दलित साहित्य, साहित्य लेखन का नवीन भाग है। इसके अन्तर्गत समाज के उन लोगों के हितों की वकालत की जाती है जो सदियों से शोषित, पीड़ित और उपेक्षित रहे हैं। हालाँकि पहले कुछ विचारकों की ऐसी धारणा थी कि जितना कुछ साहित्य लिखा जा चुका है उससे आगे अब और कुछ साहित्य लिखे जाने की गुंजाइश ही नहीं है। पहले जनवादी साहित्य लिखा गया, उसके बाद प्रतिवादी साहित्य और जब 'दलित साहित्य'।
हम दलित साहित्य को दलित वर्ग के हितों की पैरवी करने वाले साहित्य के रूप में परिभाषित कर सकते हैं जिसमें दलितों के कष्टों, समस्याओं और दयनीयता का उल्लेख है, तो उनकी पीड़ा, वेदना, टीस और कसक की अभिव्यक्ति भी है साथ ही मुक्ति का आह्वान और समस्याओं का समाधान एवं परेशानियों के निराकरण की आवाज है।
वस्तुतः दलित साहित्य सामाजिक परिवर्तन का मुखर साक्षी है। वर्णवाद, जातिवाद व श्रेष्ठता-निम्नता के नाम पर दलित समाज को दीर्घकाल तक बहुत भ्रमित किया गया है। अब सामाजिक समानता, सामाजिक समरसता व अस्पृश्यता-उन्मूलन, अर्थात् सामाजिक परिवर्तन का वक्त आ पहुँचा है। साहित्य स्वतः कांति नहीं लाता है वरन् वैचारिक कांति के द्वारा सामाजिक परिवर्तन के लिए अनुकूल वातावरण तैयार करता है। साहित्य मानसिकता के परिवर्तन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। वर्तमान में दलित-साहित्य जाति, वर्ण, वर्ग, ऊँच-नीच, अमीर-गरीब आदि के बीच की समस्त दीवारों को ढहाने का काम कारगर तरीके से कर रहा है।
दूसरे शब्दों में कहें तो दलित साहित्य समाज की अतीत में की गई भूलों को सुधारने का कार्य करने वाला एक वैचारिक आंदोलन है। दलित साहित्य का मुख्य उद्देश्य मनुष्य-मनुष्य के मध्य की दूरियों को खत्म कर सामाजिक - समानता की स्थापना करता है इसे हम बहुजन आबादी के लिए मुक्ति के द्वार खोलने से भी ले सकते हैं।
आजकल अदलित साहित्यकार भी दलित साहित्य के लेखन के कार्य में रुचि ले रहे हैं। उनकी संवेदनाएँ सच्चे अर्थों में दलितों के साथ हैं तो उनका दलित-लेखन भी सराहा जाना चाहिए। शर्त यही है कि उनका लेखन अंतर्मन से उत्पन्न होना चाहिए, ऊपरी दिखावे या किसी प्रलोभन के वशीभूत नहीं। दलितों द्वारा लिखा हुआ दलित साहित्य यथार्थ का साहित्य है। दलित साहित्य एक ऐसा साहित्य है जो सभी तरह की वर्णव्यवस्था, जाति-पाँति, ऊँच-नीच के भेदभाव के दायरे से ऊपर है, जिसे धर्म, भाषा, प्रदेश आदि की सीमाओं में नहीं बाँधा जा सकता। भारतीय साहित्य को दलित साहित्य ने नये शब्द, नये नायक, नई दृष्टि, नई सोच, वेदना, विद्रोह का रसायन दिया, सोच के लिए नये आयाम दिये हैं।
समूची मानव जाति एक ही पुरुष की संतान है। आरोपित व्यवस्था समाप्त हो और एक ही धर्म मानव धर्म हो, एक ही जाति मानव जाति हो, प्रत्येक व्यक्ति भारतीय हो, तभी साहित्य सच्चा साहित्य बन सकता है। मुस्लिम, हिन्दू, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, दलित न हो तभी कहना ठीक लगेगा कि साहित्य केवल साहित्य होता है।
सवर्णों की ज्यादतियों, उनकी स्वार्थपूर्ण संकीर्ण नीतियों के खिलाफ तथा दलित हित के पक्ष में न केवल भारत में अपितु विदेशों में भी लेखन हो रहा है। यह निर्विवाद है कि भारत में वर्णव्यवस्था, जातिप्रथा, छुआछूत की जड़ें जितनी गहरी हैं, उतनी अन्य देशों में नहीं हैं, किन्तु श्वेत अश्वेत का भयानक अंतर विदेशों में भी दिखाई देता है और उसके खिलाफ सशक्त लेखन हो रहा है। अतः दलित लेखन अब सार्वभौम बन गया है, जो न केवल परिणाम में है अपितु गुणवत्ता में भी अपने अस्तित्व को प्रमाणित कर रहा है।
प्रस्तुत पुस्तक के सभी आलेख दलित विमर्श पर केन्द्रित समस्याओं को विभिन्न कोणों से रेखांकित करते हैं। पुस्तक में साहित्य आलेखों की कई विशेषताएँ हैं जैसे कि इन समग्र लेखों को एक ही स्थान, एक ही समय, एक ही बैठक में पूर्ण नहीं किये गये हैं। ये सभी लेख संगोष्ठी की माँग विषय और समय की माँग के अनुसार निर्मित हैं।
इस पुस्तक के प्रकाशन हेतु जिन मित्रों ने समय-समय पर मार्गदर्शन एवं सुझाव देकर प्रोत्साहित किया है उन सभी की शुभकामनाओं के लिए मैं हृदय से आभार व्यक्त करती हूँ। पुस्तक प्रकाशन के लिए चिन्तन प्रकाशन के संचालक श्री राम सिंह खंगार जी का पूर्ण सहयोग प्राप्त हुआ जिसके लिए उनका भी मैं हृदय से आभार व्यक्त करती हूँ। इस ग्रंथ में मैंने जिन संदर्भ ग्रंथों का उपयोग किया है, उन सभी ग्रंथों के लेखकों की मैं आभारी हूँ। आशा करती हूँ यह पुस्तक सभी सुधी साहित्यानुरागी के लिए उपयोगी सिद्ध होगी।
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