दलित शब्द के अर्थ से हम सभी परिचित हैं, जो दबाया हुआ, कुचला हुआ, समाज बहिष्कृत, समाज का सबसे निचला वर्ग, जो दीन-हीन अवस्था में पड़ा हो, मजदूर शूद्र, अछूत आदि तमाम संज्ञाओं से जाना-पहचाना जाता है। 'दलित' शब्द भले ही आधुनिककाल का हो किन्तु दलित वर्ग पर हो रहे जुल्म प्राचीनकाल से ही चले आ रहे हैं। उनकी इसी पीड़ा को डॉ. बाबुभाई डी. नगोता ने अपनी पुस्तक 'हिन्दी दलित आत्मकथाएँ : एक अनुशीलन' में पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। उन्होंने अपनी इस पुस्तक में दलितों की समस्याओं को उठाते हुए उनके साथ न्याय करने की पूरी कोशिश की है। दलितों की उत्पत्ति से लेकर उनके साहित्यिक विकास तक की यात्रा को समेटने का प्रयास उन्होंने किया है।
दलित शब्द का प्राचीन नाम असुर था, उसके बाद दास-दस्यु, शूद्र आदि नाम समय-समय पर होते गये। जैसाकि विदित है शूद्रों के दो वर्ग देखने को मिलते हैं जिसमें एक को अबहिष्कृतशूद्र कहा गया और दूसरे को बहिष्कृत शूद कहा गया। अबहिष्कृतशूद्र उन्हें कहा गया जिन्होंने आर्यों से पराजित होकर उनकी अधीनता को स्वीकार कर लिया और वे उनके गुलाम बन गये। वे आर्यों के साथ रहकर पशुपालन, दस्तकारी, शिल्पकारी तथा लकड़ी से संबंधित समस्त कार्यों को करते थे। आगे चलकर इनमें अनुलोभ विवाह की प्रथा का प्रचलन हुआ जिसके फलस्वरूप इनसे उत्पन्न प्रजा का एक नया वर्ग अस्तित्व में आया जिन्हें आर्यों का दास कहा जाने लगा। आर्यों के साथ इनका रोटी-बेटी का संबंध नहीं था इसलिए इन्हें एक ही वर्ण में उपवर्ण के रूप में पहचाना गया। दूसरा वर्ग बहिष्कृतशूद्रों का है जिन्हें समाज अछूत, अस्पृश्य मानता है या यों कहें कि जिन्हें स्पर्श करने से पाप लगता है। इस वर्ग को सभी प्रकार की यातनाओं से गुजरना पड़ता था। इन लोगों के कार्य थे- मरे हुए पशुओं को ढोना, गंदगी साफ करना आदि। इन्हें गाँव में रहने की इजाजत नहीं थी इसलिए गाँव से बाहर दूर जहाँ लोगों का आवागमन नहिवत् होता था ऐसे स्थान पर इनका निवास होता था। ये किसी को स्पर्श नहीं कर सकते थे, ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकते थे, व्यवसाय नहीं कर सकते थे आदि तमाम प्रतिबंध इन पर लगाये गये थे। इन्हें पशु से बदतर स्थिति में जीने के लिए विवश होना पड़ता था। इन्हीं में से एक वर्ग वह भी माना जा सकता है जो आर्यों की न तो अधीनता स्वीकार करता है और न ही उनकी दासता या गुलामी को स्वीकार करता है, अपितु उनका डटकर सामना करते हुए वन की ओर चला जाता है और वहाँ अपना आश्रय बनाता है। वह अपने आपमें पूर्णतः स्वतंत्र होता है निशादराज आदि इसी श्रेणी में आते हैं।
दलितों को उनकी इस नारकीय जिन्दगी से उबारने के लिए समय-समय पर प्रयास होते रहे हैं। महात्मा ज्योतिराव गोविन्दराव फूले, बाबा साहब भीमराव अंबेडकर आदि महापुरुषों ने दलितोद्धार के लिए अथक प्रयास किये। बाबा साहेब डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने दलितों को यह संदेश दिया कि शिक्षित बनो, संगठित रहो, संघर्ष करो' यही उनका दलितोद्धार के लिए त्रिसूत्री फार्मूला है। शिक्षित बनो शिक्षा-ज्ञान प्राप्त करो, संगठित रहो-संगठन-एकजुट रहो, शक्ति एकत्रित करो, संघर्ष करो संघर्ष-बुराईयों के खिलाफ लड़ो- सरकार की शोषण नीतियों के प्रति सवर्णों के प्रति (रूढ़ियों एवं कुरीतियों के प्रति) और-दलित वर्गों में विद्यमान बुराईयों के प्रति ।
आज जिसे हम 'अनुसूचित' या 'हरिजन' के नाम से जानते हैं वे पहले शूद्र, अतिशूद्र, अन्त्यज, चाण्डाल, अवर्ण या पंचम् वर्ण के नाम से जाने जाते थे। ये अछूत व अस्पृश्य जिस रास्ते से निकलते थे उनके जाने के बाद उस रास्ते पर पानी छिड़का जाता था जिससे रास्ता पवित्र हो जाय और जिससे उधर से निकलने वाला कोई सवर्ण अपवित्र न होने पाये। कहीं-कहीं तो अछूतों के पीछे झाडू बाँधने की प्रथा थी जिससे उनके जाने के बाद झाडू से उनके पदचिह्न स्वतः मिट जाय। ऐसी परिस्थिति एवं वातावरण में अंबेडकर का जन्म हुआ था, जिसे दूर करने के लिए वे आजीवन प्रयत्नरत रहे।
डॉ. अम्बेडकर तत्कालीन समय में यह देख रहे थे कि किस तरह दलितों के गाँव के गाँव जला दिये जा रहे हैं, उनकी हत्याएँ खुलेआम की जा रही थीं, यहाँ तक कि बच्चों को भी नहीं बक्शा जा रहा था। उत्तर प्रदेश, बिहार मध्य प्रदेश आदि प्रदेशों के लिए यह आम बात थी। इन सबके पीछे सिर्फ एक ही कारण नजर आता है और वह है सदियों से चली आ रही पुरानी घिसी-पिटी परम्पराएँ। जब भी दलितों ने अपने अस्तित्व को बचाने के लिए सिर उठाया है उसे कुचल दिया गया है। उन्हें तो सदा से दास या यशमैन बनाकर रखने का प्रयास किया जाता रहा है। दलितों, पीड़ितों को सामाजिक, प्रशासनिक न्याय न मिलने पाये इसका हरसंभव प्रयास होता रहा है, जिससे सवर्णों का सिर गर्व से ऊँचा उठा रहे और दलितों का व्यक्तित्व गिरा रहे। इससे समाज में उनकी प्रतिष्ठा, वर्चस्व बना रहेगा और दलित कभी सिर उठाने की हिम्मत भी नहीं कर पायेंगे। एकता में बहुत बड़ी ताकत होती है इसीलिए अंबेडकर ने दलितों को जोड़ने का हरसंभव प्रयास किया है। उन्होंने मजबूत धागे के रूप में बौद्ध धर्म को अपनाया, फिर भी उन्हें एकजुट करने में पूर्ण सफलता नहीं मिल पायी है। अन्य जातियों की तरह उनमें विभाजन की बड़ी गहरी खाई है जिसे पाट पाना बहुत मुस्किल है। यह दलित वर्ग कोरी, चमार, पासी, बाल्मीकि, खटीक, आदि तमाम वर्गों में विभाजित हैं। सभी अपने को एक-दूसरे से अलग बताते हैं। जब तक यह एकता की कड़ी पूरे देश में नहीं होगी तब तक समस्या का कोई निदान नहीं हो सकता। इसलिए डॉ. अम्बेडकर ने पहले तो दलितों को संगठित करने का प्रयास किया और फिर जातिवाद को समाप्त करने की मुहिम छेड़ी।
डॉ. अम्बेडकर ने समय-समय पर अस्पृश्यता निवारण आन्दोलन किये। बहिष्कृत हितकारिणी सभा की स्थापना 20 जुलाई, सन् 1924 को दलितों के उत्थान के लिए की।
जिस जलाशय में जानवरों को पानी पीने और नहाने तक की छूट थी उसी में दलितों को पीने का पानी भी नहीं भरने दिया जाता था, उसके लिए 20 मार्च, सन् 1927 को महाराष्ट्र के कोलाबा जिले में महाड़ स्थित चावरदार जलाशयों से अछूतों को पानी भरने के लिए ऐतिहासिक सत्याग्रह किया। इससे अछूतों में एकता की लहर दौड़ गई और वे रूढ़ियों, अंधविश्वासों, धार्मिक जड़ता और असमानता आदि के खिलाफ आवाज उठाने के लिए तत्पर हो गये। इस घटना ने सवर्णों में तिलमिलाहट पैदा कर दी और वे सामूहिक रूप से अम्बेडकर का विरोध करने लगे। मुंशी प्रेमचंद ने 'ठाकुर का कुआँ', 'मंदिर' 'सद्गति' आदि कहानियों में इसी तरह से दलितों की समस्याओं को उठाया है। डॉ. अम्बेडकर ने दलितों के अधिकारों को दिलाने, उन्हें मंदिर में प्रवेश कराने का क्रान्तिकारी कदम उठाया।
दलित साहित्यकारों को उर्जा डॉ. अंबेडकर जी से मिलती है और वे साहित्य की तमाम विधाओं कहानी, कविता, उपन्यास, नाटक, आत्मकथा, जीवनी आदि में लेखनी चलाकर उसे समृद्ध किया है। दलित साहित्य अब हाशिये का साहित्य नहीं रहा वह हिन्दी साहित्य के केन्द्र में आ गया है। दलित साहित्य से हिन्दी साहित्य और अधिक समृद्ध हो गया है। हिन्दी दलित आत्मकथाओं में भगवानदास की आत्मकथा 'मैं भंगी हैं', मोहनदास नैमिशराय की 'अपने-अपने पिंजरे', ओमपकाश बाल्मीकि की 'जूठन', कौशल्या वैसंत्री की 'दोहरा अभिशाप', डॉ. डी. आर. जाटव की 'मेरा सफर मेरी मंजिल', नाथुराम सागर की 'मुझे चोर कहा', अमरसिंह चौहान की 'गुलामी में जकड़े हम', माता प्रसाद की 'झोपड़ी से राजभवन', सूरजपाल चौहान की 'तिरस्कृत' और 'संतप्त' आदि उल्लेखनीय आत्मकथाएँ हैं।
ओमप्रकाश बाल्मीकि ने 'जूठन' आत्मकथा में अपने भोगे हुए कटु यथार्थ को 'जूठन' के माध्यम से सबके समक्ष प्रस्तुत किया है। उच्चवर्ग के द्वारा दलितों के साथ जो दुर्व्यवहार हो रहा था, उन्हें शिक्षा से वंचित रखने का हरसंभव प्रयास किया जा रहा था। स्कूल में दलितों के बच्चों को शिक्षा देने के बजाय उनसे परिसर की सफाई करवाई जाती थी। उन्हें पीने का शुद्ध पानी भी नहीं दिया जाता था और विरोध करने पर सजा भी दी जाती थी। दलितों को सवर्णों के तिरस्कार का सामना करना पड़ता था तथा जूठन उठाने की समस्या आदि का विस्तृत विवेचन 'जूठन' आत्मकथा में लेखक ने किया है। दलितों में विवाह के पश्चात् सलाम करने की प्रथा वर्षों से चली आ रही थी, जिसमें विवाहोपरान्त नई-नवेली दुल्हन को उन सवर्णों के यहाँ सलाम करने जाना होता था जिनके यहाँ उनके घर के लोग काम करने जाया करते थे। लेखक के भाई जनेसर की जब शादी हुई तो उस समय लेखक के पिता ने इस सलाम कुप्रथा को निभाने से मना करके अपने समाज के हित के लिए एक क्रान्तिकारी कदम उठाया। ओमप्रकाश बाल्मीकि जी ने समाज की ऐसी अनेकों कुप्रथाओं का उल्लेख 'जूठन' में किया है।
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