गोड जनजाति का लगभग समग्र वाचिक लोक ही उसका देवलोक है। गोंड जनजाति का देवलोक कहीं गहरे अर्थों में उनका आदिम राग है। वह भवितव्य के प्रति भारी आशंका और उनके वर्तमान का प्रत्युत्तर भी प्रतीत होता है। उनका यह देवलोक प्रामाणिक और पुष्ट कहे जाने वाले प्रचलित इतिहास से बहुत सुदूर है। इतना सुदूर कि जब 'प्रामाणिक' और ' पुष्ट' कहलाने वाली कल्पनाओं, संकल्पनाओं, अवधारणाओं और 'विश्वासों 'का जन्म ही नहीं हो पाया था। यह कहें कि आज के प्रचलित सर्वग्राहा और मान्य समझे जाने वाले मानदंड विकसित ही नहीं हो सके थे। गोंड जनजाति का देवलोक उसका महालोक है। उसके देवलोक में चिरसंचित दैवीय शक्तियों और उनके चरित में ही उसके लिए सनातन सत्य और सनातन आनंद, सनातन कल्याण छुपा है। इन शक्तियों, चरितों को वे अपनी वाचिक परंपरा के आलोक में नित प्रति देखते हैं। महसूस करते हैं। गोंड जनजाति की बाचिक परंपरा को सुनकर ऐसा प्रतीत हुआ है, मानो कोई जल महल हो जो आधा ऊपर और उससे कहीं दुगुना भीतर जल में ही समाया हो । उनका मानस उनका अन्तस जितना इस लोक में है, उतना ही दूसरे लोक में भी, बल्कि वे लोकालोक में सदा उपस्थित है। वे लोक से' अ-लौक' में आते-जाते रहते हैं। उनका आवागमन सूक्ष्मतर है। यदि आप उनके प्रति उपहास और घृणा से भरे नहीं हैं, बल्कि उनके संबेदात्मक तल तक डुबकी लगाने की 'सांस' रखते हैं तो उनकी वाचिकता की आरसी में यह सब पा सकते हैं। और यदि नहीं तो, दूर खड़े वह सब कुछ प्रतीत कर सकते हैं 'कुछ' जो आप चाहते हैं।
मेरे लिए यह कह सकना अब मुस्किल है कि वे देवत्व कहाँ नहीं देखते ? कण-कण सुन रखा था। यदि इससे कुछ ज्यादा हो तो वहाँ तक भी। शायद यही कहना तीक होगा। घर में, द्वार पर, आँगन में, फाटक और किवाड़ों में, छत पर, घर के डांडों में, खरिया में, खटिया के पायों और पाँव तले आने वाली रस्सियों में जिसे 'अदवान' भी कहा जाता है, अन की कोती में. चूल्हे में, सार अर्थात् पायगा या पशुगृह में, पशुओं में, पक्षियों में, पेड़ों पर, जड़ में, बेल में, जल में, तट पर, तट के भीतर, वायु में, आकाश में, पेड़ों पर, कांकड़ अर्थात् गाँव की सीमा पर, खेतों में, खेत के दानों में, बीजों में, बालियों में, दिनों में, तिथियों में, घड़ियों में, पलों में, पहाड़ों पर, टीलों पर, राहों पर, मोड़ों पर, गुफाओं में, गड्डों में। चहुँओर। दस दिशाओं में। कहाँ-कहाँ? और कहाँ नहीं? ज्ञात तो ज्ञात, हर अज्ञात में भी। बड़ी रहस्यमय सृष्टि है गोंडों के इस आदिम देवलोक की।
जन्म-मृत्यु-विवाह, फसल का बोना और अंकुरित होना, नये अन्न का आना, बहुत आना या फसल का नष्ट हो जाना, जल जाना, बीमारी लग जाना, कम होना, जन्म का होना न होना, देर से होना, विवाह का सफल और असफल होना, मृत्यु का असमय आना, पशुओं का दूध उतरना न उतरना। आमोद-प्रमोद हो, उत्सव हो, त्यौहार हो। त्यौहार न हो पाना हो। सिर या कमर का दर्द हो। चकार आते हों। आँख और पेट दुखता हो। बच्चा खूब रोता हो। सब कुछ उनके लिए दैवीय हो है। उनके मन में कहीं कोई संदेह नहीं है। वे अक्सर और हमेशा ही वर्तमान से दूर हटकर अज्ञात किन्तु बेहद विश्वास से लबरेज अतीत में बल्कि काल में प्रवेश करते रहते हैं। आते-जाते हैं। वही आदिम उनका अखंड और अजरुन स्रोत है। आदि देव और देवियाँ ही उनके अनुशासन हैं। उनके मार्ग हैं। उनके संयम हैं। वे ही उन्हें अधुनातन माने जाने वाले पापों से दूर रखते हैं। उनके कई दुखों और कष्टों का कारण होकर भी।
गोंडों के इस आदिम लोक में विगत और आगत के प्रति प्रबल जिज्ञासा है। कई कालों की ध्वनियों हैं। ध्वनियाँ और प्रतिध्वनियाँ हैं। उनकी भी प्रतिध्वनियाँ हैं। जो उनको वाविकता में धड़कन की भाँति सुनाई देती रहती है। यदि हम डॉक्टर के गले में लटका' आला' लगाकर सुनें तो और भी ज्यादा स्पष्ट। उसमें कई कालों की छांई और परछाई उसकी भी परछाई। पीछे परछाई। दोखती है। अभिमन्यु माँ के गर्भ में हो सोख रहा था। सबने सुना है यह। कहा गया है कि, बुद्ध को अपने विगत जन्म स्मृत थे। ऋग्वेद में ऋषि वामदेव भी ऐसा ही कहते हैं। पाइथोगोरस के विषय में भी ऐसा ही पढ़ा है। गोंडों का मानस भी अपने अतीत में, अपने काल में, अपने महाकाल में डूबता उतरता तैरता गोते लगाता रहता है।
पर्वत-नदी-वनस्पति-जीव-जन्तु सब उसके सगोत्री हैं। कोई गैर नहीं है वहाँ। खून के ही नहीं आत्मीय रिश्ते भी हैं उनसे। ये सब परम आराध्य हैं उसके। इस सबमें से कोई एक उसका परम निषेध भी है। पशु-पक्षियों की भाषा और वेदना संवेदना को वे बहुत सहज ही महसूस कर लेते हैं। गहरी कृतज्ञता और करुणा से विगलित होते हैं वे। प्रायः सबके आगे अकिंचन हैं वे। अहंकार और अस्तित्त्व क्या होता है? नहीं जानते कभी। उनकी वाचिकता में कहीं भी सख्य भाव नहीं है। वे दास्य और दोन भावों से आप्लावित हैं। सबसे विनय करते हैं। अप्रतिम विनय। सिर्फ और सिर्फ विनय। विनय के ऐसे पद कहाँ-कहाँ देखे होंगे भला आपने ? गोंडों के आदिम मन में गहन करुणा है। वह किसी का भी अनिष्ट और अहित नहीं चाहता। अनिष्ट हुआ, अनुशासन टूटा तो देवों का दंड तय है। राज्यापराध हो, जातीय अनुशासन तोड़कर बाहर का गमन या रमण हो। तय है इसके लिए देवदंड। देव के खलिहान में पुरखों की साक्षी में, हर हाल में उपस्थित होना ही होगा। अधिकांश देवता बलि से प्रसन्न होते हैं। बलि अर्थात् सर्वस्व न्यौछावर। बलि उनके लिए हिंसा नहीं है। वे 'बलि' से पूर्वानुमति - सहर्ष पूर्वानुमति स्वीकृति प्राप्त करते हैं । उस 'बलि' में पहले पुण्य प्रतीक खोजते हैं। तब ही अर्पित करते हैं देवता को अन्यथा नहीं। ऐसा करने में उनकी चेतना को हिंसा का कहीं भी अहसास नहीं होता। उस घड़ी उन पर तारी और आविष्ट हो जाता है पुण्य। देव देवता उनके परम रक्षक हैं, पूरक हैं, शुभेच्छुक हैं तो वे ही उनके संहारक भी।
स्वर्ग की प्राप्ति जैसी कोई बात नहीं करते गोंडों के वाचिक कथा और गीत। बस वे तो मुक्ति चाहते हैं। प्रेतों से अभय होना चाहते हैं। सुख-शांति, भोजन-स्वास्थ्य, देवों की प्रसन्नता आदि उनके ऐसे आग्रह हैं कि वे हर अनहोनी बातों-घटनाओं, करिश्मों-जादुओं पर विश्वास करते हैं। । भुमका भगत पंडा गुनिया परिहार नहीं उनके जीवन में तो देवता ही देवता बोलता है। घर में भोजन है-नहीं है। चिंता नहीं। कल नहीं, परसों नहीं वर्षों, नहीं। काल जब भी अवसर देगा वे अनुष्ठान करेंगे। वे देंगे मुर्गी , चिवना, कारी पाठी सूअर, खैरी बकरी, बकरा, नारियल, अगरबत्ती, खारिख, अपनी 'कल'या दारु। अलमस्त हो आनंद में डूब जाते हैं वे। चिलम पीते हैं वे भी और देव भी। बीच में खड़े पंडा, गुनिया, भगत, भुमका, पड़िहार, पाना और पटाऊ भी। क्यों करते है वे यह सब ? उत्तर भी उतना ही सरल। देवताओं के प्रिय बने रहने के लिए। उनकी प्रसन्नता के लिए उनके कोप से बचने के लिए। देवत्व में मिलने के लिए। और ये एक दो देवता-देवी नहीं है वे सैकड़ों नहीं है हजारों में है यही उनके लिए परमतत्त्व है। परमात्मा है।
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