अपनी बात सोइ जानइ जेहि देइ जनाई मेरा पूरा परिवार करीब चार पीढ़ियों से इस महान् साधक अवधूत भगवान् राम का भक्त रहा है। इसमें मेरे स्मृति शेष पूज्य पिता हीरा सिंह और मेरी पूजनीयाँ माता श्रीमती सुशीला देवी तो बाबा से अनुराग की पराकाष्ठा थी। उनकी कोई भी बात बाबा से ही आरम्भ होती और उन्हीं पर जाकर समाप्त होतीं। उनके लिए मेरी पढ़ाई-लिखाई की सार्थकता तभी थी जब जब मुझमें बाबा पर कुछ लिखने की काबलीयत आ जाय। अगर मैं इस काबिल नहीं तो उनके लिए मेरी शिक्षा का कोई मायने नहीं। मेरी माँ-बाबूजी ही मेरे सबसे बड़े साक्षात् देवता थे, यद्यपि उन्होंने अपने जीते-जी मुझसे कुछ नहीं कहा परन्तु इतना तो मैं समझ ही सकता था उनके चरणों में मेरी सबसे मूल्यवान सेवा क्या हो सकती है। बस मैंने एक दिन तय कर लिया। अपना संशयात्मक चित्त लिए अपने माता-पिता के श्रद्धा-भक्ति की ऊँगली पकड़े हुए बाबा के पद चिन्हों की तलाश में निकल पड़ा। मेरे ऊपर एक जूनून सवार हो गया। तिनका-तिनका जुटाने लगा पर चित्त पर तो वही संशय छाया हुआ था। मेरे सामने भी वही रूपक उभरा। एक बेसुध बाँवला-सा पुरुष अपनी पीड़ा से विगलित अश्रू पूरित नयन लिए पशुओं, पक्षियों, पहाड़ों, वनस्पतियों से पूछता फिर रहा है, क्या तुमने मेरी प्रिया को देखा है? मेरा संशय और दृढ़ हो उठा। अब क्या इससे भी बड़ा कोई बाँवलापन हो सकता है? जी किया जाकर पूहूँ- 'अरे महापुरुष इन वृक्षों, वनस्पतियों, पहाड़ों से तुम ये क्या पूछ रहे हो? क्या तुम्हें इतनी भी समझ नहीं ! लेकिन दूसरे ही क्षण मुझे ऐसा लगा कि किसी पहाड़ से टकराकर प्रतिध्वनित हो वह प्रश्न मेरी ही ओर लौट आया। जैसे कोई मुझी से ही पूछ रहा हो, क्या तुम्हें इतनी भी समझ नहीं? उसके बाद तो मेरी भीतरी आँख खुलती ही चली गई। अँधेरा छँटता ही चला गया। संशय पिघलता ही चला गया। मेरी माँ-बाबूजी भगवान् शिव की तरह श्रद्धा लिए हुए अपनी जगह अटल दिखे पर मेरा अहंकार उनके चरणों में नतमस्तक था। इस रूपक का पूरा मतलब आप अघोरेश्वर की यह कथा पढ़ते हुए आगे अच्छी तरह समझ जायेंगे। जब आप पाएंगे एक सिद्ध, पहुँचा हुआ फकीर जिसने अपनी इंगिति मात्र से कितनों को बड़े-बड़े संकटों से सहज ही उबार दिया। वही अस्पताल-दर-अस्पताल, डाक्टर-दर-डाक्टर घूमता फिर रहा था। उसे देखकर तो किसी को संशय हो सकता था परन्तु जब मैंने 29 दिसंबर, 1989 और 19 अप्रैल, 1990 को उनकी महती कृपा से उनके विराट रूप का दर्शन किया। मेरा सारा संशय क्षण मात्र में गाफूर हो गया। इस बात का पूरा विवरण फकीर की लकीर' के कुछ कथा आनंद के हवाले से' में विस्तार से आप को मिल जायेगा। इसके द्वारा अघोरेश्वर ने दुनिया को जो संदेश दिया। उसे आधुनिक भाषा में कहा जाय तो थिंक ग्लोबली, ऐक्ट लोकली ! थिंक कॉस्मॉस्ली, ऐक्ट वर्ल्डली ! मतलब तुम्हारी प्रज्ञा तो उस ईश्वर में स्थित रहे लेकिन अपना आचार व्यवहार अपने देश, काल की मर्यादा में रहे। तेन त्यक्तेन भुंजीथा। प्रबिसि नगर कीजै सब काजा, हृदय राखि कौशलपुर राजा ।। जिह्वा सो श्री राम जप हत्थन सों कर काम। अघोरेश्वर ने जो ज्ञान पाया उसे समस्त समाज को अर्पित कर दिया। उनके कार्यों की महत्ता को 'द गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स' और 'लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्ड्स' जैसी विश्व विख्यात संस्थाओं ने माना। आइंस्टीन ने अपनी खोज द्वारा यह बताया कि पदार्थ और ऊर्जा में एक निरंतरता है। एक को दूसरे में बदला जा सकता है। वैसे ही संतों ने कहा है कि सृष्टि के कण-कण में ईश्वर का वास है। जड़ से चेतन तक में एक निरंतरता है। परमात्मा और संसार में कोई भिन्नता नहीं है। दोनों के बीच भिन्नता देखना ही हमारा अज्ञान है। अर्थात् जहाँ गति और स्थिति, कार्य और कारण, जड़ और चेतन, एक हो जाते हैं वहीं परमात्मा का वास है। यही परमार्थ है। इसीलिए न संसार त्याज्य है न अलौकिकता। न लोक त्याज्य है न लोकोत्तर। दोनों का संतुलन ही सार्थक जीवन है। सिया राम मय सब जग जानी, करौं प्रणाम जोरि जुग पानी। इसी भाव से जीना सच्चा जीवन है। अघोरेश्वर की पूरी कथा इसी सत्य की प्रतीति है। सम्प्रति अघोरेश्वर भगवानराम की इस महान् परम्परा का संवहन जो तेजस्वी संत कर रहे हैं। उन्हें आज यह पूरा देश गुरुपद पूज्य अवधूत सम्भवरामजी के नाम से जानता है। प्रातः स्मरणीय सदगुरु सम्भवरामजी इस पद पर आसीन होने से पहले मध्यप्रदेश की एक रियासत नरसिंहगढ़ के राजकुमार हुआ करते थे परन्तु बचपन से ही इनके अंदर के विरक्ति के भाव को देखकर, एक दिन इनके पिता पूर्व राज्यपाल महाराज भानु प्रताप सिंह ने इनकी इच्छा का सम्मान करते हुए इन्हें बाबा भगवान राम का शिष्यत्व ग्रहण करने की अनुमति प्रदान कर दी। पूज्य सदगुरु सम्भव राम जी ही आज बाबा भगवान राम के सर्वेश्वरी समूह, बाबा भगवान राम ट्रस्ट एवं अघोर परिषद् ट्रस्ट, पड़ाव, वाराणसी के अध्यक्ष हैं। इन्हीं की देख-रेख में आज अघोरेश्वर के सारे सेवा कार्य पूरी गरिमा के साथ उन्नति के पथ पर अग्रसर हैं। मैं प्रातः स्मरणीय पूज्य सदुरु सम्भवराम जी को इस पूरी परम्परा का साकार रूप मानकर आदि से आजतक सभी ज्ञात और अज्ञात संतों के पूज्य चरणों में अपना विनम्र प्रणाम निवेदित करता हूँ। और उनसे पूर्व में इस पुस्तक के डमी रूप जिसे अब निरस्त कर दिया गया है की त्रुटियों के लिए तथा अन्य जानी-अनजानी त्रुटियों के लिए क्षमा मांगते हुए अपने संकल्प के पूर्ण होने का आशीर्वाद मांगता हूँ। मैंने अपनी इस पुस्तक फकीर की लकीर' के लेखन कार्य को बहुत ही चुपचाप किसी अनुष्ठान की तरह पूरा किया है। मेरे इस कार्य में अनगिनत लोगों ने बिना मुझसे कोई प्रश्न पूछे मेरी विविध प्रकार से अहेतुक सहायता की है। मैं उनसब के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करता हूँ। इन्हीं में जिन्होंने विशेषतौर पर मेरी बहुविध सहायता की है। उसमें हैं- साहित्य भूषण डॉ० जितेंद्र नाथ मिश्र, सम्पादक जी पं० नरेंद्र नाथ मिश्र के उपकार को मैं कभी नहीं भूल सकता। इसके अतिरिक्त जिन्होंने मेरे कार्य को प्रेरित किया है उनमें मेरे चाचा पूर्व कुलपति डॉ० शिवशंकर सिंह, मेरे अनुज डॉ० सुबास सिंह जिन्होंने परिवार में पीढ़ियों से चली आ रही अंत्येष्टि की रूढ़ि को तोड़ने का साहस करके अघोरेश्वर की सहज विधि को अपनाने का मार्ग प्रशस्त किया। यहीं मैं हंस प्रकाशन दिल्ली एवं वाराणसी के प्रतिनिधि श्री राजीव गोंड का भी धन्यवाद करता हूँ।
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