वस्त्रों का महत्च मौसम, कार्यक्षेत्र, भूगोल और समाज की पहचान के साव जुड़ा है। रंगों का अपना मनोविज्ञान भी है अतः जीवन में इनकी विशेष उपादेयता भी।
वस्त्रों को रंग छापकर और उन्हें चित्रित कर सुन्दर बनाने की परम्परा सभ्यता के आरम्भिक काल से चली आ रही है। इस क्षेत्र में राजस्थान का विशिष्ट योगदान रहा है, यहां के नीलगर, रंगरेज, बंधेरों और छीपों की कार्यकुशलता विश्वविख्यात है। कालक्रम के साथ वस्त्रों का जुड़ाव हमारे सामाजिक रीति-रिवाजों के साथ भी हुआ। बच्चे का जन्म हो- माँ पीला पहनेगी, घर में विवाह हो, कोई शुभ अवसर हो- चुनरी आवश्यक है, भाई की चुनरी के बिना विवाह सम्पन्न नहीं हो सकता। बरसात का मौसम हो, रिमझिम बूंदें पड़ रही हों तो लहरिया पाग और ओढ़नियां पहनी जाती है। फागुन में फागण्या का महत्व है।
जयपुर से लगभग 35 किलोमीटर दूर पश्चिम में बगरू तथा 15 किलोमीटर दूर दक्षिण में सांगानेर परम्परागत रंगाई और छपाई के प्रमुख केन्द्र रहे हैं और आज भी हैं। पर आधुनिकीकरण और औद्योगिकीकरण के साथ इनका स्वरूप तेजी से बदल रहा है। बावजूद इसके अमरीका जैसे औद्योगिक और विकसित देश में इन्हीं कला तकनीकों पर हाथ से बने एवं छपे वस्त्रों की मांग इनके गुणों के कारण बढ़ रही है। बगरू की तरह ही छपाई के लिए प्रसिद्ध एक गांव है अकोला, जो चित्तौड़ जिले में बेड़च नदी के तट पर बसा हुआ है। आजकल यह गांव भी अपनी रंगाई और छपाई के लिए आसपास ही नहीं, अन्य प्रदेशों एवं देश के बाहर भी ख्याति प्राप्त कर रहा है। पश्चिमी राजस्थान में पाली-मारवाड़ भी रंगाई-छपाई का एक बहुत बड़ा केन्द्र रहा है। इसके अलावा जैसलमेर में मोम की दाबू का काम विशेष होता है और सर्दी के मौसम मौसम में रात्रि के समय ही आमतौर पर किया जाता है।
बचपन से देखता आ रहा हूं इन मनोहारी रंगों एवं बेल-बूटों का संसार। इनके प्रति मेरे आकर्षण की परिणति ही इस पुस्तक के रूप में सामने आई है।
पिछले वर्षों में इन्हें निकट से देखने का मौका मिला। बगरू के स्वर्गीय रामगुलाम, अकोला के नामदेवजी, जयपुर के मिठूजी नीलगर से घंटों चर्चाएं हुई। उन्हीं पर आधारित आलेख आगे के पृष्ठों में आप पढ़ेंगे।
इस बहुरंगी पुस्तक को प्रस्तुत करना मेरे अकेले के वश की बात नहीं थी। मित्रों, सहयोगियों और साथियों की सहायता से ही यह कार्य सम्पन्न हो सका, उन सबका आभार।
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