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गुजरात में हिन्दी के हस्तलिखित ग्रंथों की खोज- Discovery of Hindi Manuscripts in Gujarat (Set of 2 Volumes: An Old and Rare Book)

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Specifications
Publisher: Hindi Sahitya Academy, Gujarat
Author Edited By Amba Shankar Nagar
Language: Hindi
Pages: 319
Cover: PAPERBACK
9.5x6.5 inch
Weight 450 gm
Edition: 1995
HBX916
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Book Description

भूमिका

गुजरात में हिन्दी के हस्तलिखित ग्रंथों की खोज एक सारस्वत-संकल्प

उत्तर में आबू से दक्षिण में दमण गंगा तक और पूर्व में दाहोद से पश्चिम में द्वारका तक फैले हुए गुजरातीभाषी प्रदेश को 'गुजरात' कहा जाता है। यह देखकर आश्चर्य होता है कि इस अहिन्दीभाषी प्रदेश ने हिन्दी भाषा और साहित्य के विकास में भी प्रशंसनीय योग दिया है। गुजराती कवियों ने स्वभाषा में काव्य-रचना करने के साथ-साथ हिन्दी (अर्थात् डिंगल, ब्रज, अवधी, खड़ी बोली आदि) में भी रचनाएँ की हैं। प्रस्तुत ग्रंथ गुजरात के अंचल में आवृत हिन्दी की अज्ञात एवं उपेक्षित साहित्य-सम्पदा को प्रकाश में लाने का प्रयास है।

विगत चालीस वर्षों में हुई शोध-खोज से अब यह सिद्ध हो चुका है कि इस प्रदेश के अंचल में हिन्दी भाषा और साहित्य को फलने-फूलने का पर्याप्त अवसर मिला था। गुजरात में हिन्दी की लोकप्रियता और व्यापकता का सबसे पहला कारण इस प्रदेश की भौगोलिक स्थिति है। गुजरात हिन्दी-भाषी प्रदेश का निकटवर्ती प्रदेश है। यह नैकट्य हिन्दी के व्यापकत्व के लिए बहुत अंशों में उत्तरदायी है। हिन्दी की व्यापकता का दूसरा कारण धर्माश्रय है। बल्लभ-सम्प्रदाय, स्वामिनारायण-सम्प्रदाय, सूफी-सम्प्रदाय, जैन धर्म और संतमत के आश्रय में हिन्दी को इस प्रदेश में विकसित होने के लिए अनुकूल वातावरण मिला था। तीसरा कारण राजाश्रय है। गुजरात के सुल्तानों और राजपूत राजाओं को हिन्दी के प्रति बड़ा प्रेम था। वे अपने दरबारों में हिन्दी कवियों को सम्माननीय स्थान देते थे और उनमें से कुछ तो स्वयं भी कविता करते थे। महाराव लखपतजी (राज्यकाल १७५१-१७६१ ई.) ने तो कच्छ-भुज में व्रजभाषा की पाठशाला भी स्थापित की थी, जो अपने ढंग की भारत भर में एकमात्र पाठशाला थी। चौथा कारण यह है कि राष्ट्रीयता के उदय के साथ गुजरात के नेताओं और विद्वानों ने हिन्दी के महत्त्व को समझा और उसके प्रचार-प्रसार के लिए सम्यक् प्रयास किया। इन चार कारणों के अतिरिक्त पाँचवा तथा मुख्य कारण इस भाषा की ऋजुता और काव्योपयुक्तता है, जिससे आकर्षित होकर गुजरात के प्राचीन तथा आधुनिक कवियों ने इस भाषा में अनेक ग्रंथ रचे ।

उपर्युक्त अवलोकन से स्पष्ट है कि धर्माश्रय, राज्याश्रय, राष्ट्रीय भावना तथा साहित्यिक गुणवत्ता के कारण हिन्दी को गुजरात में फलने-फूलने का पर्याप्त अवसर मिला, जिसके परिणाम स्वरूप १५ वीं शती से आज तक गुजरात में हिन्दी के अनेक सुकवि हुए। इन कवियों ने डिंगल, ब्रज, अवधी, खड़ीबोली आदि में अनेक सुन्दर ग्रंथों की रचना की है।

इस विपुल साहित्य-सम्पदा का अध्ययन अनुशीलन करते-कराते यह प्रेरणा बलवती हुई कि गुजरात के ग्रंथ-भंडारों में संगृहीत हिन्दी के इन हस्तलिखित ग्रंथों की एक विवरणात्मक सूची तैयार की जाए। काम शुरू करते समय इसकी गुरुता का हमें समुचित बोध नहीं था। हमें लगता था कि इस प्रदेश में केवल गुजराती कवियों द्वारा लिखे गए हजारेक हिन्दी ग्रंथ समुपलब्ध होंगे, किन्तु जैसे-जैसे इस कार्य में हम गहरे उतरते चले गए, हमें अधिकाधिक ग्रंथ उपलब्ध होते गए। इन भंडारों से हिन्दी कवियों के प्राचीन ग्रंथों की प्रतिलिपियाँ भी हमें विपुल संख्या में मिली हैं। अव हमें लगता है कि गुजरात के समस्त हस्तलिखित पुस्तक भंडारों और निजी संग्रहालयों में संगृहीत हिन्दी के हस्तलिखित ग्रंथों की संख्या प्रायः पाँच हजार से भी अधिक होगी।

गुजराती कवियों के हिन्दी हस्तलिखित ग्रंथ निम्नलिखित ग्रंथ-भंडारों में सुरक्षित हैं: (१) लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामंदिर, अहमदाबाद। (२) गुजरात विद्यासभा, अहमदाबाद। (३) प्राच्य विद्यामंदिर, बड़ौदा । (४) नव ज्ञानभंडार, पाटन। (५) डाहीलक्ष्मी लाइब्रेरी, नडियाद । (६) लींबड़ी जैन ज्ञानभंडार, लींबड़ी । (७) एम. टी. बी. कॉलेज, सूरत। (८) राजकीय पुस्तकालय, जूनागढ़। (९) फार्वस गुजराती सभा, बम्बई । (१०) डेक्कन कॉलेज, पूना ।

जैसा कि हम ऊपर कह आए हैं, इन ग्रंथागारों में संगृहीत हिन्दी हस्तलिखित ग्रंथों में दो प्रकार के ग्रंथ समुपलब्ध हैं: (१) प्राचीन हिन्दी कवियों के सुप्रसिद्ध ग्रंथों की प्रतिलिपियाँ। जैसे रामचरितमानस, रामचन्द्रिका, विहारी सतसई आदि एवं (२) इस प्रदेश के कवियों द्वारा रचे गए ग्रंथों की हस्तलिखित प्रतियाँ, जो प्रायः अन्यत्र उपलब्ध नहीं हैं। जैसे प्रवीणसागर, बाबी विलास, गवरी कीर्तनमाला आदि ।

प्रस्तुत हस्तलिखित खोज-विवरणिका में हमने दोनों प्रकार के हस्तलिखित ग्रंथों को लिया है। फर्क इतना है कि जहाँ सुप्रसिद्ध हिन्दी ग्रंथों की प्रतिलिपियों का उल्लेख सामान्य रूप में किया गया है, वहीं गुजराती कवियों द्वारा रखे गए मौलिक हिन्दी ग्रंथों की प्रतियों का विवरण विस्तार से दिया गया है।

उपलब्ध हिन्दी ग्रंथों में भाषा की दृष्टि से सर्वाधिक ग्रंथ ब्रजभाषा के हैं। वस्तुतः ब्रजभाषा मध्यकाल में साहित्य-भाषा के पद पर प्रतिष्ठित थी। कृष्ण के लीलाधाम ब्रजमंडल की भाषा होने के कारण जहाँ-जहाँ कृष्णभक्ति पहुँची, वहाँ-वहाँ ब्रजभाषा भी पहुँची। गुजरात पर तो कृष्णभक्ति का अत्यधिक प्रभाव था। वल्लभतथा स्वामिनारायण सम्प्रदाय के अनुयायी गुजराती कवियों ने अपने आराध्य के लीलाधाम व्रज की भाषा 'ब्रजी' में सुन्दर रचनाएँ की हैं। भक्तकवियों के अतिरिक्त विशुद्ध साहित्य-सेवी गुजराती कवियों ने भी ब्रजभाषा में सुन्दर रचनाएँ की हैं, जिनकी हस्तलिखित प्रतियाँ विभिन्न संग्रहालयों में उपलब्ध हैं।

ब्रजभाषा के पश्चात् भाषा की दृष्टि से सर्वाधिक ग्रंथ डिंगल या चारणी भाषा में मिले हैं। राज्याश्रित चारण प्रायः चारणी या डिंगल भाषा में ही रचना किया करते थे। सौराष्ट्र के राजाओं ने राजस्थान के चारणों को आश्रय दिया था, सम्भवतः इसीलिए सौराष्ट्र चारणों का पीहर कहलाता है। चारण कवियों ने जैसे डिंगल में रचनाएँ कीं, उसी तरह सूफी एवं संत कवियों ने अपनी रचनाओं में खड़ीबोली को भी अपनाया है। खड़ीबोली संत-टकसाल की भाषा थी, जिसकी व्याप्ति अखिल भारतीय थी। गुजराती कवियों द्वारा अवधी भाषा में रचे गए ग्रंथ बहुत ही कम दृष्टिगत हुए हैं। संभवतः मध्यकाल में इस प्रदेश में कृष्णभक्ति और ब्रजभाषा को जितनी लोकप्रियता प्राप्त हुई, उतनी रामभक्ति और अवधी भाषा को प्राप्त नहीं हो सकी।

शोधार्थियों, अध्येताओं तथा विद्वानों के लिए इस ग्रंथ को अधिकाधिक उपयोगी बनाने के लिए हमने हस्तलिखित ग्रंथों को एक सुनियोजित योजनानुसार प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया है। हस्तलिखित ग्रंथों की खोज के इस प्रथम भाग में संकलित ५०१ हस्तलिखित प्रतियों की सारिणी लिपिकालानुसार इस प्रकार दी जा सकती है:

विवरणात्मक ग्रंथ-सूचियों की मुख्य उपादेयता छात्रों एवं अनुसंधित्सुओं में जिज्ञासा-वृत्ति को जन्म देना है। इस महत् उद्देश्य की पूर्ति के लिए हमने हस्तलिखित ग्रंथों को अकारादि क्रम से प्रस्तुत किया है। अधिकांशतः ग्रंथ का नाम उसके आरंभ, अंत एवं शीर्षस्थान पर लिखा मिलता है, पर लिपिकार की असावधानी से कहीं-कहीं ग्रंथ-नाम अशुद्ध रूप से प्राप्त हुए हैं। ऐसी अवस्था में हमने उन्हें शुद्ध करके लिखा है, किन्तु जिन ग्रंथों के प्राचीन रूप अद्यावधि प्रचलित हैं, उनको यथावत् रखा गया है। उदाहरण के लिए 'पीपा की परचरी' एवं 'रंकाबंका की परचरी' के नामों को शुद्ध करके 'परिचयी' नहीं लिखा गया है। ग्रंथकार का नाम सामान्यतः ग्रंथ की पुष्पिका में लिखा होता है। कुछ ग्रंथों के प्रारंभ और मध्य में भी ग्रंथकार के नाम का उल्लेख मिलता है, किन्तु कुछ ग्रंथ ऐसे भी प्राप्त हुए हैं, जिनका आदि-अंत खंडित है एवं जिसके रचयिता का उल्लेख मध्य में भी नहीं हुआ है। ऐसी स्थिति में अन्यत्र उपलब्ध प्रतियों एवं प्रामाणिक सूचनाओं के आधार पर ग्रंथकार के नाम का पता लगाने की चेष्टा की गई है। जहाँ ऐसा सम्भव नहीं हो पाया है, वहाँ लेखक अज्ञात रहे हैं।

अधिकांश प्रतियों में रचनाकाल का उल्लेख नहीं मिलता है, अतः हमने उन्हीं ग्रंथों के रचनाकाल को विवरण में स्थान दिया है, जिसका प्रतिलिपि में स्पष्ट उल्लेख है। यही विधि लिपिकाल-लेखन में भी अपनाई गई है। जिन गुटकों में एकाधिक ग्रंथ संयुक्त हैं, वहाँ प्रायः अंतिम ग्रंथ की समाप्ति पर लिपिकाल का उल्लेख मिलता है। संभवतः पूरा गुटका दस-पंद्रह वर्षों की अवधि में सुविधानुसार लिपिबद्ध किया गया हो। ऐसी स्थिति में हमने अनधिकार चेष्टा न करते हुए मात्र अंतिम ग्रंथ के विवरण में ही लिपिकाल को स्थान दिया है। यह एक स्मरणीय तथ्य है कि लिपिकाल के साथ मूल ग्रंथ में कहीं-कहीं मास, पक्ष, तिथि, वार आदि का उल्लेख भी मिलता है, किन्तु हमने अधिक विस्तार में न जाकर केवल संवत् का ही उल्लेख किया है। रचनाकाल एवं लिपिकाल के रूप में अधिकांश ग्रंथों में विक्रम संवत् का ही प्रयोग मिलता है, अतः हमने ईस्वी सन् या शक संवत् का उल्लेख न करके सदैव विक्रम संवत् का ही उल्लेख किया है।

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