बीसवीं सदी के दूसरे दशक से नवें दशक तक अपनी बहुआयामी सर्जनात्मक प्रतिभा से हिन्दी के पाठकों को संवेदित, चमत्कृत तथा प्रबोधित करनेवाले महान् रचनाकार डॉ० रामकुमार वर्मा की २००४-०५ ई० में देश के कोने-कोने में जन्मशताब्दी मनाई गई। अनेक विश्वविद्यालयों, कॉलेजों, संस्थाओं तथा प्रतिष्ठानों ने वर्माजी के साहित्य से सम्बन्धित गोष्ठियों का आयोजन किया। अनेक पत्र-पत्रिकाओं ने वर्माजी के व्यक्तित्व और कृतित्व से सम्बन्धित विशेषांक निकाले या निकालने का संकल्प लिया। गोष्ठियों में कुछ विद्वानों के सुझाव आए कि डॉ० रामकुमार वर्मा के कृतित्व का नए सिरे से मूल्यांकन विश्लेषण किया जाना चाहिए। कुछ विद्वान् जो नाट्यविद्या के विशेषज्ञ माने जाते हैं उनका केवल एकांकीकार रामकुमार वर्मा से परिचय था, पूर्ण नाटकों के प्रणेता वर्माजी से वे अनभिज्ञ थे। जहाँ वर्माजी के कवि व्यक्तित्व की परिचर्चा हुई वहाँ हिन्दी साहित्य सम्मेलन द्वारा प्रकाशित 'आधुनिक कवि' में संकलित कविताओं तक ही आलोचकों की पहुँच देखी गयी। साहित्य की साधना मूलतः अखंड की साधना है। किसी रचनाकार को सम्पूर्ण पहचान उसकी समूची रचनाधर्मिता के साक्षात्कार के बिना संभव नहीं है। डॉ० वर्मा को हमारे बीच से प्रस्थान किए बीस वर्ष भी नहीं हुए, हमने वर्माजी को एकांकी का सम्राट् बनाकर शेष बहुत बड़े रचना-साम्राज्य से जैसे बेदखल कर दिया। रचनाओं पर रचयिता का नाम भले ही अंकित हो यदि हम तथाकथित साहित्यिक (जो वास्तव में असाहित्यिक हैं) कूड़े के ढेर में महत्त्वपूर्ण कृतियों को छिपाने की दुरभिसंधि करें तो कुछ दिनों या वर्षों तक उन्हें नयी पीढ़ी की दृष्टि से ओझल अवश् कर लेगा।
आचार्य विद्यानिवास मिश्र ने अपने एक भाषण में कहा था कि इक्कीसवीं शताब्दी विस्मरण की शताब्दी है, इसी शताब्दी में डॉ० रामकुमार वर्मा का अनेक रूपों में स्मरण किया जाना महत्त्व की बात है। वर्माजी उन विरले साहित्यकारों में हैं जिन्हें विकास हेतु निरन्तर अनुकूल वातावरण मिला। जिस परिवार के पूर्वज ईस्ट इंडिया कम्पनी के विरुद्ध घमासान संघर्ष करनेवाले विश्राम सिंह थे, उसी परिवार के राम के परमभक्त कवि शोभाराम थे। डिप्टी कलेक्टर एवं काव्य-रसिक लक्ष्मीप्रसादजी तथा 'वियोगिनी' उपनाम से काव्यरचना करनेवाली श्रीमती राजरानी देवी के सुयोग्य पुत्र थे रामकुमारजी। वर्माजी के साहित्यिक मिजाज के निर्माण में उनका पारिवारिक परिवेश तो जिम्मेदार है ही, युग-परिवेश की भूमिका भी कम नहीं है। वर्माजी ने जिस युग में साहित्य के क्षेत्र में पदार्पण किया उस युग में नवजागरण की लहर से सम्पूर्ण भारत उद्वेलित था।
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