पुस्तक परिचय
धर्मामृत अनगार
प्राचीन जैन शास्त्रकारों में पण्डितप्रवर आशाधर का इतना अधिक सम्मान है कि गृहस्थ होने पर भी वे 'आचार्यकल्प' कहे जाते हैं। जैन धर्म, दर्शन, साहित्य, व्याकरण आदि विभिन्न विषयों पर उनका लेखन इतना उत्कृष्ट और इतना व्यापक है कि उनकी तुलना आचार्य हेमचन्द्र जैसे महनीय शास्त्रकार से की जाती है। दूसरों के ग्रन्थों पर उनकी और उनके ग्रन्थों पर दूसरों की टीकाएँ भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। पं. आशाधर जी ने गृहस्थों के ही नहीं, बल्कि साधुओं के भी धर्म का अमृत बरसाया। उनका सागार और अनगार के रूप में विभक्त ग्रन्थ धर्मामृत, चरित्रनिर्माण और मनोविश्लेषण की दृष्टि से आज के अद्भुत अपूर्व माहौल में और भी अधिक व्यावहारिक लगता है। इस कालजयी महाग्रन्थ में इतनी सामाजिकता और वैज्ञानिकता विद्यमान है कि उसका विश्लेषण करने को स्वयं ग्रन्थकार ने उस पर टीका (स्वोपज्ञ) लिखी। संस्कृत और कन्नड़ में भी इस ग्रन्थ पर टीकाएँ लिखी गयीं। इन सब टीकाओं और 'धर्मामृत' को सम्पादन करके हिन्दी अनुवाद के साथ दो भागों (सागार और अनगार) में प्रस्तुत किया है सिद्धान्ताचार्य पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री ने जो अपने बहुमुखी वैदुष्य के लिए जैनदर्शन, सिद्धान्त, न्याय, संस्कृति, इतिहास आदि के क्षेत्र में बहुमान्य हैं। जैन संस्कृति, विशेषतः आचार-शास्त्र के स्वाध्याय, अध्ययन-अध्यापन और शोधखोज के लिए यह ग्रन्थ और इसका प्रस्तुत संस्करण सर्वथा अनिवार्य है। सरल हिन्दी अनुवाद के कारण यह सर्वसाधारण के लिए भी उपयोगी बन गया है।
प्रस्तावना
4. वापर रजितके की भारत और बागारत। दोनों पाकी हस्तलिखित प्रति भीषन्ही पायी जाती है। तदनुसार इनका प्रकाशन भी वही हु है। सबसे प्रभाकोटीका सामागारका काथी मानिन्द्र अम्माला बम्बईस उसके दूसरे now annre uniqeer પ્રજmલમ ૪૦૫ જોરદાર મુજબ જમે છે. ૧૦૬ gut i wen A બા प्रकापत हिन्दी अनुवाद या मराठी अनुवादके साथ हुए कारउक्त संस्करण ही रहे। दोनों ही मुल संरकरणप्रायः शुद्ध है। वही अद्धि पाणी गयी। सावनेच्चान्वयक रूपमें टीका होने से भी मूलका संसीव करने में सरलता होती है। फिर भी हमने महावीर भवन जयपुरकेार अतगार चर्यामुतकी एक हस्तलिखित प्राचीन प्रति द्वार की। उसमें मूठ इलोकोंके साथ उराको भब्यकुमुद चन्द्रिका टीका भी है। उसके आधार भी काठका संशोधन किया गया। बह प्रति बामेर शास्त्र भण्डार जयपुरकी है। इसकी बेशन संख्या १३६ है। पृष्ठ संमया ३४४ है। किन्तु अन्तिम पत्रपट ३४५ अंक लिखा है। प्रत्येका पुष्डमें ११ पंकियों और प्रत्येक पंकि ५० ६० तक बहर पाये जाते हैं। लेखन आधुनिक है। मुद्रित प्रतिके बिलकुल एकस्य है। मिलान करनेपर क्वचित् ही अवृद्धि मुद्रित प्रतिमें मिली। ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे इसी या इसीके समान किसी अन्य शुद्ध प्रतिके आधारपर बनणार वर्मामृतके प्रथम संस्करणका घोषन हुआ है। अपने निवेदन में संशोषक पं. मनोहर लालजी ने इतना ही लिखा है कि इसका संधोधन प्राचीन दो प्रतियी किया गया है जो प्रायः शुद्ध थी।
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