भूमिका
आदरणीय बंध, डॉ. राघवजी सादर नमस्कार। आपकी पांडुलिपि 3 दिसंबर गई थी। पढ़कर लगा कि संभवतया किसी गण्य व्यक्ति को अपना ग्रंथ दे दिया। मैं, आप जानते ही हैं कि आधुनिक भरतीय इतिहास का छात्र हूँ, न कि प्राचीन भारत पर विशेषज्ञ हूँ और न ही संस्कृत का ज्ञाता। अतः मैं दुस्साहस कर रहा हूँ कि यदि मेरे विचार उपयोगी न लगें तो क्षमा करना। शेष कुशल। परिवार सहित सबको नमस्कार ! विश्व में यह सर्वमान्य है कि भारत विश्व के प्राचीनतम देशों में से है। यह विश्व का प्राचीनतम, महानतम तथा विशालतम राष्ट्र है। यह विश्व का आध्यात्मिक, धार्मिक, सांस्कृतिक तथा नैतिक राष्ट्र है। विश्व की सभी प्राचीन सभ्यताएँ- मिश्र, मेसोपोटामिया, यूनान, रोम आदि शीघ्र ही धूल-धूसरित होकर अपना प्राचीन अस्तित्व मिटा चुकी हैं तथा उनकी स्मृतियों में टूटे-फूटे खंडहर, ईंटों के ढेर, पिरामिड तथा अन्य कुछ अवशेष उनकी कहानियाँ बता रहे हैं, जबकि भारत विश्व का एकमात्र जीवंत राष्ट्र है। प्रायः विश्व के सभी शब्दकोशों में ईसा मसीह के जन्म से पूर्व के काल को अंधकारमय कहा गया है, जबकि भारत में मौर्य तथा गुप्तकाल का दिव्य प्रकाश था। भारत ने सनातन धर्म के काल से वर्तमान तक इस संस्कृति और धर्म की विस्तारता को सदैव बनाए रखा। विश्व की जननी भाषा संस्कृत तथा मनुष्य तथा अक्षय साहित्यिक भंडार प्राप्त पुरातात्त्विक साधन तथा स्वस्थ परंपराओं ने इसे युगानुकूल बनाए रखा। मानव कल्याण के प्रति इसकी मान्यताओं, आस्थाओं तथा विश्वासों ने न केवल भारतीयों का, बल्कि विश्व का मार्गदर्शन किया तथा इसी सांस्कृतिक विस्तार के साथ यह जगत्-गुरु कहलाया। विश्व में अन्यत्र देशों ने जब सभ्यता की प्रथम किरणें देखीं तो उन्होंने भारत की संस्कृति एवं समृद्धि की ओर ललचाई दृष्टि से देखा। प्रारंभ में भारत के उत्तर-पश्चिम की ओर से ईरानियों, यूनानियों, इंडो-बैक्ट्रियन, इंडो-पार्थियन, शकों, कुषाणों तथा हणों के बर्बर आक्रमणों की बाढ़-सी आई.. परंतु वे सभी भारत के शौर्य, पराक्रम तथा वीरत्व से बुरी तरह से पराजित हुए। मोटे रूप से भारत में छठी शताब्दी ई. पूर्व से छठी शताब्दी तक अर्थात् एक हजार वर्षों से अधिक तक वे शीघ्र ही भारत की संस्कृति एवं जीवन के साथ समरस हो गए। भारत की अत्यंत विकसित सभ्यता एवं संस्कृति ने उन्हें आत्मसात् कर लिया। उन्होंने अपना पूर्व अस्तित्व खो दिया। साथ ही भारत के अद्भुत साहस तथा शौर्य की परंपरा में निरंतर बढ़ोतरी हुई। चाणक्य और चंद्रगुप्त मौर्य द्वारा भारत की उत्तर-पश्चिम की सुरक्षा का सूत्रपात आगे आने वाले गुप्त तथा वर्धन सम्राटों का लक्ष्य बन गई। 7वीं शताब्दी में अरब से इसलाम की आँधी चली तथा मजहबी उन्माद तथा जुनून से इसने शीघ्र ही एक राजनैतिक हथियार का रूप धारण कर लिया। शीघ्र ही समूचे विश्व में इसलाम का प्रचार-प्रसार तथा जिहाद की भावना उनका लक्ष्य बन गया। जुलाई 634 ई. में फेंटाइन को परास्त कर समस्त फिलिस्तीन पर कब्जा कर लिया। शीघ्र ही सीरिया, मिस्र, इराक, ईरान, त्रिपोली, मंगोलिया, बुखारा, ताशकंद तथा अजरबैजान पर भी कब्जा कर लिया। अफगानिस्तान, बलूचिस्तान पर आक्रमण किए। 8वीं शताब्दी के प्रारंभ में यूरोप में स्पेन के अस्तित्व को खतरा हो गया तथा उन्होंने दक्षिण फ्रांस पर भी आक्रमण किया। भारत को एक इसलामिक देश बनाना दूसरे खलीफा हजरत उमर (634-644 ई.) की प्राथमिक प्रयत्नों की सूची में रहा तथा भारत पर अरबों का पहला आक्रमण 636-637 ई. में समुद्री तट पर थाणे (मुंबई) में एक सैनिक बेड़े से हुआ, परंतु उनकी बड़ी दुर्गति हुई। उसके बाद लगभग 12-13 प्रयत्न हुए, सभी असफल रहे। आखिर मोहम्मद बिन कासिम को 711-712 ई. में आंशिक सफलता मिली। यह कटु सत्य है कि भारत के विभिन्न राज्यों ने प्रारंभ में इसलाम को रोकने में जागरूकता नहीं दिखलाई तथा मोहम्मद बिन कासिम का संघर्ष अकेले सिंघ प्रदेश के शासक को झेलना पड़ा। परंतु यह नहीं भूलना चाहिए कि लगभग 76 वर्षों के सतत प्रयत्नों (636-711) तथा 15 आक्रमणों के पश्चात् जो 9 खलीफाओं के काल में हुए, सिंध के कुछ भू-भाग पर इसलाम को सफलता मिली। साथ ही यह भी सत्य है कि भारतवासियों का इसलाम के विरुद्ध सतत संघर्ष चलता रहा है। जहाँ विश्व में इसलाम के प्रसार में लगभग एक शताब्दी लगी, वहाँ भारत में इसके आने में लगभग पाँच शताब्दी लगीं। महमूद गजनवी तथा मोहम्मद गौरी इन प्रयत्नों की कड़ियाँ थीं। अनेक तथ्यों से ज्ञात होता है कि इन विदेशी मुसलिम आक्रांताओं का उद्देश्य राजनैतिक प्रभुता की अपेक्षा मजहबी जुनून में भयंकर लूटमार, नरसंहार तथा भारत के बहुमूल्य विशाल संस्कृत वाङ्मय, शिक्षा केंद्रों तक सांस्कृतिक तथा धार्मिक स्थलों को नष्ट करना था। उदाहरणतः भारत में बोधगया में नौ-नौ मंजिले मंदिरों को नष्ट होने से तथा नालंदा विश्वविद्यालय के विशाल पुस्तकालय के जलाने से हजारों ब्राह्मण, महायान, हीनयान बौद्ध साहित्य विलुप्त हो गया था। ओदंतपुरी मंदिर, जहाँ संस्कृत ग्रंथों का अमूल्य संग्रह था, मोहम्मद बिन बख्तियार खिलजी द्वारा 1212 ई. में पूरी तरह जला दिया गया था। यही कार्य अहिलवाड़ा में सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने किया। यही कुछ औरंगजेब के काल तक इसलाम प्रसार का अंग बना रहा था। 18वीं शताब्दी के अंत के दिनों में रोम के पोप अलेक्जेंडर षष्ठ के कहने पर वास्कोडिगामा ने भारत को लूटने तथा ईसाईकरण के लिए दक्षिण अफ्रीका के समुद्र के किनारे-किनारे चलकर भारत में घुसपैठ की थी। शीघ्र ही पुर्तगालियों द्वारा गोवा को पूरब व रोम बनाने के प्रयत्न हुए तथा लगभग 250 वर्षों (1560-1812) तक इन्क्मजीसन से जबरदस्ती ईसाईकरण किया। साथ ही ब्रिटेन ने भारत को एक क्राउन कॉलोनी बनाने तथा इसे एक ईसाई देश बनाने के भरपूर प्रयत्न किए। 1757 ई. में छल-कपट से प्लासी की लड़ाई के पश्चात् ईस्ट इंडिया कंपनी न केवल व्यापारिक लूट तक सीमित रही, बल्कि भारत के ईसाईकरण तथा इसे ब्रिटिश साम्राज्य का एक भाग बनाने को आतुर हो गई। इसके लिए कंपनी के सामान्य लोअर सोल्डर से लेकर डायरेक्टर तथा अध्यक्ष के खुले रूप से प्रयत्न हुए। कंपनी के प्रमुख अधिकारी, सैनिक अफसर, ईसाई पादरी तथा ब्रिटिश लेखकों ने भारतीय इतिहास तथा इसके गौरवमय अतीत के प्रति अनेक भ्रम, मिथक तथा विसंगतियाँ फैलाई तथा तोड़-मरोड़कर अपने मनमाने निष्कर्ष निकाले। इन सबके चिंतन का मूल आधार बाइबल ग्रंथ रहा। उल्लेखनीय है कि 1654 ई. में आयरलैंड के बिशप यूजर ने एक घोषणा की कि यह सृष्टि 4004 ई. पूर्व 23 अक्तूबर को प्रातः 9 बजे प्रारंभ हुई। साथ ही यह भी कहा कि यह अटूट सत्य है तथा इसे न मानने पर कठोरतम सजा दी जाएगी। दुर्भाग्य से अनेक वैज्ञानिक खोजों के पश्चात् भी ईसाई जगत् इस पूर्व असत्य से ग्रसित रहा। भारत में सर विलियम जोन्स (1746-1794 ई.) से धूर्त मैक्स मूलर (1823-1900 ई.) तक भारत को ईसाई देश बनाने के अनेक अथक, पर असफल प्रयास होते रहे, पर भारत एक ईसाई देश न बन सका।
पुस्तक परिचय
देश का पुरातत्त्व विभाग विष्णुध्वज की भित्ति पर तीन फीट ऊँचे अरबी वाक्यों को देखकर भौंचक है। कारण, इतने विशाल अक्षरों के सामने अन्य कौन से प्रमाण देखे जाएँ। यही सबसे बड़ा प्रमाण मानकर वह उल्टी गंगा बहाने का राष्ट्रीय दायित्व पूर्ण करता आ रहा है। शेष सब प्रमाण उसके लिए गोबर-मिट्टी के समान हैं। पुरातत्त्व विभाग को विष्णुध्वज के अन्य दुर्लभ चिह्न नहीं दिखाई देते। भारत के पावन मंदिरों में प्रयुक्त होने वाले भाँति-भाँति के मंगल पुष्प, बंदनवार, घंटे, घंटियाँ, कमल, दीपक, कलश, पान, स्तूप आदि उसके लिए छोटे और बहुत ऊँचाई पर बने, आँखों से न दिखाई देने वाले चिह्न हैं। जबकि ये सब चिह्न विष्णुध्वज की परिधि पर बंदनवार के रूप में बने हैं। बंदनवार केवल भारतीय संस्कृति के भवनों, मंदिरों, तीर्थों में ही मिलता है। खंडित किए गए पूरे परिसर में देवी, देवताओं, दिगंबर साधुओं, रति-कामदेवों जैसे मनमोहक चित्र भी हैं। ऐसी कला मुसलिम भवनों, स्मारकों में कहीं नहीं मिलती। यह सोचने की बात है कि पुरातत्त्व विभाग को किसने भटकाया? अनेक ऐसे चित्र तो मात्र 10 से लेकर 20-30 फीट ऊपर तक भी घंटे घंटियों और कमल के बंदनवारों के रूप में हैं। यदि सैकड़ों फीट ऊपर के चित्र छोड़ भी दें तो ये क्यों नहीं दिखाई दिए ? आखिर पुरातत्त्व विभाग ने अपना राष्ट्रीय दायित्व निभाने में कोताही क्यों बरती ? आज देश और इतिहास के साथ किए गए इस योजनाबद्ध छल का उत्तर देना होग.
लेखक परिचय
राघवेंद्र शर्मा उपनाम राघव (लेखन में डॉ. रा.श. राघव) को लेखन की प्रेरणा पिताश्री के व्रती जीवन से ही मिली, जिन्होंने आपको मात्र 6 वर्ष में गणवेश पहनाकर दीपक चिह्न का भगवा ध्वज हाथ में दिया। आपने केंद्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, नई दिल्ली से साहित्यशास्त्र एवं पीएच.डी. की उपाधियाँ प्राप्त कीं। पुनः सर्वदर्शन से स्नातकोत्तर उपाधि स्वर्णपदक के साथ प्राप्त की। प्रथम लघु लेख 'संस्कृत का अपमान, राष्ट्र का निरादर' नवभारत टाइम्स के प्रभात संस्करण में 22 सितंबर, 1981 को संपादकीय पृष्ठ पर छपा। तभी से लेखन धुन बन गया। साहित्यशास्त्र एवं दर्शनशास्त्र का अध्यापन तथा कार्यवाहक प्राचार्य का कार्य करते दर्जनों ग्रंथ रचे और दर्जनों ग्रंथ संपादित किए। शिक्षक सम्मान, काव्यसमुद्र सम्मान, संस्कृत समाराधक सम्मान आदि दर्जनों शैक्षणिक, साहित्यिक, सांस्कृतिक सम्मान मिले। सेवाभाव से 'मानस हंस श्रीराम' एवं 'कैलाश वाणी' पत्रिकाओं के संपादन से तथा इतिहास संकलन समिति दिल्ली से लेखक और सदस्य के रूप में जुड़े हैं। भारत गीतिका, राष्ट्रधर्म या राष्ट्रद्रोह, बोलती माटी, अंतर्यामी कविताएँ, घेरंड संहिता, शिव संहिता, शिव स्वरोदय, दर्शनत्रयी प्रभा, वेद के रहस्य, गुप्तकाल की विरासत विष्णुध्वज, राष्ट्रघातकों के कृत्य आदि ग्रंथ उल्लेखनीय कृतियाँ हैं।
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