प्रस्तुत पुस्तक दो भागों में बाँटी जा सकती है। इनमें से पहले भाग का विस्तार बारहवें अध्याय तक होगा, जिसमें ध्वनि-विज्ञान के तथ्यों का वर्णन और मौलिक सिद्धान्तों का स्पष्टीकरण है। दूसरे भाग का क्षेत्र तेरहवें अध्याय से अन्त तक होगा, जिसमें नये-पुराने, सभी भारतीय स्वर-ग्रामों का वैज्ञानिक विश्लेषण है। पहले भाग में संवाद, संघात, ग्राम-रचना-विधि आदि का वर्णन अपेक्षाकृत विस्तार से दिया गया है, इसलिए कि ध्वनि-विज्ञान की सामान्य पाठ्य-पुस्तकों में इनका स्पर्शमात्र पाया जाता है।
ध्वनि-विज्ञान वाले भाग की रचना प्रसिद्ध वैज्ञानिकों की कृतियों के आधार पर हुई है। पर भारतीय संगीत वाले भाग में बहुतेरे ऐसे सिद्धान्तों और परिणामों का निरूपण है, जिनका उत्तरदायित्व पूरे तौर से लेखक पर ही है। जैसे वेद, भरत और शाङ्गदेव के स्वर-ग्राम का निरूपण; श्रुति, मूर्छना, न्यास आदि पारिभाषिकों का तात्पर्य-निर्णय; रामामात्य के ग्राम-संस्थान और 'स्वयंभूस्वर' की व्याख्या; संवाद और यमकत्व के आधार पर भातखण्डे के दश ठाट-विधान की निष्पत्ति; इत्यादि। ये परिणाम विवादग्रस्त हो सकते हैं। विवाद वैज्ञानिक आधार पर हो तो इससे नये । अनुसन्धान को प्रश्रय ही मिलेगा। पर यदि बद्धमूल धारणा और जड़ीभूत संस्कार से विवाद खड़ा हो जाय तो इससे कोई लाभ नहीं। नये परिणामों की निष्पत्ति में यथाशक्ति तर्क और प्रमाण का उपयोग किया गया है। फिर भी परम वाक्य के अधिकारी होने की स्पर्धा विज्ञान के विद्यार्थी के लिए निषिद्ध है।
यहाँ यह बता देना आवश्यक है कि इस कृति का प्रधान विषय हिन्दुस्तानी या उत्तरीय पद्धति है। यह अन्तिम अध्याय में स्पष्ट हो जाता है। प्रसंगवश आधुनिक दाक्षिणात्य पद्धति पर भी विचार किया गया है और जहाँ-तहाँ पाश्चात्य पद्धति का भी स्पर्श है। पर इन पद्धतियों के साथ व्यावहारिक सम्पर्क न होने से इनकी विवेचना में प्रामाणिकता का दावा नहीं किया जा सकता। अन्तिम अध्याय में हिन्दुस्तानी पद्धति की विशेषताओं को अधिक स्पष्ट करने के लिए दाक्षिणात्य पद्धति के साथ तुलना आवश्यक जान पड़ी। इस प्रसंग में दाक्षिणात्य पद्धति की कई त्रुटियों की ओर ध्यान आकर्षित किया गया है। यह आक्षेप-जैसा लग सकता है, पर इसमें अपमान की भावना नहीं है। दोनों पद्धतियों का विभेद यदि तथ्यतः भ्रान्त सिद्ध हो जाय तो यह सन्तोष ही की बात होगी; क्योंकि परिणाम में दोनों पद्धतियों की एकता ही चरम लक्ष्य है।
ध्वनि-विज्ञान का स्वतन्त्र समावेश हेल्महोज, ब्लसेर्ना, जीन्स आदि प्रमुख वैज्ञानिकों के लिखे हुए संगीतविषयक ग्रन्थों के ढाँचे पर हुआ है। नाद और संगीत में समवाय सम्बन्ध है; इसलिए नाद-विज्ञान के द्वारा ही संगीत का भौतिक संस्थान समझा जा सकता है। इसके अतिरिक्त यहाँ इसकी विशेष आकांक्षा है। आये दिन अनुसन्धान की धुन सभी क्षेत्रों में दिखाई पड़ती है। आपाततः संगीत-प्रेमी भी अनुसन्धान के लिए उत्तेजित हो उठे हैं। यह निःसन्देह ही शुभ लक्षण है। पर अभी उनकी दृष्टि भारतीय संगीत के अतिलौकिक, अतिप्राकृतिक और आध्यात्मिक पक्ष पर ही केन्द्रित है। इसीलिए, वनस्पतियों पर रागों का प्रभाव या भिन्न-भिन्न रोगों की चिकित्सा में भिन्न-भिन्न रागों की उपयोगिता जैसे विलक्षण, पर उत्तेजक, विषयों में ही उनका मनोयोग है। अनुसन्धान का क्षेत्र चुनना व्यक्तिगत रुचि पर निर्भर है, पर यह बता देना आवश्यक है कि भारतीय संगीत के भौतिक पक्ष में भी अनुसन्धान का बहुत बड़ा क्षेत्र है; और ऐसे अनुसन्धान के लिए ध्वनि-विज्ञान का ज्ञान अनिवार्य है। इसलिए जो संगीत-प्रेमी भौतिक अनुसन्धान में रुचि रखते हों, उनके लिए यह ध्वनि-विज्ञान का अंग बहुत ही उपयोगी सिद्ध होगा। अनुसन्धान का यह मार्ग न तो नूतन है और न विलक्षण। शाङ्गदेव, मतङ्ग आदि ने संगीत का उद्देश्य जनसाधारण को यथारुचि आनन्द देना ही बताया है। शाङ्गदेव ने संगीत के लिए 'अनाहत नाद' का निराकरण किया है। वस्तुतः संगीत में रहस्यवाद कवियों की देन है, संगीत-शास्त्रियों की नहीं।
परिशिष्ट में संगीत के संस्कृत ग्रन्थों का उद्धरण विस्तार से दिया गया है। वह इसलिए कि ये ग्रन्थ सभी जगह नहीं पाये जाते। इसी उद्देश्य से मिस्री, फारसी आदि स्वर-ग्राम भी दे दिये गये हैं। तीक्ष्ण दृष्टिवाले संगीत-प्रेमी इनमें कुछ-न-कुछ काम की बातें निकाल ही सकते हैं।
पाठ्य पुस्तक न होने से इस पुस्तक के प्रकाशन में बहुत विलम्ब हुआ। इसी अपराध के कारण इसकी पाण्डुलिपि एक प्रमुख संस्था के कार्यालय में सालों पड़ी रही। धन्यवाद है भारतीय ज्ञानपीठ के अधिकारियों को, जिन्होंने इसके प्रकाशन का गुरु भार मुक्त हृदय से ग्रहण किया। ज्ञानपीठ के कार्यकर्ता भी प्रशंसा के पात्र हैं; जिनकी तत्परता से ही यह पुस्तक शीघ्र प्रकाशित हो सकी।
अन्त में उन मित्रों को धन्यवाद है जिनकी शुभकामना पुस्तक के निर्माणकाल में निरन्तर लेखक के साथ रही है। लेखक पर सबसे अधिक आभार आचार्य रं. कृ. आसुण्डी का है, जिनका प्रोत्साहन, सहयोग और सत्परामर्श लेखक को सदा मिलता रहा है।
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