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हज़रत मौलाना कमालुद्दीन चिश्ती रह और उनका युग- Hazrat Kamaluddin Chishti Reh Aur Unaka Yug

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Specifications
Publisher: Adivasi Lok Kala Evam Boli Vikas Academy And Madhya Pradesh Cultural Institution
Author Ram Sewak Garg
Language: Hindi
Pages: 178
Cover: HARDCOVER
10x7.5 inch
Weight 420 gm
Edition: 2005
HBL713
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Book Description

प्रस्तावना

संतों, साधकों और विचारकों की कोई जाति नहीं होती। वे मनुष्य होने के नाते मानवतावादी होते हैं। कबीर, नानक, रैदास, गुरु गोविन्द सिंह, रामानंद स्वामी, बाबा फरीद और पीपा जी जैसे हजारों संत साधकों ने मानवता का जो उपकार किया है उसका कोई मूल्य नहीं आँका जा सकता। अनेक ऐसे साधक भी हुए हैं जिनका क्षेत्रीय महत्त्व रहा है। उनका परिचय कभी इतिहास का अंग तो नहीं बन सका, लेकिन वह लोकजीवन में व्याप्त जरूर हो चुका है। सूफी साधक हज़रत मौलाना कमालुद्दीन चिश्ती रह. मालवा के ऐसे ही एक संत हैं। यह न तो कोई तात्त्विक इतिहासपरक व्याख्या है, और न ही किसी मान्यता को स्थापित करने का प्रयास है। लोक-जीवन में व्याप्त उस महान् संत के विचारों और उनके युग की प्रवृत्तियों का संकलन मात्र है। सूफी विचारधारा के मानवतावादी पक्ष 'सुलहे आम' के सोच की एक संक्षिप्त समीक्षा का प्रयास है।

सूफी विचारधारा केवल मुस्लिम रहस्यवाद नहीं, वह एक समग्र मानवतावादी सोच है, जिसमें दूसरों को अपना बनाने के लिए, ईश्वर से तादात्म्य स्थापित करने के लिए प्रेम का विस्तार करना होता है- समाज निरपेक्ष शाश्वत् और व्यापक मूल्यों की स्थापना करना होता है, और बाधक मूल्यों का निराकरण करना होता है। उसमें भौतिक सुखों से परे जीवन का भीतरी नक्शा बदलना होता है। जीवमात्र के लिए, प्राणीमात्र के लिए समादर, प्रत्येक के लिए सहानुभूति ही सूफी का लक्षण है। सूफी अपने लक्ष्य को अप्राप्य या असाध्य नहीं मानता, बल्कि प्रयत्नसाध्य मानता है। वह शासन के बजाय अनुशासन, नियंत्रण के बजाय संयम, सत्ता या अधिकारों की स्पर्धा के बजाय कर्त्तव्यों का आचरण चाहता है। जब मानवीय मूल्यों का हास होता है, तब व्यक्तित्त्व का गला घुट जाता है। सूफी अपने व्यक्तित्व का विलीनीकरण ब्रह्म में मानता है, प्रेम में मानता है। वह गतितत्त्व या डायनामिक्स को बाजार में नहीं वैचारिक क्षेत्र में स्थापित करता है। इसीलिए साधना के साथ-साथ अपनी आवश्यकताओं को सीमित करता रहता है। न वह सम्प्रदायवादी होता है, न जातिवादी वह शुद्ध मानवतावादी होता है।

सृष्टि जिस रूप में हमारे सामने है, सूफी साधक उसे वैसे ही समझने की चेष्टा करता है।

वह मानता है कि जब तक अद्वैत और अभेद की स्थापना नहीं होती, समग्रता की दृष्टि से मानव के व्यक्तित्त्व में 'भाईचारे के व्यक्तित्त्व' के विकास की चेष्टा नहीं की जाती तब तक भेद-भाव मिटने वाले नहीं हैं। भेद की भावभूमि पर भी एक सूफी साधक प्रेम तत्त्व का विकास करता है और भाईचारे की भावना को बलवती बनाने की साधना अपनाता है।

विचार जब पानी की तरह जमकर बर्फ बन जाता है, तब वह सम्प्रदाय या वाद बन जाता है। सूफीवाद कोई सम्प्रदाय नहीं, वह एक नित्य प्रवाह है। यही कारण है कि सूफीवाद में आग्रह का अभाव होता है। उसमें हार और जीत की मनोवृत्ति का निराकरण हो जाता है। उसका लक्ष्य मानवीय जीवन के सत्य को खोजना होता है, मानवीय मूल्यों को अपनाना होता है। सूफी के आदर्श के संकलन में सबका समावेश होता है। उसका आदर्श न आंशिक होता है, न छोटा या विखण्डित होता है, बल्कि समग्र होता है। सूफी साधक मानता है कि सिर्फ गति ही प्रगति नहीं होती, बल्कि किसी भी विशिष्ट दिशा में अपने मुकाम की तरफ कदम बढ़ाते जाना प्रगति है। आदर्श के विरुद्ध गति प्रगति नहीं है अनाचार है। उसका आदर्श सार्वभौम होता है। एक सूफी का आदर्श होता है- अद्वैत की स्थापना और साधन होता है समन्वय। यही तो है सार्वभौमिकता की पहचान। सार्वभौमिकता का परममूल्य, एक सूफी के लिए होता है- प्रेम। द्वेष के लिए निमित्त की आवश्यकता होती है, प्रेम के लिए नहीं, क्योंकि वह नित्य स्वरूप है। सूफी का स्वार्थ व्यापक होता है, इसलिए वह निःस्वार्थी होता है- क्योंकि स्वार्थ में जब व्यापकता आ जाती है तो स्वार्थ मिट जाता है। सूफी मानता है कि मनुष्य जब अपने नाप के देवता और धर्म या सम्प्रदाय गढ़ लेता है तब वे शाश्वत् नहीं होते। जो सार्वत्रिक हो, मानवता व्यापी हो, वही अपौरुषेय या शाश्वत् हो सकता है। धर्म का स्वभाव व्यावर्तक या अलगाववादी नहीं होता। सूफी का धर्म व्यापक वृत्ति का होता है, मनुष्य को मनुष्य से मिलाने का होता है, अलग करने का नहीं। धर्म में सुविधा का तत्त्व नहीं होता। उसमें असहिष्णुता का आना ही कलह का कारण बन जाता है। विरोध का निराकरण और समन्वय की स्थापना सूफी साधना है।

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