भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में सतत गतिविधियों की एक ऐसी लंबी श्रृंखला रही है, जिसने साम्राज्यवादी ब्रिटेन को एक प्रकार से बौखला दिया था और अपनी तमाम कुशल, बुद्धिजीवी व उपनिवेशक विशेषज्ञता के होते हुए भी अंग्रेजों को भारत छोड़कर जाना पड़ा था। अपने लंबे शासनकाल में शायद ही कोई दिन ऐसा रहा हो, जब अंग्रेजों ने भारतीय रोष व आक्रोश का सामना न किया हो।
1857 के बाद क्रांतिकारियों ने महाराष्ट्र में बाल गंगाधर तिलक की अगुवाई में जो क्रांति-समर छेड़ा, उसने समूचे राष्ट्र में इस विचारधारा को फैला दिया कि दासता का अंत 'प्राण दो या प्राण लो' के सिद्धांत पर करना होगा। इस सिद्धांत को बंगाल में सबसे अधिक मान्यता मिली, जो कुछ ही दशकों में क्रांति का मुख्य केंद्र बन गया।
बंगाल प्रेसीडेंसी उस समय ब्रिटिश सरकार की व्यावसायिक राजधानी थी और वहाँ क्रांति के पैर पसरते जा रहे थे। युवा क्रांतिकारी प्रतिदिन अंग्रेजों को जन-धन की हानि पहुँचा रहे थे और स्पष्ट लगने लगा था कि स्वातंत्र्य-ज्वाला अंग्रेजी साम्राज्य को भस्म करने के लिए आतुर है।
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