लोक और जनजातीय संस्कृति के साथ क्षेत्रीय इतिहास मेरी अभिरुचि और जिज्ञासा का विषय रहा है। ये तीनों बहुत अभिन्न हैं। हरदा अंचल के स्वातंत्र्य इतिहास पर शोधकार्य कर मुझे बहुत आह्लाद मिला है। सिर्फ हरदा को केन्द्र में रखकर लिखी गई कोई विशेष सामग्री अब तक उपलब्ध नहीं थी। जो कुछ जानकारियाँ थी वे गजेटियर आधारित ज्यादा थी। सन् 1857 की क्रांति में हरदा की भूमिका पर तो बहुत ही अल्प सामग्री जानकारी में थी। अंग्रेजों ने हरदा के क्रांतिकारी सिपाहियों, नागरिकों के बलिदान और कष्ट को बहुत प्रकाश में भी नहीं आने दिया। इनके विषय में अंग्रेजों ने न केवल अपमानजनक भाषा का प्रयोग किया बल्कि इनके योगदान को कम दिखाने की भी कोशिश की। किंतु वास्तविकता ऐसी नहीं थी। इसी प्रकार अंग्रेजों ने जनजातीय आक्रोश के प्रतीक टंट्या भील की क्रांति और बलिदान को भी रेखांकित नहीं होने दिया। अंग्रेज हरदा अंचल में कब और कैसे आये, उन्होंने कैसे यहाँ की भूमि, यहाँ के प्रशासन और यहाँ के ग्रामीण कुटीर उद्योग धंधों, व्यापार, हस्तकला, खेती-किसानी और सामाजिक ताने बाने का ध्वंस किया, यह सब आंचलिक परिप्रेक्ष्य में कम ही लोग जानते हैं। अब समय आ गया है कि हम जाने कि यह सब कैसे और क्यों हुआ। हम यह भी जाने कि अंग्रेज हमारे समाज, शासन और प्रशासन को वे तौर तरीके दे गये जिन्हें कदाचित भारतीय नहीं कहा जा सकता। आवश्यकता है कि हम अपनी परंपरा और संस्कृति से भारतीय तत्वों की इस बहाने खोज करें।
अंग्रेज लोग हरदा क्षेत्र में सन् 1844 में सिंधिया से एक संधि करके आये।
सन् 1860 के बाद वे इस क्षेत्र के पूर्ण औपचारिक स्वामी बन गये। अनादि काल से यह क्षेत्र अपनी समृद्धि और शांति के लिए प्रसिद्ध था। नर्मदा घाटी का यह क्षेत्र अपने वन, नदियों, फसलों, वन्य जीवों, से भरा पूरा था। आइने अकबरी में इसे हाथियों के कारण जाना जाता था। इस भरे पूरे अंचल में अंग्रेज आये और उन्होंने यहाँ की समृद्धि को तार-तार कर दिया। यही कारण रहा कि सन् 1857 के संग्राम के समय इस क्षेत्र में बड़ी क्रांति हुई। अंग्रेजो ने स्वीकारा कि तत्कालीन जिले में एकमात्र यही क्षेत्र था, जहाँ लोगों की सहानुभूति सरकार के प्रति नहीं थी। इस अंचल ने अंग्रेजों को चिंतित कर रखा था। पूरे देश के समान यहाँ के क्रांतिकारियों ने भी प्रथम बार तो अंग्रेजों को बराबर की टक्कर दी। क्रांतिकारियों का दमन करने के बाद अंग्रेजों ने बड़ी क्रूरता से उनका उत्पीड़न किया। अमानवीय तरीके से उनकी लाशों को तीन दिन तक नेमावर की सिद्धनाथ टेकरी पर लटका कर रखा। दुनिया को मानवता का पाठ पढ़ाने का दंभ भरने वाली इस तथाकथित महान जाति को इतिहास में किये गये अपने इन सब कृत्यों के लिए हृदय से क्षमा माँगनी चाहिए। इतना ही नहीं इसके बाद अंग्रेज शासन ने गाँव-गाँव के क्रांतिकारियों की सूची बनाई। जरा सा संदेह होने पर उनकी जमीनें छीन ली। असहनीय जुर्माने लाद दिये। इन सब कृत्यों के खिलाफ हमारे समाज ने इस संग्राम में अपनी क्या भूमिका निर्वाह की, इसे जानना अब इसलिए भी जरूरी हो गया है कि हम अपनी क्रांतिकारी विरासत को लगभग भूल चुके हैं। हम स्थितियों को लाचारी से स्वीकारने लगे हैं। यह स्थिति अच्छी और सुखद नहीं कही जा सकती।
सन् 1857 के बाद भी यह क्षेत्र पूरी तरह कभी शांत नहीं रहा। क्रांति की चिनगारियाँ राख के भीतर दबी रही। हवा और आँधियों में वे ज्वाला बनती रही। टंट्या भील और उसके साथियों ने सन् 1857 के बाद अंग्रेजों की नाक में दम करके रखा। सन् 1900 के बाद इस क्षेत्र ने देश में उत्पन्न नई राजनैतिक चेतना के साथ हर संघर्ष में बढ़-चढ़कर भाग लिया। अपुष्ट सूत्रों से ज्ञात होता है कि कांग्रेस के जन्म से ही यहाँ के लोग स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय हो गये थे। सन् 1905 से तो यहाँ कई साक्ष्य उपलब्ध होने लगते हैं। सन् 1910 के बाद से तो पुलिस के रिकॉर्ड स्वयं इस सत्य की पुष्टि करते हुए चलते हैं। यहाँ का नेतृत्व देशव्यापी प्रतिष्ठा अर्जित कर सका। इस समस्त संघर्ष को नई पीढ़ी और अध्येताओं के सामने लाना जरुरी था।
मेरा अपना विनम्र अनुमान है कि विरासत से कटते और दिशा से भटकते हुए समय में यह सामग्री और भी उपयोगी हो जायेगी। सन् 2057 में मेरी आयु 90 वर्ष हो जायेगी यदि जीवित रहा तो प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के दो सौ वर्षों के आयोजन, चिंतन, मूल्यांकन, अन्वेषण को देखना समझना चाहूँगा। यदि 80 वर्ष की आयु जी सका तो स्वतंत्रता की पहली शती का उत्सव देखने की मेरी उत्कट अभिलाषा पूरी होगी। मुझे लगता है आंचलिक संदर्भों में तब यह पुस्तक ज्यादा काम की हो जायेगी। हो सकता है मेरा यह आकलन सही न हो। इस दिशा में मैंने एक प्रयास किया है। इसके बाद भी संभावना बची है। अध्येता आये और अपने मसि ऋण को पूरा करें। इस पुस्तक में पहली बार हरदा पुलिस के लगभग सौ वर्ष पुराने रिकॉर्ड और हरदा तहसील कांग्रेस कमेटी के कार्यवाही रजिस्टर में दर्ज तथ्यों के प्रकाश में हरदा के स्वाधीनता संग्राम को देखने की कोशिश की गई है। इन दो सामग्रियों के आधार पर ही मुझे सन् 1910 से लगभग सन् 1930 के बीच में सक्रिय रहे स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों, विचारकों के विषय में ज्ञात हो सका। इनमें से कई नाम तो ऐसे हैं जिनके परिजन भी इस विषय में ज्यादा नहीं जानते, हरदा और विविध थानों के दस्तावेज इसमें मेरे सहायक बने। ये दो ऐसे प्रामाणिक रिकॉर्ड है जिसकी तराजू पर हरदा के स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की भूमिका को पहचाना जा सकता है।
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