हर नगर के बाह्य रूप के पीछे चिन्तन की एक लम्बी परम्परा होती है। उस परम्परा को समझे बिना किसी भी दर्शक का ज्ञान एक जल्दबाज सैलानी जैसा होता है। दिल्ली शहर का वर्णन सैकड़ों सैलानियों ने अपनी समझ के अनुसार किया है। वे सामान्यतः इसके बाह्य स्वरूप को देख पाए हैं। यद्यपि वाह्य स्वरूप के महत्त्व को कम नहीं किया जा सकता लेकिन भारतीय चिन्तन आत्मिक सौन्दर्य को अधिक महत्त्व देता है। दूसरे इन सैलानियों ने दिल्ली के एक कालखंड के भी लघु अंश का चित्रण किया है जबकि यह शहर तो हजारों वर्षों का इतिहास अपने अंचल में समेटे हुए है। अनेक सैलानियों ने इसकी ढलती सांझ का वर्णन किया है लेकिन इसका सूर्योदय और मध्याह्न उनकी पहुंच से बाहर रहा। इधर के लेखकों ने भी एकांगी दृष्टिकोण से इस शहर को निरखा-परखा है। इस एकांगी परख का भी अपना सौन्दर्य है लेकिन वे यहां की समग्र दृष्टि को चित्रित नहीं कर पाए। कोई स्वयं राज दरबार में हुकमरान रहा, कोई राजभक्त रहा और कोई राज-सेवक। ऐसी स्थिति में 'राज' ही प्रमुख रहा। यहां के जीवन के अन्य बहुरंगी उज्ज्वल पक्ष उपेक्षित ही रहे। एक तटस्थ और सामान्य नागरिक के रूप में दिल्ली के विभिन्न पक्षों का बखान उपलब्ध नहीं हो पाया। वर्तमान कार्य इसी अभाव पूर्ति की दिशा में एक विनम्र प्रयास है।
इस ग्रंथ का दो दृष्टियों से महत्व और भी बढ़ जाता है। एक यह कि देश स्वतंत्रता-प्राप्ति की स्वर्णजयन्ती मना रहा है। ऐसे समय में दिल्ली की सुदीर्घ, गौरवमय परम्परा को प्रस्तुत करने से देश के नागरिकों में एक नया स्वाभिमान जाग्रत होगा। दूसरे, बीसवीं शताब्दी समाप्त होने को है। लेखक ने गत 50 वर्षों से दिल्ली की घटनाओं को साक्षी के रूप में देखा है तथा इससे 50 वर्ष पहले की बातों को परिवार और मित्रजनों से स्वयं सुना है। इस तरह वर्तमान ग्रंथ में दिल्ली की एक सौ वर्ष की कहानी के अनेक अंश समा गए हैं। ग्रंथ में एक सामान्य नागरिक का चिन्तन है जो शोध की भाषा में बृहत् प्रतिदर्श (साम्पल) का प्रतिनिधि घटक है और इस घटक के जीवन में किसी वर्ग विशेष के प्रति लगाव-लपेट नहीं है।
दिल्ली मात्र शहर नहीं है। नई दिल्ली मात्र राजसत्ता का केन्द्र नहीं है। राजसत्ता की वास्तविक शक्ति महासागर की तरंगों की तरह तरंगायित है।
इसका एक वलय राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र है। दूसरा वलय नेशनल कैपिटल रीजन है और बृहत्तर वलय सागर महासागर के कगारों और हिमालय की श्रृंखलाओं से टकराता है। यद्यपि दिल्ली का संबंध पाण्डवों के विजय अभियान काल में सारे भारत से रहा है लेकिन यहां सामान्यतः इसके पहले दो वलयाँ तक सीमित रहने का प्रयत्न रहा है।
विषय प्रतिपादन की दृष्टि से वर्तमान ग्रंथ को दस अध्यायों में बांटा गया है। पहले अध्याय में दिल्ली के भूगोल पक्ष को प्राचीन और विशाल दृष्टिकोण से प्रस्तुत किया गया है। प्राकृतिक भूगोल में दिल्ली की माटी के निर्माण की कथा को पौराणिक तथा वैज्ञानिक दृष्टिकोण से प्रस्तुत किया गया है। इसी अध्याय में इन्द्रप्रस्थकालीन सांस्कृतिक महत्त्व के स्थानों का वर्णन किया गया है। इन्द्रप्रस्थ के प्रतिवेशी क्षेत्र, नगर, वन, ग्रामों के अतिरिक्त कुछ दूरस्थ क्षेत्रों का भी वर्णन है जिनका सीधा संबंध यहां की राजनीति और राजपरिवारों से रहा है।
दूसरे अध्याय में इन्द्रप्रस्थ की सुदीर्घ राष्ट्र तथा राजधर्म की परम्परा को चित्रित किया गया है। इन्द्रप्रस्थ के राजाओं की सहस्रों वर्ष पुरानी परम्परा और राजधानी के विराट् रूप को भी यहां दर्शाया गया है। इससे यहां की वर्तमान राजनीतिक थाती प्रेरणा ले सकती है।
तीसरे अध्याय में इन्द्रप्रस्थ की वेद-वेदान्त और पौराणिक परम्परा प्रस्तुत की गई है। यह पक्ष शहर की मानसिक चिन्तनधारा को उजागर करता है। ऐतिहासिक दृष्टि से इस पक्ष की उपेक्षा के कारण आज राजनीति और समाज में अनैतिकता हावी होने का प्रयत्न कर रही है। इसके ससम्मान पुनर्जागरण और पुनरुत्थान में भारत का कल्याण है। पूर्व-पश्चिम-उत्तर-दक्षिण के नागरिकों के दिशा-निर्देशन में यह साहित्य प्रकाश पुंज है। इस थाती को जीवन का पाठ्यक्रम बनाए बिना सामाजिक उत्थान कठिन है। हां, इस बृहत् साहित्य में वर्तमान समाज की आवश्यकताओं के अनुसार यत्र-तत्र संशोधन की प्रक्रिया को नकारा नहीं जा सकता।
चौथे अध्याय में यहां की धार्मिक परम्परा दर्शाई गई है। यहां सर्वधर्म सम्मान का वर्तमान दर्शन वेद-वेदान्त और पौराणिक परम्परा की देन है। निगमबोध में भारत के समस्त तीर्थो की स्थापना भारत के सर्वतीर्थ सम्मान के भाव को दर्शाता है। जिसे उन दिनों सम्प्रदाय की संज्ञा दी जाती थी वही आज की भाषा में धर्म बन गए हैं। धर्म तो एक ही है- मानव धर्म। यही धर्म सनातन काल से चला आने के कारण सनातन धर्म है। हमारे संविधान ने सभी नागरिकों को समान अधिकार देकर उसी मानव धर्म या सनातन धर्म की पुष्टि की है जिसका मूल-मंत्र 'सत्यमेव जयते' है। महात्मा गांधी जी की सत्प्रेरणा से यही हमारा राष्ट्रीय उद्घोष है।
ग्रंथ के पांचवें अध्याय में यहां की समाज रचना पर एक ऐतिहासिक विकासात्मक दृष्टि डाली गई है। यहां वेद-महाभारत काल से अनेक समुदायों का निवास रहा है जिन्हें आजकल जाति, उपजाति कहने लगे हैं। उन दिनों ये जातियां और समुदाय सर्वमान्य आचार संहिता का पालन करते हुए स्वतंत्र जीवन जीते थे। आज भी भारतीय संविधान में इन सभी समुदायों या जातियों के उत्थान और कल्याण की धारणा की पुष्टि की गई है।
दिल्ली का वर्तमान तिथिपरक, राजकुल परक, वंश-कुल परक इतिहास कितना सच्चा है, यह अनुमान का विषय है। राजदरबारी इतिहासकार ठकुरसुहाती घटनाओं का वर्णन करते आए हैं। उन्हीं के द्वारा लिखा इतिहास, 'सुरक्षित' इतिहास या प्रामाणिक इतिहास कहलाता है। आज भी प्रायोजित इतिहास तथा साहित्य को प्रोत्साहन और संरक्षण मिल रहा है। सभी के देखते-देखते चश्मदीद इतिहास के कालपात्रों का 'भ्रूणपात' हो चुका है। इतिहास के झरोखे से यहां यथासंभव राष्ट्र गौरव के पक्ष को उजागर करने वाले पहलुओं को मुख्य रूप से लिया गया है। दिल्ली का नक्शा कैसे बना-बिगड़ा या ढीला हुआ, इसके संकेत भी इस अध्याय में दिए गए हैं। दिल्ली के अद्यतन प्रशासनिक ढांचे की कड़ी को भी प्राचीन श्रृंखला से जोड़ा गया है।
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