'सावयपन्नत्ती' या 'श्रावकप्रज्ञप्ति' अपने नाम के अनुसार श्रावकाचार विषयक प्राचीन रचना है। यह प्राकृत गाथाबद्ध है और उस पर संस्कृत टीका है। न तो मूल ग्रन्थ में और न उसकी टीका में ग्रन्थकार का तथा टीकाकार का नाम दिया है। फिर भी कुछ उल्लेखों के आधार पर, जिनका निर्देश प्रस्तावना में किया गया है, श्रावकप्रज्ञप्ति को आचार्य उमास्वाति की कृति माना जाता है। यह उमास्वाति वही माने जाते हैं जिनकी कृति 'तत्त्वार्थसूत्र' पाठभेदों के साथ दिगम्बर-श्वेताम्बर दोनों परम्पराओं में मान्य है। यद्यपि तत्त्वार्थसूत्र के सातवें अध्याय में वर्णित श्रवकाचार ही विस्तार से इस ग्रन्थ में वर्णित है फिर भी दोनों कृतियों का एककर्तृक होना सन्दिग्ध है। हाँ, इतना अवश्य कहा जा सकता है कि श्रावकप्रज्ञप्ति का आधार तत्त्वार्थसूत्र का सातवाँ अध्याय होना चाहिए। सम्यग्दर्शन, पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत, चार शिक्षाव्रत तथा अन्त में समाधिमरण यह पूर्ण श्रावकाचार समस्त जैन-परम्परा को मान्य है। तत्त्वार्यसूत्र में तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतों को गुणव्रत और शिक्षाव्रत के रूप में विभाजित न करके सातों का निर्देश व्रतरूप में किया है। किन्तु श्रावकप्रज्ञप्ति में तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत के रूप में उनका कचन किया है। तथा प्रथम दिग्व्रत के पश्चात् भोगोपभोगपरिमाणव्रत का कथन गुणव्रतों में और देशव्रत का कथन भोगोपभोगपरिमाण व्रत के स्थान में न कर शिक्षाव्रतों में किया है। यह दोनों में अन्तर है। स्व. पं. सुखलाल जी ने अपने तत्त्वार्थसूत्र के विवेचन के पाद-टिप्पण में लिखा है-
'सामान्यतः भगवान् महावीर की समग्र परम्परा में अणुव्रतों की पाँच संख्या, उनके नाम तथा क्रम में कुछ भी अन्तर नहीं है। परन्तु उत्तरगुणरूप में माने हुए श्रावक के व्रतों के बारे में प्राचीन तथा नवीन अनेक परम्पराएँ हैं। श्वेताम्बर सम्प्रदाय में ऐसी दो परम्पराएँ देखी जाती हैं-पहली तत्त्वार्थसूत्र की और दूसरी जैनागमादि अन्य ग्रन्थों की। पहली में दिग्विरमण के बाद उपभोगपरिभोगपरिमाणव्रत को न गिनाकर देशविरमणव्रत को गिनाया है। दूसरी में दिग्विरमण के बाद उपभोगपरिभोगपरिमाणव्रत गिनाया है तथा देशविरमणव्रत सामायिक के बाद गिनाया है।'
पण्डित जी के उक्त कथन के प्रकाश में यह स्पष्ट है कि श्रावकप्रज्ञप्ति की रचना श्वेताम्बर-मान्य आगमों के अनुसार की गयी है अतः उसके रचयिता तत्त्वार्थसूत्रकार से भिन्न होना चाहिए। दोनों कृतियों में भाषाभेद तो है ही। तत्त्वार्थसूत्र के श्वेताम्बर-मान्य पाठ पर जो भाष्य है-जिसे सूत्रकारकृत माना जाता है उसके अन्त में कर्ता की विस्तृत प्रशस्ति पायी जाती है किन्तु श्रावकप्रज्ञप्ति में कर्ता का नाम तक नहीं है।
आवकप्रज्ञप्ति (गा. १०७) में स्थूल प्राणिवध के दो भेद किये हैं-संकल्प से और आरम्भ से। उनमें से प्रथम अणुव्रत का धारक श्रावक संकल्प से ही त्याग करता है, आरम्भ से नहीं। इस प्रकार का भेद तत्त्वार्थसूत्र और उसकी टीकाओं में उपलब्ध नहीं होता। रत्नकरण्डश्रावकाचार में प्रथम अणुव्रती को संकल्पी हिंसा का त्यागी अवश्य कहा है। अमितगति ने अपने श्रावकाचार में हिंसा के दो भेद किये हैं-आरम्भी और अनारम्भी। तथा लिखा है, जो घरवास से निवृत्त है वह दोनों प्रकार की हिंसा का त्याग करता है। किन्तु जो गृहवासी है वह आरम्भी हिंसा नहीं छोड़ सकता।
अतः श्रावकप्रज्ञप्ति उत्तरकाल की रचना होनी चाहिए।
श्रवकप्रज्ञप्ति की कई चर्चाएँ पं. आशाघर के सागारधर्मामृत में मिलती हैं और वे चचर्चाएँ हेमचन्द्राचार्य के योगशास्त्र में भी हैं। योगशास्त्र पं. आशाघर के सामने था यह तुलनात्मक अध्ययन से स्पष्ट है, अतः आशाघर ने श्रावकप्रज्ञप्ति को भी देखा हो यह असम्भव नहीं है।
श्रावकप्रज्ञप्ति की चर्चाएँ मननीय हैं। यह श्रावकाचार का एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है और इसमें ऐसी भी अनेक चर्चाएँ हैं जो दिगम्बर श्रावकाचारों में नहीं पायी जातीं। प्रस्तावना में पं. बालचन्द्र जी ने उनका कथन किया है।
१. गाथा ७२ में जिनका संसार अर्धपुद्गलपरावर्त मात्र शेष रहा है उन्हें शुक्लपाक्षिक और शेष को कृष्णपाक्षिक कहा है।
२. गाया ७७ की टीका में तीर्थंकरों को भी स्त्रीलिंग से सिद्ध हुआ कहा है किन्तु प्रत्येकबुद्धों को पुल्लिगी ही कहा है। अनुवाद में यह अंश छूट गया है।
३. कर्म और जीव में कीन बलवान् है इसका निरूपण करते हुए कहा है-
कत्थइ जीवो वलियो कत्यइ कम्माइ हुंति वलियाई।
जम्हा णंता सिद्धा चिट्ठति भवमि वि अणंता ॥ १०१ ॥
यदि कहीं जीव बलवान् है तो कहीं पर कर्म बलवान् है। क्योंकि अनन्त जीव सिद्धि को प्राप्त हो चुके हैं और अनन्त जीव संसार में वर्तमान हैं।
स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा के कथन से, जिसमें केवल कर्म की बलवत्ता बतलायी है, उक्त कयन अधिक संगत प्रतीत होता है।
४. अहिंसाणुव्रत के सम्बन्ध में शंका-समाधानपूर्वक जो विवेचन किया गया है वह महत्त्वपूर्ण है। उसी की कुछ झलक पुरुषार्थसिद्ध्युपाय के अहिंसावर्णन में पायी जाती है। वह वर्णन गाथा १०७ से २५९ तक है। इसमें एक शंका यह की गयी है कि आत्मा तो नित्य है उसका विनाश होता नहीं, तब अहिंसाव्रत निरर्थक क्यों नहीं है? इसके उत्तर में कहा है-
तप्पज्जायविणासो दुक्खुप्पाओ अ संकिलेसो य।
एस वहो जिण भणिओ तज्जेयव्वोपयत्तेण ॥ १९१ ॥
इसी गाथा की छाया सागारधर्मामृत के नीचे लिखे श्लोक में है-
दुःखमुत्पद्यते जन्तोर्मनः संक्लिश्यतेऽस्यते ।
तत्पर्यायश्च यस्यां सा हिंसा हेया प्रयत्नतः ॥ ४.१३ ॥
जिसमें जीव को दुःख होता है, उसके मन में संक्लेश होता है और उसकी वह पर्याय नष्ट हो जाती है,
उस हिंसा को प्रयत्न करके छोड़ना चाहिए।
अहिंसा पालन के लिए-
पडिसुद्धजलग्गहणं दारुय घत्राइयाण तह चेव।
गहियाण वि परिभोगो विहीइ तसरक्खणट्ठाए ॥ २५९॥
त्रस जीवों की रक्षा के लिए वस्त्र से छाना हुआ त्रसरहित शुद्ध जल ग्रहण करना चाहिए। उसी प्रकार ईंधन और धान्य आदि भी जन्तुरहित लेना चाहिए। तथा गृहीत जलादि का भी उपभोग विधिपूर्वक करना चाहिए। इसमें पाँचवें अणुव्रत का नाम इच्छापरिमाण दिया है। 'रत्नकरण्डश्रावकाचार' में भी यह नाम आता है। गुणव्रतों से लाभ बतलाते हुए रत्नकरण्ड में भी श्रावक को 'तत्तायोगोलकल्प' कहा है। इसमें भी 'तत्तायणोलकप्पो' पद दिया है।
५. उपभोगपरिभोगपरिमाण का कथन करते हुए इसमें उसके दो भेद किये है-भोजन और कर्म। तथा उन दोनों के अतिचार अलग-अलग कहे हैं। भोजन सम्बन्धी उपभोगपरिभोगपरिमाणव्रत के तो वही अतिचार हैं जो तत्त्वार्थसूत्र में सचित्त-आहार आदि कहे हैं और कर्मविषयक भोगोपभोगपरिमाण के अतिचार वे ही हैं जिनका कचन सागारधर्मामृत के पाँचवें अध्याय में खरकर्म के अतिचाररूप से करके उसका निराकरण किया है, अस्तु, ग्रन्य बहुत उपयोगी है और पं. बालचन्द्र जी सिद्धहस्त अनुवादक हैं। स्वाध्यायप्रेमियों को इसका स्वाध्याय करना चाहिए।
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