कोई बीसेक साल पुरानी बात है। एक मित्र का फोन आया, आजकल तो खूब लिखने-छपने लगे हो। कभी गोविंद शर्मा के नाम से तो कभी गोविंद शर्मा 'भारद्वाज' के नाम से। मैंने मित्र को बताया कि मैंने तो कभी गोविंद भारद्वाज के नाम से कभी कुछ नहीं लिखा। उस मित्र की गलतफहमी फिर भी दूर नहीं हुई।
काफी समय के बाद गोविंद शर्मा और गोविंद शर्मा 'भारद्वाज' की मुलाकात भीलवाड़ा में हुई। तब दोनों में सहमति बनी कि एक गोविंद शर्मा के नाम से तथा दूसरा गाविंद भारद्वाज के नाम से लिखेगा। अब भी कभी-कभी लोग भ्रमित हो जाते हैं। जहाँ अजमेर वाले गोविंद भारद्वाज की सराहना होनी चाहिए, वहाँ मेरी हो जाती है। मेरी आलोचना करने के इच्छुक उनकी कर जाते हैं।
मेरा और गोविंद भारद्वाज का नाम ही नहीं, काम भी मिलता-जुलता है। मैं बाल साहित्यकार, वे भी। मैं लघुकथाकार और व्यंग्यकार, वे भी। हाँ, एक क्षेत्र में वे मेरे से कई कदम आगे हैं। वे कविता-गजल, पहेलियाँ, गीत, क्षणिकाएँ वगैरह खूब लिखते हैं, मंचीय कवि भी हैं। इन विधाओं में मैं बिल्कुल भी नहीं लिखता। उनकी कई पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं, इनमें ज्यादा बाल कहानी संग्रह ही हैं। इस समय की बात उनके बाल कथा संग्रह 'गिल्ली डंडा' की है।
गिल्ली डंडा' की पांडुलिपी का उन्होंने मुझे पीडीएफ भेजा। मोबाइल या कंप्यूटर पर पढ़ना मेरे लिए सरल नहीं था। पढ़ना जरूरी था। इसलिए मैंने पूरी पांडुलिपी का प्रिन्टआउट निकलवाया। 29 कहानियाँ एक से बढ़कर एक। वैसे संख्या देखकर चिंता न करें। सभी कहानियाँ छोटे आकार में, बाल पाठक की पठन क्षमता के अनुकूल हैं। यह खूबी उनके ऊर्जा से भरपूर होने की पुष्टि भी करती है। मुझे खुशी है कि मेरे मित्र इस बालकथा लेखक के लेखन में मौलिकता है, महारत है लिखने की, ये वे अपने चिंतन का सहारा लेते हैं न कि लोक कथा या नैतिक कथा का।
संग्रह की पहली कहानी है 'गिल्ली डंडा'। कहानी में कई संदेश हैं। सबसे पहला तो यही कि हमें महँगे और बनावटी खेलों की बजाय हमारे यहाँ के परंपरागत खेल खेलने में रुचि लेनी चाहिए। एक बच्ची 'लाली' ने यही निर्णय किया। खुशी की बात यह है कि किसी बच्चे ने उसकी बात का विरोध नहीं किया। सारे बच्चे 'गिल्ली डंडा' खेलने के लिये तैयार हो गये। खेल-खेल में बच्चे समाज और देश की सुरक्षा करने तक पहुँच गये निःसंदेह परम्पराओं का पालन लाभप्रद होता है।
संग्रह की अंतिम कहानी 'सही निर्णय' भी रोचक व शिक्षा देने वाली है। हमें हर किसी की नियत पर संदेह नहीं करना चाहिए। हमें प्रयास अपने अच्छे काम का करना चाहिए। निर्णायक भी यदि निष्पक्ष रहेंगे तो सुपात्र को तो योग्य मिलेगा ही, निर्णायक की भी इज्जत बढ़ेगी।
अब बातचीत को 27 कहानियों की भूमिका के लिये उपलब्ध स्थान को देखें तो सारी कहानियों का यहाँ जिक्र संभव नहीं है। फिर भी कहानी 'मूर्ख पेड़', पियानों का भूत, एक ही सपना, अद्भुत खिलौने, मुन्ना भाई, नौकायन प्रतियोगिता, कैसा रहा ड्रामा, मिट्टी के दीये आदि ने आकर्षित किया है। मूर्ख पेड़ में सीख है कि अपनी मजबूती या बड़े होने का घमंड नहीं करना चाहिए। जिस तरह हमारे शरीर के हरेक अंग का महत्व होता है, पेड़ के हर टहनी-पत्ते का महत्व होता है, उसी तरह समाज, देश में सबका अपना-अपना महत्व होता है, सबकी जरूरत होती है।
'एक ही सपना' में सीख है कि हमें जागते हुए भी सपने देखने चाहिए, उसे देखकर ही नहीं रह जाना है। परिश्रम द्वारा सपना पूरा करने की क्षमता भी अर्जित की जानी चाहिए।
'पियानो का भूत' मनोरंजक कहानी है। सीख यही है कि भूत-प्रेत कुछ नहीं होते हैं, हमारा 'डर' ही उन्हें जन्म देता है। 'मिट्टी के दीये' स्वदेशी विचार के साथ स्वदेशी वस्तुओं के इस्तेमाल की सीख देती है। साफ-सफाई की सीख मनोरंजन के साथ दी गई है कहानी- कैसा रहा ड्रामा में।
नकल करके या गलत तरीके से 'योग्य' बनने वालों के लिये 'मुन्ना भाई' शब्द प्रचलित हो गया है। बिना डॉक्टरी की पढ़ाई किये डॉक्टर बनने वाले कालू बंदर की कहानी 'मुन्ना भाई'। वह पीलू की सूझबूझ से पकड़ा जाता है। इन मुन्ना भाइयों से सावधानी की सीख मिलती है इस कहानी से। इसी तरह 'अद्भुत खिलौने' कहानी में रोचकता के साथ सीख है।
इनके अलावा भी अन्य कहानियों में सीख, रोचकता, आकर्षण, मनोरंजन है। ये ही वे अनिवार्य तत्व हैं जो बाल साहित्य में होने चाहिए। श्री गोविंद भारद्वाज शिक्षक/प्राचार्य हैं। इस नाते वे बच्चों के निकट संपर्क में रहते हैं। किसी बालक की आकांक्षाएँ, समस्याएँ, क्या हो सकती हैं, इसकी उन्हें जानकारी रहती है। हम बच्चों की दुनिया से अवगत होंगे, तभी उपयोगी बाल साहित्य की रचना कर सकेंगे। इस तरह की सुविधा ऐसे अवसर श्री गोविंद भारद्वाज को हर समय उपलब्ध होते हैं।
सबसे बड़ी बात है कि उन्होंने लेखन के लिए लेख नहीं किया बल्कि समर्पण भाव से बाल साहित्य के महत्व को प्रतिष्ठा प्रदान की। हर कहानी में सीख डालने और मनोरंजन, घटना और रोचक भाषा प्रस्तुत करने से नहीं चूके हैं। मैं आशा करता हूँ कि हिन्दी बाल साहित्य के भंडार में महत्वपूर्ण योगदान की इस प्रक्रिया को आगे बढ़ाते रहेंगे और यह संग्रह 'गिल्ली डंडा' बाल साहित्य पाठकों के लिए उपयोगी सिद्ध होगा। शुभकामनाएँ...
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