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धूपछाँही दिनकर- Dhupachhanhi Dinkar (Criticism)

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Specifications
Publisher: Bharatiya Jnanpith, New Delhi
Author Shambhunath
Language: Hindi
Pages: 171
Cover: HARDCOVER
9x6 inch
Weight 300 gm
Edition: 2019
ISBN: 9788126316274
HBS723
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Book Description
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पुस्तक परिचय
'धूपछाँही दिनकर' राष्ट्रकवि रामधारी सिंह 'दिनकर' के सुधी अध्येता डॉ. शंभु नाथ की एक महत्त्वपूर्ण समालोचनात्मक कृति है। डॉ. शंभु नाथ इस तथ्य को अत्यन्त प्रामाणिकता से विश्लेषित करते हैं कि दिनकर का काव्य सही अर्थों में परम्परा और आधुनिकता के बीच एक सर्जनात्मक सेतु बनाता है। उनके काव्य में ऐसे अनेक सर्जनामूलक अन्तर्विरोध हैं जो इसे एक निजी वैशिष्ट्य प्रदान करते हैं। ये रचनात्मक अन्तर्विरोध अन्ततः धूप-छाँह में अर्थापित होते और घुलते दीख पड़ते हैं। दिनकर का यही धूप-छाँही काव्य एक चुनौती की तरह डॉ. शंभु नाथ के सम्मुख उपस्थित हुआ है। इस चुनौती का सामना करते हुए लेखक ने कई जरूरी प्रश्न रेखांकित किए हैं- क्या राष्ट्रीयता दिनकर के कवि-मानस की सहज प्रवृत्ति है अथवा किन्हीं दबावों से वह उनकी रचनाधर्मिता पर आरोपित हुई? क्या उनका राष्ट्रीय काव्य परम्परा से प्रेरित होकर स्थिर है अथवा अपने परिवेश को आत्मसात करने से वह विकसनशील अथवा परिवर्तनमूलक है? राष्ट्रीयता उनकी दृष्टि में मूल्य है अथवा युग-सापेक्ष धर्म? क्या उनकी रागात्मक दृष्टि को विराग भाव खंडित तो नहीं करता है? क्या उनके कमनीय सौन्दर्यबोध को पौरुष का चट्टानीपन कहीं प्रभावित तो नहीं करता है? जाहिर है, ऐसे अनेक प्रश्नों के उत्तर 'धूपछाँही दिनकर' में तलाशे गये हैं। दिनकर का काव्य निश्चित रूप से 'मर्त्य मानव की विजय का तूर्य' है। इस काव्य की ध्वनियों-अन्तर्ध्वनियों को सुनते-गुनते हुए डॉ. शंभु नाथ ने एक सहृदय आलोचक की दृष्टि से उनका मूल्यांकन किया है। दिनकर के जीवनानुभव और काव्यानुभव पर यह पुस्तक एक नया प्रकाश डालती है। 'धूपछाँही दिनकर' वस्तुतः शौर्य और सौन्दर्य के रचनात्मक तटों के बीच प्रवाहित रसवन्ती के अवगाहन का विरल उपक्रम है।

लेखक परिचय
जन्म : 2 मार्च 1947, छपरा (बिहार) । शिक्षा: बी.ए. ऑनर्स (अँग्रेजी साहित्य), एम.ए. (अँग्रेजी साहित्य), पी-एच. डी. (हिन्दी साहित्य) । अध्यापन: बिहार कॉलेज ऑफ कामर्स, पटना में व्याख्याता (1969)। प्रशासनिक सेवा: 1970 में आई.ए.एस. में चयनित। उत्तर प्रदेश काडर में विभिन्न पदों पर कार्य। 30 जून 2007 को मुख्य सचिव, उत्तर प्रदेश शासन के पद से सेवानिवृत्त । प्रकाशन विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेखन। आकाशवाणी एवं दूरदर्शन से साहित्यिक विषयों पर विविध प्रसारण। 'राम कथा के नये आयाम', 'बच्चन की काव्य यात्रा', 'दिनकर का रचना संसार', 'उत्तर प्रदेश में स्वाधीनता संग्राम के प्रेरक प्रसंग' (आलोचना/शोध) तथा 'आकाश मेरे आईने में' (काव्य-संग्रह) प्रकाशित। 'राम कथा और नये प्रतिमान' एवं 'आचार्य श्री' पुस्तकों का सम्पादन। सम्प्रति : कार्यकारी अध्यक्ष, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ।

निवेदन
महान व्यक्तियों का जीवन, व्यक्तित्व और कृतित्व बिरले ही सीधा और सपाट होता है। उसमें संघर्ष, तनावों और प्रायः एक निश्चित सीमा तक, अन्तर्विरोधों की भी उपस्थिति रहती है। महान रचनाकार भी इसके अपवाद नहीं होते। परिवेश के विभिन्न दबाव जहाँ उनके व्यक्तित्व को सीधा और सपाट नहीं रहने देते, वहीं उनका व्यक्तित्व उनके रचना-कर्म के दौरान अनेक अन्तर्विरोधों को भी समाहित करता है। यदि ये अन्तर्विरोध किसी समग्र व्यापक महाभाव में नहीं ढलते, तो रचना की प्राणवत्ता को कुंठित करते हैं। इसके विपरीत किसी व्यापक अर्थ की तलाश में व्यक्तित्व और रचना-कर्म में विद्यमान अन्तर्विरोधों की छटपटाहट जब धूप-छाँहीपन की समग्रता पा लेती है, तो वह रचना-कर्म अपनी सृजनशीलता में पूरी तरह खरा उतरता है। महाकवि दिनकर का व्यक्तित्व और रचना-कर्म अपने में अनेक अन्तर्विरोधों की छटपटाहट को समेटे हुए है, किन्तु अन्तर्विरोधों की छटपटाहट अन्ततः समग्रता के 'धूप-छाँहीपन' में अपने व्यापक अर्थ को पा लेती है। मुझे दिनकर-काव्य केवल इसलिए प्राणवान नहीं लगता कि उसमें आवेगधर्मिता है, भावों की झनझनाहट है, छान्दिक गति की त्वरा है, बल्कि इसलिए भी कि उनकी काव्य-यात्रा अन्तर्विरोधों की कँटीली राह पर आगे बढ़ती हुई, अन्ततः जीवन के समग्र धूप छाँहीपन में घुल जाती है- लय हो जाती है। दिनकर के काव्य को लीक छोड़कर रीझने-बूझने तथा उसके समाकलन की यह कोशिश निश्चय ही चुनौतीपूर्ण थी।

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