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डॉ. कुसुम कुमार: एक प्रयोगधर्मी नाटककार- Dr. Kusum Kumar: Ek Prayogdharmi Natakkar (Biography)

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Specifications
Publisher: Chintan Prakashan, Kanpur
Author Dattatraya Vamanrao Mohite
Language: Hindi
Pages: 111
Cover: HARDCOVER
9x6 inch
Weight 270 gm
Edition: 2015
ISBN: 9788188571970
HBM293
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Book Description

प्राक्कथन

प्राचीन काल से आज तक साहित्य सर्जना के क्षेत्र में पुरुषों के साथ महिलाओं का योगदान रहा है लेकिन तुलना में कम। गृह कार्य की व्यस्तता और परंपरागत बंधनों के बावजूद उन्होंने लोकसाहित्य के भीतर लोकगीत, लोककथा आदि में अपनी प्रतिभा का परिचय दिया है। विश्व में करीबन 90 प्रतिशत लोकसाहित्य का निर्माण मौखिक रूप में स्त्रियों द्वारा ही हुआ है परंतु पुरुष वर्चस्व की मानसिकता के कारण उसकी सर्जनशीलता का सही मूल्यांकन नहीं हो पाया। कविता, कहानी, उपन्यास आदि में स्त्रियाँ निरंतर लेखन कर रही थीं लेकिन नाटक के क्षेत्र में उनका योगदान आरंभिक काल में न के बराबर था। इसके कई करण हैं।

यह सर्वस्वीकृत तथ्य है कि अन्य साहित्यिक विधाओं की अपेक्षा नाटक का अपना अलग स्वरूप होता है। नाटक समाजसापेक्ष और मंचसापेक्ष कला होने के कारण उसके सृजन में अनेक चुनौतियाँ होती हैं। समसामयिक समाज का बोध, शब्द को आँगिक और वाचिक अभिनय में ढालना, व्यावसायिकता का ध्यान रखना आदि के साथ प्रस्तुति के धरातल पर निर्माता, निर्देशक, अभिनेता आदि के साथ संपर्क एवं सहयोग की अपेक्षा होती है। ये सारी चुनौतियाँ रचनाकार को सामाजिक, सांस्कृतिक गतिविधियों के साथ जोड़ती हैं। इन सारी चुनौतियों को सहजता के साथ स्वीकार करना तत्कालीन समाजव्यवस्था की परंपरागत मानसिकता के कारण स्त्री को संभव नहीं था। अशिक्षा, अंधविश्वास एवं पुरुष प्रधान संस्कृति के वर्चस्व के कारण समाज में स्त्री को सोचने और अभिव्यक्त करने का अवसर बहुत कम मिलता था। आरंभिक काल में गद्य और पद्य के क्षेत्र में कुछ मात्रा में वह लेखन कर रही थी लेकिन नाटक के क्षेत्र में उसका लेखन नगण्य था। कारण यह कि जिस समाज में अभिजात वर्ग की स्त्री ही नहीं बल्कि पुरुष वर्ग को नाटक देखना तक निषिद्ध माना आता था उस समाज में नाटक के साथ स्त्री का जुड़ाव कितना कठिन होगा इसकी सहज कल्पना की जा सकती है। परिणामतः उस काल में नाटक लिखना तो दूर नाटक में काम करने के लिए अधिकतर महिलाएँ तैयार नहीं होती थी। इस प्रकार का काम करने वाली कलाकार वर्ग की स्त्रियों को समाज अलग दृष्टि से देखता था। उसे कुलीन नहीं माना जाता था। ऐसी हालत में उच्च वर्ग की शिक्षित स्त्री द्वारा नाटक लिखना अलग अर्थ रखता था। इसी कारण नाटक के क्षेत्र में स्त्रियों का अधिक झुकाव नहीं था। परिणामतः नाटक के क्षेत्र से वह हमेशा दूर रहीं। इस संदर्भ में 'हिंदी साहित्य का आधा इतिहास' पुस्तक में सुमन राजे कहती हैं- "एक बार कथा साहित्य को अपनाने के बाद महिला रचनाकार, बहुत कम लगभग न के बराबर अन्य विधाओं की ओर गर्मी। इसके ठोस सामाजिक और रचनात्मक कारण जरूर रहे होंगे। एक सूत्र तो निर्विवाद रूप से स्वीकार किया जा सकता है, वह यह कि कथेतर गद्य खुले मैदान का गद्य है इसलिए महिला रचनाकारों ने उस ओर आने का साहस, हाँ साहस कम किया है।" इस संदर्भ में मराठी के ख्यातनाम नाटककार विजय तेंदुलकर जी भी एक जगह लिखते हैं "अन्य माध्यमों की तुलना में नाटक अधिक तकनीकी माध्यम है। इसमें पूरी तरह से समरस हुए बगैर, उसे अपने मस्तिष्क में उतारे बगैर वह आत्मसात नहीं होता। कई कारणों से यह अवसर स्त्रियों को न मिलने के कारण लेखन करने वाली स्त्रियाँ या तो इस माध्यम में आयी नहीं या एकाध नाटक से ज्यादा वह टिक नहीं पाईं। मजे की बात यह है कि कई अभिनेत्रियाँ आईं और सफल हुईं, निर्देशिकाएँ आई और सफल हुई लेकिन नाटककार के रूप में कोई भी स्थिर नहीं हो पाई।

बावजूद इसके परंपरागत विचार और संस्कृति को त्यागकर आरंभिक काल में कुछ महिलाओं ने नाट्य लेखन का प्रयास जरूर किया है। इनमें लाली देवी का नाम महत्त्वपूर्ण है। भारतेंदु के काल में लिखे 'गोपीचंद' नाटक के माध्यम से उन्होंने महिला नाट्य लेखन की नींव डाली।

1850 से 1950 तक के सौ वर्ष के कालखंड में कुछ ही महिला नाटककारों के नाम उभरकर आते हैं जिन्होंने नाट्य लेखन का प्रयास किया है। इनमें लाली देवी (गोपीचंद), डॉ. कंचन लता सब्बरवाल (आदित्य सेन गुप्त, भीगी पलकें, अनंता, लक्ष्मी बाई, आँधी और तूफान, माँ की लाज आदि)

स्वातंत्र्योत्तर काल में बदलती सामाजिक एवं सांस्कृतिक स्थितियों के चलते बौद्धिक एवं सामाजिक क्षेत्र में महिलाएँ विकसित हुई। इसी समय स्त्रीवाद विश्वभर के चिंतन के केंद्र में आ चुका था। नारी की तरफ देखने का दृष्टिकोण भी बदल चुका था। परिणामतः अनेक महिलाएँ नाटक के क्षेत्र में सफलता के साथ योगदान दे रही थीं। इनमें मन्नू भंडारी, कुंथा जैन, रूपवती किरन, मालती श्रीखंडे, मृदुला गर्ग, शांति मेहरोत्रा, मृणाल पांडे, रेखा जैन, अलका सरावगी, गिरीश रस्तोगी आदि कई नाम सामने आते हैं, जिन्होंने नाट्यलेखन को सफल एवं सार्थक बनाया। इक्कीसवीं सदी के आरंभिक दशक में भी मीराकांत, मैत्रेयी पुष्पा, उषा गांगुली, नादिरा बब्बर आदि महिला नाटककार सार्थक लेखन कर रही हैं। इनमें डॉ. कुसुम कुमार का योगदान भी अत्यन्त सराहनीय रहा है।

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