड़ी बड़ौनी के मंशाराम गुर्जर और बुहारा के दौलतसिंह कछवाहा आदि ने इस क्रांति में महत्वपूर्ण योगदान दिया। स्वाधीनता आंदोलन के दूसरे दौर में यहाँ के जनमानस में राष्ट्रव्यापी राष्ट्रीय समझ और जनचेतना जाग्रत हुई और जनता संगठित होकर अंग्रेजों और सामंतशाही के चंगुल से मुक्त होने के लिए सचेत हो उठी। जिसके फलस्वरूप दतिया में भी लोगों ने राष्ट्रीय आंदोलनों में सक्रिय रूप से भाग लिया।
स्वराज संस्थान संचालनालय द्वारा प्रदत्त, मध्यप्रदेश में स्वाधीनता संग्राम के अंतर्गत दतिया में स्वतंत्रता आंदोलन के लेखन के इस वृहद कार्य को पूर्ण करने में सप्रे संग्रहालय, भोपाल, सेंवढ़ा के डॉ. सीताकिशोर द्वारा स्थापित 'बुंदेला शोध-संस्थान', डॉ. सुधा गुप्ता द्वारा स्थापित 'भगवानदास स्मृति शोध-संस्थान' झाँसी से प्राप्त सहयोग के लिए मैं उनका हृदय से आभारी हूँ।
स्वातंत्र्य-समर के इस लेखन कार्य में जिन विद्वानों, बुजुर्गों एवं आमजन तथा मित्रों द्वारा सहयोग मिला, ऐसे सभी सहयोगी, कृपालु, संबंधीजनों को प्रणाम करते हुए मैं उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ। विशेष रूप से भांडेर के डॉ. शंकरलाल शुक्ला एवं मानस वटोही, सेंवढ़ा के डॉ. सीताकिशोर खरे, डॉ. श्यामबिहारी श्रीवास्तव एवं डॉ. अवधबिहारी पाठक, बसई के सत्येन्द्र खरे, औरीना के कुँवर मानधाता परमार एवं अगोरा के कृष्णपाल सिंह परमार आदि द्वारा प्रदान किये गये सहयोग के लिए उनके प्रति कृतज्ञ हूँ।
दतिया नगर के प्रमुख विद्वानों में से सर्वश्री रामरतन तिवारी, प्रेमनारायण सिलापुरिया, डॉ. शफीउल्ला कुरैशी, महाराजा राजेन्द्रसिंह एवं कुँवर घनश्यामसिंह, शिवदत्त दुबे, भैयाराजा विक्रमसिंह एवं दीपक साहनी, वीरसिंह बुंदेला, रमेश गुप्ता संपादक 'दतिया प्रकाश', प्रोफेसर डॉ. आशाराम शर्मा, डॉ. राहुल, डॉ. निलय गोस्वामी, डॉ. नीखरा एवं नरेन्द्र यादव, डॉ. सुशील शर्मा, डॉ. श्रद्धा शर्मा, प्रीतम बाबू मित्रा एडवोकेट, दीवान माधौसिंह बुंदेला बंका साहब, ठाकुर लोकेन्द्रसिंह नागर समथरेश, कैलाश श्रीवास्तव, शंकर दीक्षित एवं गौरीशंकर दीक्षित का भी हृदय से आभार व्यक्त करता हूँ।
इस श्रमसाध्य कार्य को सफलतापूर्वक सम्पन्न करने में मेरे माता-पिता का सदैव आशीर्वाद रहा। मेरी पत्नी और पुत्रवधू मेरे लेखन और लिखे पृष्ठों की टाइप की भूलों को सुधारने में मदद करती रहीं, उनका भी आभार। अंत में, मैं अपने अनुज श्री सुशील पाण्डेय (भैया) का अत्यंत आभारी हूँ, जिन्होंने सतत् परिश्रम करके इस पाण्डुलिपि को तैयार किया। आत्मकथन के सारांश के रूप में, मैं माखनलाल चतुर्वेदी की सन् 1930 ई. की लिखी सुप्रसिद्ध कविता 'पुष्प की अभिलाषा' की इन पंक्तियों को उद्धृत करता हूँ-
मुझे तोड़ लेना वनमाली, उस पथ पर देना तुम फेंक। मातृभूमि पर शीश चढ़ाने, जिस पथ पर जाएं वीर अनेक । सभी के प्रति सादर आभार पूर्वक।
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