आज, श्रीराम नवमी के दिन, 'दीपशिखा कालिदास' का हिन्दी अनुवाद पूरा करते हुए मन विविध भावनाओं से भर उठा है।
सभी कुछ कितना अद्भुत! उपन्यास, उपन्यास के नायक, वह स्वर्णिम कालखण्ड, वे रचनाएँ, वे व्यक्तिरेखाएँ... और सबसे बढ़कर उपन्यास की लेखिका, जिनकी लेखनी से मोतियों जैसे शब्दों की वर्षा होती रही... मन आनन्द से झूमता रहा! शुभांगी जी से मेरा व्यक्तिगत परिचय उस समय नहीं था... उनके बारे में सुना अवश्य था। याद नहीं आता कैसे एक दिन उन्होंने पूछ लिया, 'मेरे किसी उपन्यास का अनुवाद करेंगी?' तब मैं अपने किसी काम में व्यस्त थी, अतः रुकने के लिए बाध्य थी। जब उन्होंने बताया किसी अन्य दिन कि महाकवि कालिदास पर उपन्यास लिख रही हैं, तो मेरे मुख से निकला 'कालिदास के लिए वादा किया'।
और उसके कई महीनों बाद आकर्षक रूप में कालिदास मेरे सामने थे। 'दुर्गा नवरात्रि' के प्रथम दिन!
मैंने कहा ना कि सब कुछ कितना अद्भुत रहा!
कालिदास मुझे उँगली पकड़ कर अपने काल में ले गये... मैंने अपमानित मातृगुप्त को देखा, वेत्रवती में प्रवाहित होते हुए, काली मन्दिर में लाये गये, सरस्वती आश्रम में विद्यार्जन करते हुए... और सम्राट चन्द्रगुप्त के नवरत्नों के बीच।
शुभांगी जी के लेखन में अद्भुत प्रवाह है, उन्होंने न केवल एक व्यक्ति के बारे में, अपितु पूरे कालखण्ड के बारे में लिख दिया। सम्राट चन्द्रगुप्त का शासन, उनके युद्ध, भारत को एकसंघ राष्ट्र बनाने का उनका ध्येय, भाषा और संस्कृति का निरन्तर होता हुआ विकास... और इस सबके पीछे थी प्रेम की पृष्ठभूमि...यह प्रेम ही शायद प्रत्येक व्यक्ति को अपनी सीमा में रखता था, सभी का आदर करना सिखाता था।
विभिन्न धर्मों के बीच सामंजस्य का उदाहरण भारत में शायद तभी से था।
एक बात का और भी आश्चर्य हुआ... कहीं कोई 'विलन' मुझे नज्जर नहीं आया...सब कुछ कितना अविश्वसनीय रहा। मैं तो सदा अपने रूसी उपन्यासों की दुनिया में, कठोर यथार्थ की दुनिया में रहती हूँ, अचानक तप्त धरती पर 'मेघदूत' का मेघ वर्षा की फुहार से मुझे भिगो कर चला गया...
धन्यवाद शुभांगी जी, मुझे यह अवसर प्रदान करने के लिए।
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