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ढाई आखर प्रेम के: Dhai Aakhar Prem Ke

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Specifications
Publisher: Bharatiya Jnanpith, New Delhi
Author Pushpa Bharati
Language: Hindi
Pages: 206
Cover: HARDCOVER
9.0x5.5 Inch
Weight 350 gm
Edition: 2013
ISBN: 9789326351164
HBS392
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Book Description

लेखक परिचय

 

विजय कुमार स्वर्णकार जन्म : 01 सितम्बर, 1969 (खरगोन, म.प्र.) शिक्षा : देवी अहिल्या विश्वविद्यालय से सिविल इंजीनियरिंग में स्नातक (1990) सम्प्रति : केन्द्रीय लोक निर्माण विभाग में कार्यपालक अभियन्ता प्रयास एवं उपलब्धि ग़ज़ल की ऑनलाइन पाठशाला द्वारा देश-विदेश के 1000 से अधिक विद्यार्थियों को प्रशिक्षित किया है। दो साझा संकलनों का सम्पादन। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं तथा साझा संकलनों में ग़ज़लें प्रकाशित हुई हैं। पुरस्कार : विश्व हिन्दी साहित्य परिषद भारत द्वारा 2017 में साहित्य गौरव सम्मान, पंडित तिलकराज शर्मा मेमोरियल ट्रस्ट से साहित्य सृजन सेवा पदक 2018

 

प्रस्तावना

 

शास्त्र, परम्परा, साधना, अनुष्ठान- इन सबसे ऊपर जिसने प्रेम में ढाई आखर को प्रतिष्ठित किया था और बताया था कि पंडित और ज्ञाता वही है जो इस 'ढाई आखर' के मर्म को समझता है। इस धर्म और उस धर्म, इस पद्धति और उस पद्धति, सबके पाखंड को निर्भीक, खुली चुनौती देनेवाले उन्हीं कबीर ने क्या अपने सारे विद्रोह की मूल ऊर्जा इसी 'ढाई आखर' वाले प्रेम से पायी थी? तो क्या प्रेम केवल व्यक्तिगत सम्बन्धों की चरम तन्मयता में ही केन्द्रित नहीं है? पर फिर उसे बहुधा सामाजिक मान्यता क्यों नहीं दी जाती ? एक ओर प्रेम का यह व्यापक रूप है दूसरी ओर उसी प्रेम की परिधि की व्याख्या करते हुए कबीर कहते हैं- "जब में था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाहिं, प्रेम गली अति साँकरी, ता में द्वै न समाहिं ।।" शताब्दियाँ बीतती हैं, इतिहास बदलता है। समाज में व्यक्ति-उसके प्रेम, उसके सृजन, उसकी आजीविका इन सबका सन्तुलन बदलता है और एक दिन हम अचरज से पाते हैं कि उसी अति साँकरी प्रेम गली में से पूरा बदलता हुआ इतिहास और उसके बदले हुए समीकरण गुज़र रहे हैं-कहीं एक दूसरे को सहारा देते हुए और कहीं एक दूसरे को बुरी तरह आहत करते हुए। यहाँ तक कि जब कार्ल मार्क्स कह देता है कि समाज में व्यक्ति और व्यक्ति के बीच का सम्बन्ध केवल आर्थिक आधार पर होता है- उत्पादक और उपभोक्ता का, शोषक और शोषित का, तो अकस्मात् यह लगने लगता है कि प्रेम नाम के सम्बन्ध की कल्पना ही शायद झूठ है, निराधार है। फिर जो सामाजिक पद्धति केवल आर्थिक व्यवस्था और राजसत्ता को ही महत्त्व देती है और अपने राज्य में बसने वाले हर नागरिक के मन को उन्हीं साँचों में ढालना चाहती है तो ऐसी व्यवस्था के लिए प्रेम न केवल एक अप्रासंगिक वस्तु बन जाता है बल्कि यह भी लगता है कि जो कवि कलाकार या लेखक केवल प्रेम की बात करता है, वह हो सकता है, एक खतरनाक साजिश कर रहा हो इस आर्थिक व्यवस्था के खिलाफ। रूसी क्रान्ति की अनेकानेक पंचवर्षीय योजनाएँ संयोजित हुई। स्तालिन की पकड़ को और मजबूत करने के लिए लेखक क्या लिखे, क्या न लिखे इसके बारे में आदेश जारी होते रहे। प्रकाशन संस्थान सब सरकार के हाथों में थे। उनसे वही कहानी, कविता, उपन्यास या समीक्षा छप सकते थे जो स्तालिन की विचारधारा को समर्थन देते हों। और जो उसे समर्थन न देते हों-फूल, पक्षी, प्रकृति, सौन्दर्य और प्रेम की बात करते हों वे जो चाहें सो लिखकर अपने घर में रख सकते थे लेकिन इस प्रकार की क्रान्ति-विरोधी, समाज विरोधी चीजों को प्रकाशित या प्रसारित करने का उन्हें कोई हक नहीं था। लेकिन कलाकार की दृष्टि से प्रेम और सृजन को एक विचित्र संगति है। जो प्रेम चरम तन्यमता के एकान्त क्षण का अनुभव होता है वह जब कलाकृति के रूप में बंध जाता है तो उसकी सार्थकता यही है कि अधिक से अधिक लोग उसे देखें, अधिक-से-अधिक पाठक उसे पढ़ें और उसकी गहन अनुभूतियों को आत्मसात् करें। अब आप सोचिए, एक ऐसे व्यक्ति की बात जिसने बचपन में रूस की क्रान्ति के उठते गिरते दौरों को देखा है, जिसने चाटुकार लेखकों का डंका बजवाते हुए और दुःसाहसी ईमानदार लेखकों को आत्महत्या के लिए विवश किये जाते हुए देखा है और फिर भी जिसके मन से न बचपन की रंगबिरंगी तितलियों की उड़ान धीमी पड़ी है न विशाल यूक्रेन के मैदानों में पीले-पीले फूलों के अथाह विस्तार में से गुजरते हुई रेल की खिड़की उससे भुलाते बनती है। जो खतरनाक काम कर रहा है यानी 'ढाई आखर' प्रेम !

 

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