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गीता-तत्त्व-बोध- Gita-Tattva-Bodh (Simple Explanation of Srimad Bhagavad Gita with Semantics)

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Specifications
Publisher: Sarva Seva Sangh Prakashan, Varanasi
Author Balkoba Bhave
Language: Hindi
Pages: 868
Cover: HARDCOVER
9.5x7.5 inch
Weight 1.72 kg
Edition: 2011
HBO392
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Book Description
पुस्तक का पिछला भाग
हिन्दुओं के प्रमाणभूत ग्रन्थ तीन माने जाते हैं- उपनिषद्, ब्रह्मसूत्र और गीता। प्राचीनकाल से वेद प्रमाणभूत ग्रन्थ माने गये हैं। वेद के दो भाग हैं- कर्मकाण्ड और ज्ञानकाण्ड। ज्ञानकाण्ड यानी उपनिषद् । उपनिषद् सामान्य मनुष्य के लिए कठिन हैं। उपनिषद् में परस्पर-विरुद्ध प्रतीत होनेवाले वचनों की एकवाक्यता के लिए ब्रह्मसूत्र की रचना की गयी है। ब्रह्मसूत्र भी सामान्य मनुष्य के लिए कठिन है। श्रीमद्भगवद्गीता सामान्यजन के लिए सरलता से समझ में आने-जैसी रचना है।

गीता में जिन विविध आध्यात्मिक विषयों का निरूपण किया गया है, उनके अर्थों के सम्बन्ध में मतभेद की गुंजाइश होने से शंकराचार्य ने अपने गीता-भाष्य की शुरुआत में ही लिखा है : 'तद् इदं गीताशास्त्रं समस्तवेदार्थसारसंग्रहभूतं दुर्विज्ञेयार्थम्' -यह गीता-शास्त्र समस्त वेदों का सार है, पर उसका अर्थ दुरूह हो गया है। अब तक प्रादेशिक भाषाओं में गीता पर जितने ग्रंथ लिखे गये हैं, उनमें विनोबाजी के 'गीता प्रवचन' ग्रंथ में संन्यास, कर्मयोग, सगुण-निर्गुण भक्ति आदि विषयों का जैसा स्पष्टीकरण हुआ है, वैसा अन्यत्र शायद ही मिलता है। इसी कारण 'गीता-प्रवचन' सर्वमान्य ग्रन्थ हो गया है। किन्तु 'गीता प्रवचन' में हरएक श्लोक का विवेचन नहीं है। हरएक श्लोक पर लिखे गये ग्रन्थ यों तो बहुत हैं, लेकिन उनमें एक-एक श्लोक के समस्त मुद्दों पर सविस्तर विवेचन प्रायः नहीं मिलता है। इस गीता-तत्त्व-बोध ग्रन्थ में यह प्रयास किया गया है। साथ ही सामान्य जनों के लाभार्थ सुबोध भाषा में विवेचन करने का प्रयत्न किया गया है। इस ग्रन्थ से सामान्य मनुष्य के जीवन-उत्थान में सहायता मिल सकी, तो समझेंगा कि यह ग्रन्थ-लेखन सफल हुआ।

पुस्तक परिचय
'गीता-तत्त्व-बोध' ग्रन्थ में गीतोक्त विषय अत्यन्त सरल भाषा में दृष्टान्तों तथा उदाहरणों द्वारा स्पष्ट किया गया है। इस ग्रन्थ की विशेषता यह है कि इसमें एक-एक श्लोक के समस्त मुद्दों पर सविस्तर विवेचन किया गया है। यह ग्रन्थ वस्तुतः सामान्य भक्त, जिज्ञासु तथा आत्मार्थीजनों के लिए बड़ा संबल है।

लेखक परिचय
प्रस्तुत 'गीता-तत्त्व-बोध' ग्रन्थ के प्रणेता बालकोबाजी युग-संत विनोबाजी के अनुज थे। बाल्यकाल से ही आपकी अभिरुचि अध्यात्म की ओर रही। विज्ञान-प्रिय पिता और अध्यात्मनिष्ठ भक्तिपरायणा माता तथा प्रतिभा सम्पन्न अग्रज के सान्निध्य में बालकोबाजी के आध्यात्मिक व्यक्तित्व का विकास हुआ। संगीत के आप अच्छे ज्ञाता थे। संस्कृत, मराठी, गुजराती, हिन्दी और अंग्रेजी का आपको अच्छा ज्ञान था। संतों के भजनों को आप केवल जबान से नहीं गाते थे, बल्कि उनमें अपनी आत्मा उँडेल देते थे।

वर्ष में छह महीने आप ब्रह्मविद्या-मंदिर, पवनार में रहकर ब्रह्मविद्या की जिज्ञासु बहनों को दुरूह और कठिन अध्यात्मग्रन्थ सरल और सुबोध भाषा में समझाते थे।

प्रकाशकीय
पूज्य बालकोबाजी भावे के 'गीता-तत्त्व-बोध' अन्य के दोनों खण्ड सुहद् पाठकों के हाथों में पहुँचाते हुए हमें बड़ी प्रसत्रता हो रही है। सम्पूर्ण 'गीता-तत्त्व बोध' ग्रन्थ दो खण्डों में है। पहले खण्ड में प्रथम आठ अध्यायों का विवेचन है। दूसरे खण्ड में शेष नी से अठारह तक दस अध्यायों का विवेचन है। बालकोबाजी का यह भाष्य-ग्रन्य विषय को अत्यन्त सरल भाषा में, दृष्टान्तों तथा उदाहरणों द्वारा स्पष्ट करता है। गीता-जैसे गूढ़ तथा दार्शनिक अन्य का तत्त्वज्ञान एक अति सामान्य भक्त, जिज्ञासु तथा आत्मार्थी आसानी से समझ सके, इस दृष्टि से बालकोबाजी ने बड़े परिश्रम से यह वृहद् भाष्य लिखा। उनकी यह प्रसादी बहुत ही मूल्यवान है।

बालकोबाजी हिन्दी के विद्वान्, भाषा-शास्त्री या लेखक नहीं थे। वे अपनी बात सीधे-सादे शब्दों में कहते चले जाते थे। फिर भी उनकी भाषा की अपनी एक मधुरता है, प्रासादिकता है, जो भक्तों को, जिज्ञासुओं को आकर्षित करती है। वे शास्त्री नहीं, अनुभवी थे। उन्होंने अपने जीवन में जो कुछ अनुभव किया, जैसे किया, उसीको सरल-सुबोध भाषा में रख दिया। इसलिए ऐसे भाष्य का मूल्य शास्त्रीयता एवं विद्वत्ता से बहुत अधिक है।

बालकोबाजी ने इस ग्रन्थ के पूर्व 'ब्रह्मसूत्र शांकरभाष्य' का भी ऐसा ही सरल विवेचन हिन्दी-जगत् को प्रदान किया। वह अन्य परंधाम-प्रकाशन, पवनार (वर्धा) से प्रकाशित हुआ है। पतंजलि-कृत योगशास्त्र के चुने हुए योग-सूत्रों पर भी 'जीवन-साधना' नाम से आपने एक उपयोगी पुस्तिका लिखी, जिसमें जीवनोपयोगी प्राक्-सूत्रों का विवेचन है।

गीता 'समत्वयोग' का अद्वितीय ग्रन्थ है। गांधीजी और विनोबाजी ने गीता की इस विशेषता को अनेक रूपों में प्रकट किया है। बालकोबाजी ने अपने इस भाष्य में इन्हीं दोनों की विचारधारा को विशद किया है। एक तरह से कह सकते हैं कि इस भाष्य में सर्वोदय-विचार की सर्वांग रूप से प्राण-प्रतिष्ठा करने का प्रयास बालकोबाजी ने किया है। जन-सेवा, कर्म-सातत्य, जीवन-व्यवहार में अनासक्ति, इसी देह में मुक्ति का अनुभव तथा सर्वत्र हरि-दर्शन का तत्त्वज्ञान युगानुकूल तो है ही, जीवन को उत्प्रेरित भी करता है। उन्होंने विवेचन में श्री शंकराचार्य, तुलसीदासजी तथा उपनिषदों का भी सहारा स्पष्टीकरण के लिए लिया है।

इस ग्रंथ के संपादन-संशोधन में जिन साथियों तथा आत्मीयजनों ने परिश्रम किया है, उन सबके हम हृदय से आभारी है। साधु सेवानन्दजी ने ग्रन्थ को बारीकी से देखा और अनेक संशोधन सुझाये। श्री जमनालाल जैन ने तीन हजार पृष्ठों की टंकित भाष्य-सामग्री का सम्पादन संशोधन बालकोबाजी की भाषा, शैली और भावों की रक्षा करते हुए काफी समय देकर बड़ी आत्मीयता और कुशलता से किया और दूसरे तथा तीसरे संस्करण के समय भी यथोचित भाषा-परिष्कार के साथ मुद्रण-कार्य में भी सहयोग प्रदान किया। श्री गौतम बजाज ने भी इसके सम्पादन-प्रकाशन में समय-शक्ति लगायी। वेदान्त के विद्वान् श्री गोविन्द नरहरि वैजापुरकर शास्त्री ने संस्कृत-वचनों की दृष्टि से यथेष्ट जागरूकता रखी।

इस ग्रंथ का तृतीय संस्करण पू० बालकोबाजी की जन्म शताब्दी के पुनीत अवसर पर प्रकाशित हो रहा है। आशा है. पूर्व की भांति इस तृतीय संस्करण का भी जिज्ञासु पाठकों साधकों द्वारा स्वागत होगा ।

दो शब्द
हिन्दुओं के प्रमाणभूत ग्रन्थ तीन माने जाते हैं- उपनिषद्, ब्रह्मसूत्र और गीता । प्राचीनकाल से वेद प्रमाणभूत ग्रन्थ माने गये हैं। वेद के दो भाग हैं-कर्मकांड और ज्ञानकांड। ज्ञानकांड यानी उपनिषद् । उपनिद् सामान्य मनुष्य को समझने में कठिन हैं। उपनिषद् में परस्परविरुद्ध प्रतीत होनेवाले वचनों की एकवाक्यता के लिए ब्रह्मसूत्र की रचना की गयी है। ब्रह्मसूत्र भी सामान्य मनुष्य की समझ में आने-जैसा ग्रन्थ नहीं है। श्रीमद्भगवद्‌गीता की रचना सामान्य व्यक्ति की समझ में आसानी से आने-जैसी है।

गीता में जिन विविध आध्यात्मिक विषयों का निरूपण किया गया है, उनके अर्थों के सम्बन्ध में मतभेद की गुंजाइश होने से शंकराचार्य ने अपने गीता-भाष्य की शुरुआत में ही लिखा है : "तद् इदं गीताशास्त्रं समस्तवेदार्थसारसंग्रहभूतं दुर्विज्ञेयार्थम् । यह गीताशास्त्र समस्त वेदों का सार है, पर उसका अर्थ दुरूह हो गया है।" अब तक प्रादेशिक भाषाओं में गीता पर जितने ग्रंथ लिखे गये हैं, उनमें विनोबाजी के 'गीता-प्रवचन' ग्रंथ में संन्यास, कर्मयोग, सगुण निर्गुण भक्ति आदि विषयों का जैसा स्पष्टीकरण किया है, वैसा अन्यत्र शायद ही मिलता है। इसी कारण 'गीता-प्रवचन' सर्वमान्य ग्रन्थ हो गया है। किन्तु 'गीता-प्रवचन' में हरएक अध्याय पर विवरण किया गया है, हरएक श्लोक पर विवेचन नहीं है । हरएक श्लोक पर लिखे गये ग्रन्थ यों तो बहुत हैं, लेकिन उनमें एक-एक श्लोक के समस्त मुद्दों पर सविस्तर विवेचन प्रायः नहीं मिलता है । इस ग्रन्थ में यह प्रयास किया गया है। साथ ही सामान्य लोगों की समझ में आने के लिए सुबोध भाषा में विवेचन करने की कोशिश की गयी है।

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