संस्कृत काव्यशास्त्र में भक्ति को स्वतन्त्र रूप से रस के रूप में स्वीकार करने के विषय में पर्याप्त मत-वैभिन्य रहा है। आलङ्कारिकों ने भक्ति को स्वतन्त्र रस का स्वरूप न प्रदान कर इसे भाव कहा है। आचार्य भरत ने अपने नाट्यशास्त्र में केवल आठ रसों को ही मान्यता प्रदान की है। भरत के व्याख्याकार आचार्य अभिनवगुप्त ने शान्तरस की चर्चा में भक्ति और श्रद्धा का विवेचन किया है। भक्तिरस का सङ्केत सर्वप्रथम आचार्य दण्डी ने प्रायोलङ्कार विवेचन में किया था। भामह ने भी प्रेयस् को प्रीति से सम्बद्ध मानकर ऐसा ही सङ्केत किया है। रुद्रट ने प्रेयान् नामक नवीन रस की कल्पना की। आगे चलकर काव्यशास्त्रियों ने रुद्रट की प्रेयान् विषयक मान्यता के आधार पर अनेक नये रसों की उद्भावनाएँ कीं। काव्यप्रकाशकार आचार्य मम्मट शान्त को नवम रस के रूप में स्वीकार करते हुए भी देवादिविषयक रति को भाव कहते हैं। पारम्परिक आलङ्कारिकों में पण्डितराज जगन्नाथ ऐसे आचार्य है, जो भक्तिरस के पक्ष में सुदृढ़ तर्क लेकर तो उपस्थित हुए है, किन्तु अन्ततः मम्मट आदि प्राचीन आचार्यों के समान ही भक्ति को भाव रूप में ही स्वीकार करते हैं।
भक्ति को रस रूप में प्रतिष्ठित करने का श्रेय सुप्रसिद्ध गौडीय वैष्णव आचार्य रूपगोस्वामी को है। उन्होंने भक्तिरसामृतसिन्धु नामक अपने महनीय ग्रन्थ में भक्तिरस की साङ्गोपाङ्ग स्थापना की है। वे भक्ति को ही मूल रस मानते हैं तथा अन्य रसों का इस महारस या रसराज में अन्तर्भाव कर देते हैं। उन्होंने भक्तिरस को साहित्यिक स्तर पर अन्य स्वीकृत रसों की अपेक्षा उत्कृष्ट रूप में स्थापित किया है। भक्ति के भेदों, उसके विभाव, अनुभाव, सञ्चारीभाव आदि का प्रामाणिक विवेचन करते हुए रूपगोस्वामी ने भक्तिरस की परम्परा को सुदृढ़ शास्त्रीय आधार प्रदान किया है। शाण्डिल्यभक्तिसूत्र तथा नारदभक्तिसूत्र में सूत्रित भक्तिरस के शास्त्रीय स्वरूप को वैष्णव रसशास्त्र के आदि आचार्य रूपगोस्वामी ने भक्तितत्त्व के सूक्ष्म एवं विस्तृत सैद्धान्तिक विवेचन द्वारा काव्यशास्त्रीय दृष्टि से, भाव की भूमिका से रसवत्ता की ओर ले जाने का मार्ग प्रशस्त किया है। इसी परम्परा में मधुसूदन सरस्वती ने अपने ग्रन्थ भगवद्भक्तिरसायन में भक्ति को ब्रह्मानन्द स्वरूप मानते हुए भक्तिरस को ही सर्वोत्कृष्ट सिद्ध किया है।
वैष्णव आचार्यों के अतिरिक्त भक्तिरस के प्रतिपादक लक्षणग्रन्थों के रचनाकारों की किसी अन्य परम्परा से हमारा विशेष परिचय नहीं हो सका है। सम्भव है कि अन्य परम्पराओं में भी इस प्रकार के शास्त्रीय सिद्धान्तग्रन्थों की रचना हुई हो, जो दुर्भाग्यवश प्रकाश में नहीं आ सके। उक्त प्रख्यात वैष्णव आचार्यों के आविर्भाव से अनेक शताब्दियों के सुदीर्घ अन्तराल के बाद मालवा क्षेत्र के शाजापुर में १९वीं शताब्दी में पण्डित सोमनाथ व्यास अपने चतुरस्र पाण्डित्य की प्रभा के साथ अवतीर्ण हुए थे। पण्डित सोमनाथ व्यास द्वारा रचित ३५ ग्रन्थ उपलब्ध हुए हैं, जो व्याकरण, दर्शन, स्तोत्र, भक्ति, इतिहास, छन्दःशास्त्र, सुभाषित, काव्य, नाटक, पुराणेतिहास तथा नीतिशास्त्र जैसे विविध विषयों पर आधारित हैं।
पण्डित व्यास की अब तक ज्ञात रचनाओं में हरिभक्तिकुमुदाकर अन्यतम है। यह ग्रन्थ वैष्णव रसशास्त्र की ही परम्परा में लिखा गया लक्षण ग्रन्थ है जिसमें भक्तिरस को प्रतिष्ठित किया गया है। यह ग्रन्थ सिन्धिया प्राच्यविद्या शोध प्रतिष्ठान, विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन के पाण्डुग्रन्थ संग्रह में सुरक्षित है। ग्रन्थ का सम्पादन एवं समीक्षण प्रस्तुत ग्रन्थ का उद्देश्य है।
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