पुस्तक परिचय
हठयोग प्रदीपिका नामक इस पुस्तक के रचनाकार श्री स्वात्माराम योगी हैं। इस पुस्तक को चार उपदेशों में वर्णित किया है। प्रथम आसन विधि, द्वितीय प्राणायाम विधि, तृतीय मुद्रा विधान एवं चतुर्थ समाधि लक्षण। हठयोग प्रदीपिका की इस हिन्दी व्याख्या में मूल श्लोकों का अर्थ शब्दशः किया गया है तथा उनके अर्थों को स्पष्ट एवं सरल करने हेतु यथावश्यक वक्तव्य दिया गया है। हठयोग की क्रियाओं का प्रायोगिक स्वरूप भी चित्र सहित वर्णित किया गया है। योगिक क्रियाओं का स्वास्थ्य एवं विभिन्न व्याधियों पर प्रभाव का व्यवहारिक स्वरूप भी प्रस्तुत किया गया है। आशा है कि पाठकगण इस कृति से समुचित लाभ लेकर हठयोग विद्या का प्रचार-प्रसार इसके यथार्थ स्वरूप में करेंगे।
लेखक परिचय
प्रस्तुत रचना के व्याख्याकार डा० सर्वेश कुमार अग्रवाल का जन्म सन् १९७९ में जिला आगरा (यू.पी.) में हुआ। इन्होंने बी.ए.एम.एस., रा.आ.कॉ. गुरुकुल कांगड़ी, हरिद्वार, एम.डी. (स्वस्थवृत्त एवं योग) तथा डिप्लोमा योग काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी से पूर्ण किया। लेखक को पिछले एक दशक से आयुर्वेद एवं योग के अध्ययन, अध्यापन एवं चिकित्सा में उनके प्रयोग का अनुभव प्राप्त है। लेखक ने योग के विभिन्न विषयों पर अपने लेख राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर की संगोष्ठियों में प्रस्तुत किये हैं। योग विषय पर लेखक की अन्य पुस्तक "" चौखम्भा ओरियन्टालिया से ही प्रकाशित है। वर्तमान में लेखक राष्ट्रीय आयुर्वेद संस्थान, जयपुर के स्वस्थवृत्त एवं योग विभाग में प्राध्यापक के पद पर कार्यरत हैं।
प्राक्कथন
"श्री आदिनाथाय नमोऽस्तु तस्मै येनोपदिष्टा हठयोगविद्या"।
विश्व की इस प्राचीनतम योग विद्या की दो परम्पराऐं प्रमुख रूप से देखने मिलती हैं। प्रथम शिव परम्परा जिसमें कि हठयोग, तन्त्रयोग, कुण्डलिनी योग, मन्त्र योग, स्वर योग, लय योग आदि हैं। द्वितीय वैष्णव परम्परा जिसमें कि पातञ्जल योग, उपनिषद् कालीन योग, बौद्ध योग, सांख्य योग आदि हैं।
प्रस्तुत हठयोगप्रदीपिका के रचनाकार श्री स्वात्माराम योगी हैं जिन्होंने यह विद्या योगी मत्स्येन्द्रनाथ एवं गोरखनाथ से जानी जिसे श्लोक न. १/४ में स्वयं सिद्ध किया है। इस ग्रन्थ का लेखन काल १३५०-१५०० ई० के बीच सिद्ध होता है। प्रस्तुत ग्रन्थ को चार उपदेशों में वर्णित किया है। प्रथम उपदेश में आसन विधि (६७ श्लोक), द्वितीय उपदेश में प्राणायाम विधि (७५ श्लोक) तृतीय उपदेश में मुद्रा विधान (१२८ श्लोक) तथा चतुर्थ उपदेश में समाधि लक्षण (११४ श्लोक) का वर्णन है।
श्री स्वात्माराम योगी ने हठयोग एवं राजयोग को अलग-अलग न करके इनको एक-दूसरे का पूरक माना है। जिससे सिद्ध होता है कि योग के परम लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए दोनों का अभ्यास आवश्यक है। हठयोग के सम्बन्ध में यहाँ एक विशेष बात बताना आवश्यक है कि हठयोग के विषय में लोगों के अन्दर अनेकानेक भ्रान्तियाँ हैं। अधिकांश लोग ऐसा मानते हैं कि हठयोग का अर्थ है जिदपूर्वक अभ्यास करना जैसे कि कई दिनों तक एक पैर खड़े रहना, भोजन न करना इत्यादि। या यह क्रिया केवल शरीर सौष्ठव के लिये है। किन्तु हठयोग का अर्थ शरीर के प्राण एवं अपानवायु के मिलन से है, अर्थात् प्राण के सुषुम्ना नाड़ी में प्रवेश से है। इसके लिये विभिन्न क्रियाओं का वर्णन किया गया है।