गोम्मटसार जीवकाण्ड छन्दोदय
प्रथम श्रुतस्कन्ध षट्खण्डागम के पहले पाँच खण्डों के सार को समाहित करने वाला गोम्मटसार ग्रन्थ दसवीं शताब्दी में आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती द्वारा लिखा गया है। इसके दो भाग हैं- जीवकाण्ड और कर्मकाण्ड। प्रस्तुत ग्रन्थ छन्दोदय बुन्देलखण्ड के सुप्रसिद्ध सिद्धक्षेत्र नैनागिरि के निवासी बाबा दौलतराम वर्णी द्वारा लिखा गया है, जो कि गोम्मटसार के प्रथम भाग जीवकाण्ड की ब्रजभाषामयी व्याख्या है।
करणानुयोग के जटिल विषय का प्रतिपादन करने के बावजूद भी यह व्याख्या छन्द-बद्ध होने के कारण गेय और रम्य बन पड़ी है।
इसमें गुणस्थान, जीवसमास, पर्याप्ति, प्राण, संज्ञा, चौदह मार्गणाएँ और उपयोग इन बीस प्ररूपणाओं का वर्णन किया गया है। चौदह गुणस्थानों एवं चौदह मार्गणाओं का विवेचन इसमें विस्तृत रूप से किया गया है। कर्मों की उदय, उपशम, क्षय, क्षयोपशम आदि अवस्था होने पर जीव के परिणामों में होने वाले उतार-चढ़ाव को गुणस्थान कहते हैं। जीव जिन भावों द्वारा खोजे जाते हैं या जिन पर्याओं में खोजे जाते हैं, उन्हें मार्गणा कहते हैं। इस प्रकार जीव की विभिन्न अवस्थाओं और भेद-प्रभेदों का विस्तृत वर्णन ही इस ग्रन्थ का मूल प्रतिपाद्य है।
बाबा दौलतराम वर्णी ने लोक भाषा में वृत्ति लिखकर इसकी दुरूहता को कम करते हुए जन-सामान्य के लिए बोधगम्य बना दिया है। इसमें उन्होंने गाथाओं के भाव का स्पष्टीकरण करने के अतिरिक्त कहीं अपने ज्ञान से विशेष कथन किया है, तो कहीं अन्य आचार्य का पक्ष भी बताया है। पंच परावर्तन का तो 88 छन्दों में विस्तार से वर्णन किया है। भिन्न-भिन्न छन्दों के प्रयोग और यथास्थान नीति-वचनों के समावेश के द्वारा करणानुयोग-जन्य नीरतसता को दूर करने का भी भरपूर प्रयास व्याख्याकार ने किया है। सम्पादक ने इसके मूल स्वरूप को अक्षुण्ण रखते हुए लिपिगत एवं भाषागत दोषों का परिमार्जन कर इसे सुगम और सरल बनाने का प्रयत्न किया है।
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