पुस्तक परिचय
धर्मामृत (सागार)
दिगम्बर जैन परम्परा में साधुवर्ग और श्रावकवर्ग के लिए जिस आचार-धर्म का पालन उद्दिष्ट है उसका अधिकृत, विद्वत्तापूर्ण तथा सर्वांगीण विवेचन प्रस्तुत करने वाली अद्वितीय कृति है 'धर्मामृत'। पण्डितप्रवर आशाधर (12वीं-13वीं शती) ने उक्त दोनों वर्गों के लिए क्रमशः अनगार धर्मामृत और सागार धर्मामृत-इन दो भागों में इसकी रचना की। 'भव्यकुमुदचन्द्रिका' नामक स्वोपज्ञ टीका से विभूषित होकर यह कृति अपने अनेक संस्करणों में पहले भी प्रकाशित हो चुकी है किन्तु 'ज्ञानदीपिका' स्वोपज्ञ पंजिका के साथ यह पहली बार भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित है। प्रस्तुत 'धर्मामृत सागर' इस ग्रन्थ का उत्तर भाग है। पूर्व भाग 'धर्मामृत अनगार' भी उक्त पंजिका तथा हिन्दी अनुवाद सहित भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा अलग जिल्द में प्रकाशित है। ग्रन्थ के सम्पादक एवं हिन्दी अनुवादकर्ता सिद्धान्ताचार्य पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री जैन धर्म-दर्शन के विशिष्ट विद्वान, गम्भीर अध्येता और अप्रतिम व्याख्याकार रहे हैं। इस ग्रन्थ में उन्होंने विशेषार्थ के रूप में पंजिल के विशद अर्थ के साथ चन्द्रिका टीका का सार भी समा किया है जिससे यह अतक के संस्करणों सर्वाधिक उपयोगी बन गया न्थ की सारगर्भितः विस्तृत प्रस्तावना, जो सामा चिन्तन की भूमिका भी प्रदान करती है, मृत अनगार' में दी गयी है। मुमुक्षुओं और जैन आचार-शास्त्र के अध्येताओं के लिए यह ग्रन्थ एक विशेष उपलब्धि सिद्ध हुआ है।
प्रस्तावना
आतापर और उनके में जानेका ये स्व. श्री नाराजी प्रेमीको है। उन्होंने ही स्व. वेड माणिकवन्द हीरानन्दवीरमृति रातिमात्र ঋণন अन्यकुमुदचन्द्रिका टीका सहित सामारधर्मातका संस्करण संवत् १९७२में किया था। वस मूल्य बाद आता था। संवत् १९७२ में ही में स्याद्वाद महाविद्यालय में प्रविष्ट हुबा या बऔर अंगरेजीमें अच्छे नम्बर प्राप्त करनेके उपलक्ष्यमें मूले सामारवर्यातका वह संस्करण पारितोषिक ने प्राम हुआ था। तथा इन पंतियोंको विहाते समय भी वह मेरे सामने उपस्थित है। उसके पश्चात् सामारधर्मामृत बनेक संस्करण प्रकाशित हुए, किन्तु इतना सुन्दर, रास्ता, गुद्ध और आकर्षक संस्करण प्रकाशित नहीं हो सका। सागारधर्मामृतके उक्त संस्करणके प्रकाशन वर्ष सन् १९१५ में ही चं कालपा भरमाणा निहवेने अपने मराठी अनुवादके साथ कोल्हापुरसे एक संस्करण प्रकाशित किया। यह बृहत्काय संस्करण भी सजिल्द और आकर्षक था। इसमें भी भब्यकुमुदचन्द्रिका टीका दी गयी है। उसके प्राक्कयनमें पं. निटवेने लिखा या कि 'मैंने ज्ञानदीपिकासे स्थान-स्थानपर टिप्पण दिये हैं। वह ज्ञानदीपिका स्वतन्त्र रुपये देनेको भी। किन्तु हमारे दुर्भाग्यसे सागारधर्मामृतको प्राचीन पुस्तक आगमें भस्म हो गयी। दूसरी आज मिलती नहीं। सौभाग्यरी इस ग्रन्यके पुनः प्रकाशनका प्रसंग आया तो किसी भी तरह पंजिकाका सम्पादन करके प्रकाशित करनेकी बलवतो आशा है।' श्री निटवेके इस उल्लेापर-से ज्ञानदीपिकाके उपलब्ध होनेकी आशा धूमिल हो गयी थी। किन्तु स्व. डॉ. ए. एन. उपाध्येके प्रयत्नसे श्री जीवराजग्रन्यमाला शोलापुरसे सागारधर्मामृतकी एक हस्तलिखित प्रति प्राप्त हुई। यह प्रति रूलदार प्रतिलेखकके सम्बन्धमें कुछ भी शात नहीं हो सका। इस संस्करणमें उसी प्रतिके आधारसे ज्ञान-दीपिकाका प्रथमबार मुद्रण हुआ है और इस तरह एक अतम्य-जैसे धन्यका उद्धार हुआ है। सागारथममृत मूलकी एक शुद्ध हस्तलिखित प्रति श्री स्याद्वाद महाविद्यालय वाराणसीके पुस्तकालय-में है। उसीके आधारपर सागारधर्मामृत के मूल इलोकोंका संशोधन किया गया है। इससे कई ऐसे पाठोंका शोषन हुआ जिनकी ओर किसीका ध्यान नहीं था। इस प्रतिमें ४३ पत्र है। प्रारम्भके दो पत्र नहीं है। लिपि सुन्दर और सुस्पष्ट है। प्रत्येक पत्रमें प्रायः दस पंक्तियाँ हैं और प्रत्येक पंक्तिमें छत्तीस या सेतीस अक्षर है। श्लोकोंके साथ उनकी उत्यानिका भी है। तथा टीकामें 'उक्तं च' करके जो उद्धृत पथ हैं वे भी प्रत्येक श्लोकके आगे लिखे हैं। प्रत्येक दलोकके प्रत्येक पदको पृथक्तताका बोध करानेके लिए उसके अन्तमें ऊपरकी ओर एक छोटी-सी खड़ी पाई लगायी हुई है। प्रत्येक पत्रके ऊपर-नीचे तया इधर-उधर रिक्त स्थानोंमें टिप्पणके रूपमें टीकासे शब्दार्थ तया वाक्य आवश्यकतानुसार दिये हैं। इस तरहसे यह प्रति बहुत ही उपयोगी और अत्यन्त शुद्ध है।.
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